कोहली-कुंबले प्रकरण: क्या अब ‘जी-हजूरिए’ ही कोच बना करेंगे

Thursday, Jun 22, 2017 - 10:57 PM (IST)

‘खसमां नूं  खांदा डंडा, खूह विच पैंदा मुंडा, सांभ के रखो धंधा’। बेशक सैद्धांतिक रूप में ही सही, भारतीय क्रिकेट  के अगले कोच को यह लोकोक्ति याद रखनी होगी क्योंकि अब उसका काम केवल नतीजों पर ही निर्भर होगा। लगातार 5 सीरीज में भारतीय टीम को जीत दिलाने के बावजूद अनिल कुम्बले की बर्खास्तगी ने यह दिखा दिया है कि यदि किसी कोच ने अपनी नौकरी बचानी है तो उसे कप्तान की लोलो-चप्पो करनी होगी और टीम में लोकप्रिय बने रहना होगा। 

ग्रेग चैपल की 2007 में बर्खास्तगी के लिए ड्रैसिंग रूम का विद्रोह जिम्मेदार था लेकिन इससे उनके बाद में भारत आने वाले विदेशी कोचों को यह महत्वपूर्ण सबक मिल गया: जुबान कम से कम चलाओ और अदृश्य बने रहो। अब अनिल कुम्बले की अपमानजनक विदायगी ने किसी कोच के लिए वर्जित बातों की सूची में कुछ नई बढ़ौतरी कर दी है। जिससे भारतीय क्रिकेट टीम के कोच का दबदबा और भी कमजोर पड़ गया है। लेकिन यह आलेख कोहली को खलनायक और कुम्बले को पीड़ित के रूप में प्रस्तुत करने की कवायद नहीं है। 

भारतीय क्रिकेट के कई बहुत संवेदनशील मुद्दों की तरह इस मामले के संबंध में उठी हुई गर्द भी लंदन होटल के कांफ्रैंस रूम के गलीचों के नीचे धकेल दी गई है। जहां सचिन तेंदुलकर, सौरभ गांगुली और वी.वी.एस. लक्ष्मण पर आधारित हाई प्रोफाइल क्रिकेट समिति के साथ-साथ बी.सी.सी.आई. के दिग्गजों ने किसी समझौते की गुंजाइश तलाशने के लिए कोहली और कुम्बले का पक्ष सुना। इससे पहले कि वास्तविक सच्चाई पास के कमरे तक पहुंचती, किसी भी कीमत पर अपनी जुबान न खोलने के लिए कटिबद्ध भारतीय क्रिकेट के सबसे शक्तिशाली व्यक्तियों ने इसका गला घोंट दिया। इस असफल ‘शांति वार्ता’ में से जो समाचार छन-छन कर बाहर निकले हैं वे केवल वास्तविक घटनाक्रम के बारे में अपनी-अपनी अटकलें मात्र हैं। बी.सी.सी.आई. आधिकारिक रूप में इस घटनाक्रम की अवास्तविक तस्वीर पेश करना जारी रखे हुए है।

इसके अधिकारी अभी भी कोच के बदलाव को बिल्कुल ‘सहज संक्रांति’ का नाम दे रहे हैं। यहां तक कि कुम्बले ने भी अपनी जिम्मेदारी को अलविदा कहते हुए सचमुच में तड़ाक से दरवाजा बंद नहीं किया था। अलविदा के रूप में उन्होंने जो ट्वीट किया वह बहुत संकोच भरा है और किसी के विरुद्ध भी दुर्भावना व्यक्त नहीं करता। कुम्बले की स्थिति ‘नेकी के लिए शहीद होने वाले’ व्यक्ति जैसी है और उन्होंने केवल इतना ही संकेत दिया है कि कोहली ने उनसे विश्वासघात किया है। वैसे कोहली भी अब तक चैम्पियंस ट्राफी की अधिकतर प्रैस कांफ्रैंसों में दोनों के बीच किसी तरह की कटुता होने से इंकार कर रहे हैं। 

क्रिकेट के खिलाड़ी सदा की तरह व्यवहार कुशल हैं और बिना सोचे-समझे उलटी-सीधी बातें करने में विश्वास नहीं रखते। वे भली-भांति और सच्चे मन से यह मानते है कि क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है। कुछ ही महीनों में कप्तान अपनी ‘फार्म’ खो सकता है और दूसरों का पसंदीदा नहीं रह सकता। बी.सी.सी.आई. में भी शक्ति समीकरण तथा चहेते रातों-रात बदल सकते हैं। बी.सी.सी.आई. की संकटकालीन दिशा-निर्देशिका में यह बात बहुत जबरदस्त ढंग से रेखांकित की गई है। कोई भी ज्वारभाटा के विरुद्ध नहीं तैरता बल्कि इसके शांत हो जाने की प्रतीक्षा करता है। 

कानाफूसियों से पता चलता है कि कोहली को कुम्बले का दृष्टिकोण दमघोंटू महसूस होता था। रवि शास्त्री के सहज-सरल दौर के विपरीत कुम्बले के अंतर्गत बहुत अधिक निर्देश जारी होते थे। कुछ लोग इन्हें सुझाव का नाम देते हैं। लेकिन हर किसी की प्रतिक्रिया इस बात पर निर्भर करती है कि वह किस खेमे से संबद्ध  है। यह आरोप भी लगा था कि कुम्बले ऐसा व्यवहार करते थे कि वह अभी भी भारतीय टीम के कप्तान हों। यह प्रतिक्रिया भी आपकी संबद्धता के आधार पर अलग-अलग हो सकती है। 

कुम्बले के पक्षधरों का कहना है कि वह बहुत सलीके से प्रत्येक मैच की परिस्थितियों के अनुरूप योजना तैयार करने वाले व्यक्ति हैं। वह ऐन मौके पर प्रत्येक प्रतिद्वंद्वी की कमजोरी को ताड़ कर इसका लाभ उठाने का प्रयास करते थे। वह मैच के ऐन बीचों-बीच किसी प्रतिद्वंद्वी की गलती पकड़ कर अपनी टीम के खिलाडिय़ों के ध्यान में लाते थे न कि इसका चीरफाड़ करने के लिए मैच समाप्त होने तक इसका इंतजार करते थे। दूसरी ओर कोहली खेमे की नजरों में मैच के बीचों-बीच भेजे जाने वाले निर्देश बेवजह दखलंदाजी के तुल्य होते थे। यह कहा जाता है कि खेल के दौरान कुछ ही ऐसे फैसले लिए गए होंगे जिन पर कप्तान और कोच की परस्पर सहमति रही होगी।

सशक्त खेमों में बंटे हुए एक ड्रैसिंग रूम में कुम्बले ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि उनकी जिन बातों को हस्तक्षेप तथा यथास्थिति को असंतुुलित करने वाली माना जाता है वास्तव में उनकी व्याख्या ही गलत ढंग से की जा रही है। जिस टीम में अधिकतर खिलाडिय़ों को विराट कोहली के एजैंटों द्वारा अनुबंधित किया गया हो वहां ऐसे मुद्दे बहुत ही संवेदनशील बन जाते हैं। फिर भी पारदर्शिता की अनुपस्थिति तथा खिलाडिय़ों और अधिकारियों के बीच जुबानबंदी के समझौते के चलते ऐसी बातों को ‘साजिश का सिद्धांत’ कहकर दरकिनार कर दिया जाता है। वास्तव में बी.सी.सी.आई. किसी नकारात्मक पहलू के बारे में पता लगाने की मानसिकता ही नहीं रखता। 

फिर भी दो-चार ऐसी बातें हैं जिन्हें बहुत दृढ़ विश्वास से कहा जा सकता है। कुम्बले का युग शास्त्री के दौर से बहुत भिन्न था और कोहली को इसमें एडजस्ट करना बहुत मुश्किल लग रहा था। यह बात भी पूरे निश्चय से कही जा सकती है कि कुम्बले की बर्खास्तगी से अगला कोच अवश्य ही समझदारी से काम लेगा और लक्ष्मण रेखा को पार करने की हिमाकत नहीं करेगा। जहां तक बी.सी.सी.आई. का सवाल है, इसने कप्तान का साथ देकर बहुत समझदारी दिखाई है। कुम्बले का कोई योग्य उत्तराधिकारी ढूंढना बहुत मुश्किल होगा। लेकिन कोहली का विकल्प तलाशना इससे भी अधिक कठिन होगा। इसके अलावा तेंदुलकर, गांगुली और लक्ष्मण जैसे दिग्गज यह नहीं चाहेंगे कि उन्हें कुम्बले की तरफदारी करने का उलाहना दिया जाए। पहले नम्बर पर कुम्बले के कोच होने की बात और उनके पुराने खिलाड़ी साथी होने की बात दूसरे नम्बर पर थी।

यदि इस प्रकरण से उठा वावेला असुखद है तो भी टाला नहीं जा सकता था। टीम पर आधारित किसी भी खेल में एक व्यक्ति को इतनी शक्तियां देना कि कोई उस पर सवाल न उठा सके, एक अस्वस्थ रुझान होगा। आने वाले दिनों में भारतीय कोच अपने विचारों को सार्वजनिक करने या टीम की जिंदगी दूभर बनाने से पूर्व दो बार सोचेगा। बहुत अधिक वेतन और भारी-भरकम सुविधाओं वाली नौकरी करने वाले लोगों से यह उम्मीद रखी जाती है कि वे जुबान केवल तब ही खोलें जब उन्हें ऐसा करने का आदेश मिले। शायद कोहली का कोच के बदलाव के लिए कहना न्यायसंगत है क्योंकि दोनों के बीच कार्यशील संबंध धराशायी हो चुका था। फिर भी कुम्बले की असमय विदाई ने एक गलत संदेश दिया है। यदि ऐसे प्रकरण अधिक संख्या में देखने को मिलेंगे  तो भारतीय कोच के पद को केवल ‘जी हजूरिए’ ही स्वीकार किया करेंगे।     

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