केरल हिंसा का ‘सच’

Friday, Oct 06, 2017 - 01:27 AM (IST)

सभ्य समाज में किसी भी कारण से होने वाली हिंसा न केवल निंदनीय है अपितु लोकतांत्रिक और संवैधानिक  व्यवस्था में अस्वीकार्य भी है परन्तु क्या हिंसा का विरोध-अपराधियों और उसके शिकार लोगों की विचारधारा व मजहब के आधार पर करना तर्कसम्मत है? इस विकृति का सबसे ज्वलंत उदाहरण केरल है, जहां गत 5 दशकों से अधिक समय से विचारधारा और मजहब के नाम पर हो रही हिंसा-हत्याओं पर देश के तथाकथित सैकुलरिस्टों व बुद्धिजीवियों की चुप्पी, किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को अखर रही है। 

केरल, जो विश्व में ‘ईश्वर का अपना देश’ नाम से विख्यात है, आज वही उस मानसिकता की जकड़ में फंसा हुआ है-जिसके दर्शन में रक्तपात, हिंसा और मानवाधिकारों को कुचलना निहित है। इसी विषाक्त दुष्चक्र के विरुद्ध केरल में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व में जनरक्षा यात्रा जारी है। 3 अक्तूबर को कन्नूर के पायन्नुर से शुरू हुए इस 15 दिवसीय अभियान का अंत प्रदेश के 11 जिलों में 154 किलोमीटर की यात्रा के पश्चात 17 अक्तूबर को तिरुवनंतपुरम में होगा। जनरक्षा यात्रा में भाजपा के अनेक शीर्ष नेताओं को भाग लेना है। इस यात्रा को देशव्यापी रूप दिया है, जिसके अंतर्गत भाजपा केरल के अतिरिक्त अन्य राज्यों में भी विरोध प्रदर्शन कर रही है। 

यह ठीक है कि भाजपा को इस यात्रा के आयोजन से राजनीतिक लाभ हो सकता है। यदि अखलाक, जुनैद और गौरी लंकेश आदि की हत्याओं पर सड़क पर उतर कर आंदोलन करने वाले स्वघोषित सैकुलरिस्ट और उदारवादी-केरल की इन हत्याओं पर भी समान रुख अपनाते, तो भाजपा को जनरक्षा यात्रा निकालने की आवश्यकता ही नहीं होती। केरल की सत्ता पर जब से (वर्ष 2016) पिनराई विजयन के नेतृत्व में वामपंथी धड़े की वापसी हुई है, प्रदेश में एक बार फिर वाम हिंसा के साथ-साथ इस्लामी कट्टरवाद चरम पर पहुंच चुका है। जनरक्षा यात्रा के प्रारंभ होने से एक दिन पूर्व भाजपा के 3 कार्यकत्र्ताओं पर उस समय हमला कर दिया गया, जब वे नीलेश्वरम बाजार में यात्रा हेतु अपनी तैयारियों में जुटे हुए थे। सत्तारूढ़ दल माकपा के लगभग 20 कार्यकत्र्ता इस हमले  के आरोपी हैं। 

केरल में विजयन सरकार के लगभग 17 माह के कार्यकाल में एक  दर्जन से अधिक संघ-भाजपा कार्यकत्र्ताओं को विचारधारा के नाम पर मौत के घाट उतार दिया गया है, जिसमें 4 कार्यकत्र्ता दलित समाज से थे। इन्हीं चारों में राजेश एडवोकेट भी शामिल था, जिसकी हत्या इसी वर्ष 29 जुलाई की रात वैचारिक मतभिन्नता के कारण निर्दयता के साथ कर दी गई थी। वर्ष 1957 से केरल में ई.एम.एस. नंबूदरीपाद के कार्यकाल से ‘लाल’ आतंक का दौर जारी है और कन्नूर उसके लिए कुख्यात है। 

वाम शासन में अन्य विचार का पनपना-विशेषकर संघ की राष्ट्रवादी विचारधारा को अंगीकार करना, एक ऐसा अपराध है, जो ईश-निंदा से कमतर नहीं, जिसमें इस्लामी कट्टरपंथियों ने मौत ही एकमात्र सजा सुनिश्चित की है। जिस प्रकार आतंकी-जेहादी अपने नृशंस कृत्य को न्यायोचित ठहराने के लिए इस्लाम और कुरान को उद्धृत करते हैं, उसी तरह वैचारिक विरोधियों को कुचलने की शक्ति वामपंथियों को अपने जनक माक्र्स और उनके चिंतन से प्राप्त होती है, जिसका आधार ही हिंसा, प्रतिरोध और असंतोष है। 

वास्तव में, वर्गभेद मिटाने के लिए वामपंथी जिस क्रांति का यशगान करते हैं, उसकी आधारशिला में ही लाखों  वैचारिक विरोधियों की लाशें और आवाज दबी हुई है। यहां एक नेता और एक ही विचार पर विश्वास रखने का सिद्धांत है। जो असहमत हैं, उन्हें मत रखने की स्वतंत्रता तो छोडि़ए, जीवन के अधिकार से भी वंचित कर दिया जाता है। यही कारण है कि विश्व के जिस भूखंड को माक्र्सवादी विचारधारा ने छुआ-वहां न केवल रक्तरंजित राजनीति और ङ्क्षहसा की नींव पड़ी, साथ ही उस क्षेत्र की सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्थाओं को भी कुचल दिया गया। रूस (सोवियत संघ) से लेकर चीन, पूर्वी यूरोपीय देशों, कोरिया, कंबोडिया इत्यादि इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। स्वतंत्र भारत में प. बंगाल, केरल और त्रिपुरा इसकी चपेट में हैं।

केरल के वाम शासन में न केवल वैचारिक विरोधियों की हत्याएं बढ़ी हैं, साथ ही उनके और स्वघोषित सैकुलरिस्टों के वमनजनक आशीर्वाद से इस्लामी कट्टरवाद भी समाज के ताने-बाने को प्रभावित कर रहा है। 23 वर्षीय कासरगोड निवासी अथिरा इसी गठजोड़ की शिकार हुई है। अथिरा नाम की युवती ने जुलाई में अपना घर छोडऩे और मतांतरण के बाद इस्लाम अपना लिया था-वह स्वेच्छा से अपने मूल समाज में लौट आई है। माता-पिता द्वारा न्यायालय का दरवाजा खटखटाने के बाद अथिरा पुन: अपनों के बीच पहुंची है। 

अथिरा के अनुसार, उसके सभी दोस्त मुस्लिम थे, जो उसे हिन्दू समाज की खामियां गिनवाकर कहते थे कि कैसे किसी पत्थर की पूजा करके मदद की उम्मीद की जा सकती है, जबकि इस्लाम में केवल एक ‘अल्लाह’ है। अथिरा को जाकिर नाइक के भाषण सुनाए जाते, जिसमें यह तर्क दिया जाता था कि इस्लाम को छोड़ कर अन्य सभी मत गलत हैं। बात अथिरा तक सीमित नहीं है। यहां निमिशा (फातिमा), मैर्रिन (मरियम) और अखिला (हादिया) जैसी कई युवतियां लव-जेहाद के माध्यम से मतांतरण का शिकार हुई हैं। केरल में मुस्लिम समाज का एक बड़ा वर्ग कट्टर सलाफी या वहाबी विचारधारा को मानता है। आई.एस. में शामिल हुए केरल के अधिकतर मतांतरित युवा भी इसी के अनुयायी हैं। 

केरल की जनसांख्यिकीय स्थिति में व्यापक परिवर्तन आया है। 1901 में यहां हिन्दुओं की संख्या 68.9 प्रतिशत थी, वह 2011 में घटकर 54.7 प्रतिशत हो गई। इसी कालांतर में जहां मुस्लिम 1901 में 17.28 प्रतिशत थे, वे 2011 में बढ़ कर 26.56 प्रतिशत हो गए। 117 वर्षों में केरल में ईसाई आबादी में भी वृद्धि हुई है। वाम विचारधारा और जेहादी मानसिकता-दोनों ने रक्तरंजित दर्शन के कारण हजारों-लाखों निरपराधों का खून बहाया और मानवता का गला घोंटा है। यही स्वाभाविकता उन्हें एक-दूसरे के निकट लाती है। स्वतंत्रता से पहले पाकिस्तान के निर्माण की मांग का समर्थन, इसका प्रमाण है। उस कालखंड में मुस्लिम लीग को छोड़ कर केवल वामपंथियों का राजनीतिक समूह ही ऐसा था, जो पाकिस्तान के संस्थापक सदस्यों में से एक था। 

स्वतंत्रता के बाद जहां केरल में दिवंगत वामपंथी मुख्यमंत्री ई.एम.एस. नंबूदरीपाद ने मुस्लिम बहुल एक नए जिले मल्लापुरम का सृजन किया, वहीं वर्तमान में पी. विजयन सरकार में केरल की सड़कों का नामकरण ‘गाजा पट्टी’ के नाम पर हो रहा है। वामपंथियों के अतिरिक्त कांग्रेस की क्षुद्र राजनीति के कारण भी केरल  में इस्लामी कट्टरता भयावह स्थिति में जा पहुंची है। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात 10 मार्च, 1948 में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आई.यू.एम.एल.) की स्थापना हुई। दिवंगत समाजवादी नेता पट्टम थानु पिल्लै की तत्कालीन सरकार को गिराने के लिए कांग्रेस ने कट्टरवादी मुस्लिम  लीग का ही सहारा लिया था। इस गठजोड़ का बचाव करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने कहा था कि केरल की मुस्लिम लीग राष्ट्रवादी संगठन है। 

यही नहीं, कट्टरवादी संगठन पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी का संस्थापक अब्दुल नासेर मदनी, वर्ष 1998 के कोयंबटूर बम धमाकों के आरोप में वर्ष 2006 में जब तमिलनाडु की जेल में बंद था, तब 16 मार्च, 2006 को होली की छुट्टी के समय केरल विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया गया, जिसमें कांग्रेस-वामपंथियों के कुत्सित सहयोग ने मदनी को पैरोल पर रिहा करने का प्रस्तावि पारित किया था।

भारत की अखंडता के विपरीत उसके स्वतंत्र अस्तित्व को नकारने, 1962 में चीनी आक्रमण का स्वागत करने वाले और गांधी जी, सुभाषचंद्र बोस आदि नेताओं को गालियां देने वाले वामपंथी आज भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में हाशिए पर हैं। अपने शेष राजनीतिक अस्तित्व को बचाने के लिए वे त्रिपुरा और केरल में हिंसा व अत्याचार की हदें पार कर रहे हैं। माक्र्सवादी भूल जाते हैं कि विचारधारा का मुकाबला विचारधारा से किया जा सकता है, न कि नृशंस हत्या के बल पर।     

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