‘खाकीवाला’ आपके लिए, आपके साथ कभी नहीं

punjabkesari.in Tuesday, Mar 03, 2020 - 03:01 AM (IST)

पिछला सप्ताह एक भयंकर सप्ताह के रूप में याद किया जाएगा जब दिल्ली में हुई भीषण ङ्क्षहसा से सारा देश हत्प्रभ रह गया। नकाब पहने गुंडों ने लोगों को मारा, उनके घरों और दुकानों को जलाया। जो कुछ भी उनके सामने पड़ा उसको बर्बाद किया और पुलिस वाले इस तांडव को मूकदर्शक बने देखते रहे। जैसा कि उन्होंने इससे पूर्व नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध प्रदर्शनों में जामिया मिलिया, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और अलीगढ़ विश्वविद्यालय में किया था। खाकीवाला नागरिकों की रक्षा करने की अपनी जिम्मेदारी क्यों छोड़ देता है? क्या यह संयोग था या प्रयोग? 

इन प्रश्नों के उत्तर आसान नहीं हैं। किसी भी मोहल्ले, राज्य या जिला में चले जाओ, यही कहानी देखने को मिलती है। उत्तर प्रदेश में पुलिस पर ज्यादती करने का आरोप है तो कर्नाटक में अति सक्रिय पुलिस पूरे राज्य में धारा 144 लागू कर विरोध प्रदर्शन को दबा रही है और उपद्रवग्रस्त स्थानों पर ये सत्तारूढ़ पार्टी की सशस्त्र शाखा के रूप में कार्य करते हैं और माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में आतंकवादरोधी कार्रवाई के नाम पर न्यायेत्तर हत्याएं करते हैं। यदि आप किसी से छुटकारा पाना चाहते हैं तो पुलिस वाले को बुलाइए। 

पुलिस ने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग किया 
अनुभव बताता है कि गत वर्षों में पुलिस ने न केवल अपनी शक्तियों का दुरुपयोग किया अपितु अंधाधुंध कुप्रयोग किया। वह तर्क और जिम्मेदारी से बचती रही। पुलिसकर्मी अपने राजनीतिक माई-बाप को खुश करने का प्रयास करते हैं और सभी पाॢटयों द्वारा पुलिस का उपयोग अपने एजैंडा को पूरा करने के लिए किया जाता है। पुलिस बल आज भी औपनिवेशिक काल के पुलिस अधिनियम 1861 द्वारा शासित होते हैं, जिसके अंतर्गत वर्दी वाला अपने आका का आदेश पालक और आम आदमी के विरुद्ध होता है। इस अधिनियम के अंतर्गत पुलिस को नकारात्मक भूमिका मिली है जिसका मुख्य कार्य प्रशासन की रक्षा करना है जिसके चलते हमारे नेता पुलिस बल का उपयोग अपने गलत हितों को साधने के लिए करते हैं। 

पुलिस द्वारा की गई 60 प्रतिशत गिरफ्तारियां अनावश्यक और अनुचित
पुलिस आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘‘देश में सामान्य कानूनों के अंतर्गत की गई 60 प्रतिशत गिरफ्तारियां अनावश्यक और अनुचित हैं तथा पुलिस की अवांछित कार्रवाई के कारण जेलों पर 43.2 प्रतिशत व्यय हो रहा है जिसके चलते पुलिस बल न केवल अधिक शक्तिशाली बने हैं अपितु उनकी जवाबदेही भी कम हुई है। अनेक बार देखने को मिला है कि लोकतंत्र के लिए अनिवार्य संतुलन बनाने की प्रक्रिया को छोड़ दिया जाता है। देश में जमानती अपराधों में गिरफ्तारी 113 प्रतिशत है। मानव अधिकार आयोग के अनुसार, इस मामले में सिक्किम शीर्ष स्थान पर है। उसके बाद गुजरात में 99.75 प्रतिशत, अंडेमान और निकोबार में 95.8 प्रतिशत, हरियाणा में 94 प्रतिशत, असम में 90 प्रतिशत, मध्य प्रदेश और दमन दीव में 89 प्रतिशत, कर्नाटक में 84.8 प्रतिशत और केरल में 71 प्रतिशत जमानती अपराधों में गिरफ्तारियां की गई हैं। 

पंजाब में भी पुलिस की स्थिति बुरी
हमारे खाकी वालों का कार्यकाल अनिश्चित होता है। मुख्यमंत्री उनके स्थानांतरण को पुलिस वालों को अपने अनुसार काम करने के लिए डंडे के रूप में प्रयोग करता है। जो इनकी बात नहीं मानते उन्हें अपमानित किया जाता है और दंडात्मक नियुक्ति की जाती है। उत्तर प्रदेश में पुलिस उपाध्यक्ष का कार्यकाल मात्र तीन माह है। पंजाब में भी स्थिति बुरी है। किन्तु तमिलनाडु, गुजरात और केरल में पुलिस वालों का कार्यकाल स्थिर होता है। मुख्य प्रश्न यह है कि पुलिस पर नियंत्रण कौन करेगा, सरकार या एक स्वतंत्र निकाय। यह हमारे सत्तालोलुप राजनेताओं के लिए एक दुविधाजनक प्रश्न है जिसका वे ईमानदारी से उत्तर नहीं देंगे और हमें इसकी अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए। 

वर्दी किसी पर भी रौब दिखाने का लाइसैंस है
70 प्रतिशत का मानना है कि प्रवासी लोग अपराध में संलिप्त रहते हैं। 50 प्रतिशत का मानना है कि मुसलमान अधिक अपराध करते हैं और 35 प्रतिशत गौहत्या के संदिग्धों के विरुद्ध हिंसा को उचित मानते हैं जिसके चलते निर्दोष लोगों के विरुद्ध उत्पीडऩ और हिंसा चलती रहती है। एक अपराध मनोवैज्ञानिक के अनुसार पीड़ित को शर्मसार करना पुलिस की आदत है जिसके चलते भीड़ हिंसा पर उतारू हो जाती है। पुलिसवाला मानता है कि वर्दी किसी पर भी रौब दिखाने का लाइसैंस है। 

पुलिस को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त किया जाए
समय आ गया है कि पुलिस व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन किया जाए। एक नए पुलिस बल का गठन किया जाए जो अधिक पेशेवर, प्रेरित और आधुनिक प्रौद्योगिकी में प्रशिक्षित हो। पुलिस प्रशिक्षण में विश्व की सर्वोत्तम परिपाटी का पालन किया जाए और पुलिस प्रशासन में आमूल-चूल परिवर्तन कर इसे अधिक जवाबदेह बनाया जाए तथा राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त किया जाए। एक लोकतंत्र में 160 वर्ष पुराने कानून का कोई काम नहीं है और विभिन्न आयोगों तथा इस संबंध में 8 रिपोर्टों में भी यही बात कही गई है। पुलिस व्यवस्था में राजनीतिक प्रभाव समाप्त किया जाए, पुलिस बल की सोच बदली जाए, जनता से इसका संवाद बढ़ाया जाए, राजनीतिकरण, अपराधीकरण और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जाए। 

कुल मिलाकर सभी रिपोर्टों में पुलिस सुधार की बात कही गई है किन्तु स्थिति जस की तस बनी हुई है क्योंकि हमारे राजनेता यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं। उच्चतम न्यायालय के 2006 के ऐतिहासिक निर्णय में केन्द्र और राज्य सरकारों को कुछ निर्देशों का पालन करने के लिए कहा गया है जिनमें सरकार बदलने पर अधिकारियों के राजनीति प्रेरित तबादलों को रोकने के लिए पुलिस बल को कार्यात्मक स्वायत्तता देना और पुलिस बल की जवाबदेही सुनिश्चित करना शामिल है, किन्तु इन पर ध्यान नहीं दिया गया। एक अन्य आदेश में न्यायालय ने पुलिस अधिकारियों के स्थानांतरण और नियुक्ति पर निगरानी के लिए प्रत्येक राज्य में राज्य सुरक्षा आयोग के गठन का निर्देश दिया है ताकि पुलिस बल अनावश्यक राजनीतिक प्रभाव और दबाव से मुक्त रहे तथा कानून का पालन करे, किन्तु इसे भी लागू नहीं किया गया। वस्तुत: पुलिस को थाना स्तर से कार्यात्मक स्वायत्तता देने और उसे स्थानीय लोगों के साथ सहयोग और परामर्श से अपनी प्राथमिकता व लक्ष्य निर्धारित करने की आजादी दी जानी चाहिए।-पूनम आई. कौशिश 
 


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