भाषा विवाद अपनी राजनीति चमकाने और अस्तित्व के लिए

punjabkesari.in Saturday, Jul 12, 2025 - 05:33 AM (IST)

महाराष्ट्र  में हिंदी बोलने पर मराठी भाषियों के एक वर्ग द्वारा विरोध और मारपीट करने की घटनाएं और कुछ नहीं, बल्कि एक संवेदनशील मुद्दे की आड़ लेकर अपनी राजनीतिक जमीन को उपजाऊ बनाए रखने की कोशिश है। यह परिपाटी बन गई है कि जब भी लगे कि जनता को गुमराह कर अपना उल्लू सीधा करना है, तो भाषा की लड़ाई शुरू कर दो और यह केवल एक राज्य तक सीमित नहीं, देश भर में यह पैंतरा अपनाया जाता है। इससे किसका लाभ होता है, इसे समझना होगा।

भाषाओं का संगम : भारत विश्व का सबसे अधिक आबादी और भाषावादी देश है। यहां प्रमुख रूप से और सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त भाषाओं के अतिरिक्त लगभग 1600 से अधिक मातृभाषाएं, बोलियां हैं, जिनका अपना इतिहास, संस्कृति और साहित्य है। इस विविधता को न समझ पाने का लाभ आक्रांताओं के रूप में आए मुगलों और अंग्रेजों ने उठाया और भारतीय भाषाओं के सिर पर अपनी भाषाओं को थोप दिया। उर्दू और हिंदी मिलकर हिंदुस्तानी हो गई और अंग्रेजी राजकाज में इस्तेमाल होने लगी। जिन प्रदेशों में उनकी अपनी भाषाओं का बोलबाला था, उन पर भी अंग्रेजी लाद दी गई।

महात्मा गांधी को अंग्रेजों की चाल समझने में देर नहीं लगी। उन्होंने देखा कि हिंदी एक बहुत बड़े क्षेत्र में बोली जाती है लेकिन पूरे देश में नहीं। उन्हें लगा होगा कि हिंदी को सर्वमान्य और पूरे देश को जोड़ कर रखने वाली भाषा बनाया जा सकता है, क्योंकि लडऩा है तो अपनी एक भाषा तो होनी ही चाहिए। अगर हिन्दी को स्वीकार्य भाषा बनाना है तो सबसे पहले उन राज्यों में इसे पहुंचाना होगा, जहां उनकी अपनी भाषाएं समृद्ध तो हैं लेकिन उनके देशव्यापी बनने की संभावना नहीं है और हिंदी अपने विविध रूपों में आधे भारत द्वारा बोली और समझी जाती है।

आजादी की लड़ाई में हिंदी का प्रयोग सब जानते हैं। स्वतंत्र हुए तो कुछ नेताओं पर अंग्रेजी का नशा सिर चढ़कर बोल रहा था और वे इसमें पारंगत होने की लालसा के अतिरिक्त अंग्रेजों को यह दिखाने में लगे रहते थे कि उनके जाने के बाद उन्होंने इसे पूरे देश की भाषा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जो अहिन्दी भाषी हिंदी सीखकर यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि उन्हें रोजगार मिलने में आसानी होगी, उन्हें भारी झटका लगा क्योंकि हिंंदी की कद्र तो हिंदी भाषी राज्यों में ही नहीं थी बल्कि सब जगह अंग्रेजी का बोलबाला था। इससे उन्हें अपने साथ धोखा हुआ जैसा लगा और उन्होंने हिंदी के विरोध में झंडा उठा लिया, अपनी आवाज़ को इतना बुलंद किया कि देश भर में हिंदी विरोध की लहर फैल गई। 

सरकार की अक्षमता : सरकार की नीति के अनुसार व्यावहारिक रूप से सभी प्रशासनिक कार्य केंद्र और सभी राज्यों में अंग्रेजी में होने लगे लेकिन क्योंकि हिंदी को भी कानून में अंग्रेजी के बराबर रखा गया था, इसलिए लीपापोती भी करनी थी। विद्वानों की ऐसी मंडली बनाई, जिसने अंग्रेजी शब्दों का हिंदी में ऐसा भ्रष्ट और घटिया अनुवाद किया कि उन्हें बोलना भी मुश्किल था। उल्लेखनीय यह है कि ये सब अंग्रेजी में ही काम करते थे और उसी के पैरोकार थे लेकिन नाम हिंदी का लेते थे। ऐसे में हमारी जो क्षेत्रीय भाषाएं थीं, वे अलग-थलग पड़कर अपनी पहचान बनाने का संघर्ष करने लगीं। इसका परिणाम यह हुआ कि वे अपने प्रदेश में हिंदी प्रदेशों से नौकरी या व्यापार करने आए लोगों का विरोध करने लगे। मराठी न बोल पाने पर पिटाई कर देना इसका ही उदाहरण है।

देश में भाषा को लेकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले दल हिंदी को साम्राज्यवादी बताते हुए अपनी अस्मिता, संस्कृति और यहां तक कि साहित्य और सिनेमा तक के लिए खतरा बताते हैं। एक झूठ, कि हिंदी को जबरदस्ती लादा जा रहा है, निरंतर फैलाते रहते हैं जबकि सच्चाई यह है कि हिंदी के बिना इन भाषाई ठेकेदारों का कोई अस्तित्व ही नहीं है। क्या महाराष्ट्र में हिंदी के बिना सिनेमा बन सकता है? तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम में हिंदी के बिना काम चल सकता है? अन्य राज्यों की भाषाएं हिंदी के सहयोग बिना क्या अपना विस्तार कर सकती हैं? 

हिंदी में अनुदित या रूपांतरित होकर सभी भाषाओं का श्रेष्ठ और राष्ट्रीय तथा विश्व स्तरीय साहित्य यदि पुस्तकों, नाटकों तथा सिनेमा के माध्यम से प्रसारित होता है तो इसका अर्थ यह है कि सभी भाषाएं इसके वर्चस्व को स्वीकार करती हैं। लेकिन यह बात राजनीतिज्ञों को सबसे ज्यादा अखरती है कि उनके प्रदेश में, मिसाल के तौर पर हिंदी और मराठी भाषी लोग कैसे एक-दूसरे के साथ गलबहियां करते हैं और मिलजुल कर काम करते हैं। इस बात से किसी को कोई आपत्ति नहीं है कि उनके प्रदेश में उनकी भाषा को प्रोत्साहन मिले लेकिन यदि इसके साथ ही हिंदी को भी रखा जाए तो इससे राष्ट्रीय एकता को मजबूती मिलेगी, इसका विरोध क्यों होता है? राजनीतिक दलों को अपने स्वार्थ पूरे करने होते हैं और यह तब ही हो सकता है जब वे किसी न किसी बात पर लोगों के बीच बिखराव पैदा कर सकें। 

सरकार की मजबूरी : यह संयोग नहीं एक प्रयोग था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को यह आदेश देना पड़ा कि जब तक अहिन्दी भाषी राज्य न चाहें, अंग्रेजी सरकारी कामकाज की भाषा बनी रहेगी। आज तक यही कायम है। इससे ङ्क्षहदी की प्रतिष्ठा तो कम हुई ही, लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं को भी कुछ नहीं मिला। वे सभी अंग्रेजी के अधीन काम करती हैं। तीन भाषाएं पढऩे की नीति शुरू से गलत साबित हुई क्योंकि इसे अमल में लाने के लिए दोगली नीति अपनाई गई। ङ्क्षहदी थोपे जाने का भ्रम इसी नीति ने पैदा किया। लोग भाषा को लेकर एक दूसरे से नफरत करने और आपस में लडऩे लगे। या तो जैसा है वही स्वीकार करें जैसे कि अंग्रेजी की अनिवार्यता और हिंदी सहित सभी भाषाएं उसके माध्यम से ही फले-फूलें अथवा कुछ और जिसके जरिए भारतीय भाषाओं के सामने उनकी पहचान का संकट न हो।-पूरन चंद सरीन 
 


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