बार-बार दिल्ली की सीमाएं क्यों लांघना चाहते हैं केजरीवाल

Tuesday, Sep 26, 2017 - 01:10 AM (IST)

आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल फिर से देश में जड़ें ढूंढने निकल पड़े हैं। केजरीवाल के बारे में कहा जाता है कि वह बहुत जिद्दी हैं और उनकी जिद यही है कि उन्हें अपनी पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर खड़ा करना है। इसी जिद और कोशिश के लिए उन्होंने दो बड़े फैसले लिए-पहला फैसला तो यह कि आम आदमी पार्टी इस साल के आखिर में होने वाले गुजरात विधानसभा का चुनाव लड़ेगी और दूसरा फैसला है कमल हासन पर डोरे डालना। 

ये दोनों ऐसे कदम हैं जिनसे लगता है कि आम आदमी पार्टी फिर से दिल्ली की सीमाओं को तोडऩा चाहती है। दिल्ली से पंजाब तक का सफर वह पूरा नहीं कर सकी लेकिन अब दूसरे सफर पर निकलना चाहती है। इस बात से किसी को कोई एतराज नहीं हो सकता और होना भी नहीं चाहिए कि आम आदमी पार्टी बार-बार कोशिशें कर रही है लेकिन जब वह कोशिश करती है तो ऐसा लगता है कि वह खुशफहमी की शिकार हो गई है। इसी खुशफहमी के कारण ही उसे बार-बार असफलताएं भी देखने को मिलती हैं। यह अच्छी बात हो सकती है कि इन असफलताओं से केजरीवाल का हौसला नहीं टूटता मगर ऐसा जरूर लगता है कि या तो वह अपने आपको बहुत ज्यादा आंक लेते हैं या फिर ऐसा लगता है कि वह सच्चाई से जानबूझकर मुंह मोड़ रहे हैं। 

केजरीवाल की खुशफहमियां 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनावों से शुरू हुई थीं। उन चुनावों तक कोई भी यह नहीं मानता था कि आम आदमी पार्टी दिल्ली की राजनीति में पैठ बना सकती है। जब नतीजे आए थे तो किसी को इस पर विश्वास नहीं होता था कि 15 साल तक दिल्ली पर राज करने वाली कांग्रेस सिर्फ 8 सीटों पर सिमट जाएगी और शीला दीक्षित खुद चुनाव हार जाएंगी। केजरीवाल ने 28 सीटें जीत कर वाकई करिश्मा किया था लेकिन इस करिश्मे ने केजरीवाल के मन फलक पर पंख फैलाने की इच्छा को पैदा कर दिया। यही वजह है कि जब उन्हें लगा कि दिल्ली को छोड़कर 2014 की अप्रैल-मई में होने वाले लोकसभा चुनावों में भाग्य आजमाया जा सकता है तो उन्होंने अकारण ही 49 दिन में दिल्ली की गद्दी छोड़ दी। 

वह पहले कह चुके थे कि 100 सीटों से ज्यादा पर चुनाव नहीं लड़ेंगे लेकिन एकाएक 400 से ज्यादा उम्मीदवार खड़े कर दिए। खुद भी नरेन्द्र मोदी से लडऩे के लिए लंगोट पहन लिया। नतीजा क्या निकला? सिर्फ 4 सीटें आईं, खुद भी हार गए और तब मानना पड़ा कि हमें आत्मावलोकन करना होगा। केजरीवाल ने तब दिल्ली की जनता से कान पकड़ कर माफी मांगी थी। सौ कसमें खाई थीं कि वह दिल्ली छोड़ कर नहीं जाएंगे।

दिल्ली की जनता ने उन पर अपूर्व विश्वास भी जताया और 2015 में जो कुछ हुआ, वह तो 2013 की कल्पनाओं से भी आगे था। 70 में से 67 सीटें जीतने का सपना तो खुद कभी केजरीवाल ने भी नहीं देखा था। तब भी केजरीवाल ने ये कसमें खाई थीं कि दिल्ली छोड़ कर नहीं जाएंगे। मगर, दिल है कि मानता नहीं। अब केजरीवाल का दिल राज्यों की विधानसभाओं पर आ गया तथा उन्होंने गोवा और पंजाब की तरफ कदम बढ़ाने शुरू किए। उन्हें लगा कि दिल्ली की तरह जहां भी कांग्रेस और भाजपा का सीधा मुकाबला है, वहां वह आसानी से पैर पसार सकते हैं। 

गोवा और पंजाब के लिए बहुत मेहनत हुई। दिन-रात एक कर दिए। जब नतीजे आए तो फिर केजरीवाल को करारा झटका लगा। उनका मन यह मानने को तैयार ही नहीं है कि जनता ने हराया है। अब तक वह ई.वी.एम. पर ही दोष दे रहे हैं। अगर, ई.वी.एम. में गड़बड़ है तो 22 सीटें भी कैसे जीत गए। खैर, अब केजरीवाल को लग रहा था कि राजौरी गार्डन उपचुनाव और उसके बाद नगर निगम के चुनावों में तो दिल्ली की जनता उन्हें ही चुनेगी। पिछले 10 सालों में नगर निगम में भाजपा की नाकामी उन्हें जीत का विश्वास दिला रही थी। मगर, इन दोनों चुनावों में भी जब केजरीवाल को हार का सामना करना पड़ा तो उन्होंने एक बार फिर ऐलान कर दिया कि अब दिल्ली पर ही सारा ध्यान केन्द्रित करेंगे। 

केजरीवाल का दिल अब फिर डोल गया है। कारण यह है कि पिछले महीने बवाना में आम आदमी पार्टी की जीत से केजरीवाल में ठीक उतना ही हौसला पैदा हुआ है जैसा 2013 के विधानसभा चुनावों में 28 सीटें जीत कर पैदा हुआ था। वह अब फिर गुजरात में भी चुनाव लड़ रहे हैं और कमल हासन के साथ तमिलनाडु में प्यार की पींगें बढ़ाना चाहते हैं। वह शायद भूल गए हैं कि बवाना की जीत सिर्फ एक विधानसभा सीट की जीत है। बवाना को जीतने के लिए उन्होंने अपने मंत्रियों को 4 महीने तक इसी इलाके में डेरा डालने के लिए कह दिया था। इलाके  में सड़कें, खड़ंजे, नालियां सब कुछ बनाए गए। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बवाना में 2.90 लाख वोटरों में से करीब 40 फीसदी तो पूर्वांचली हैं जिन्होंने 2015 में केजरीवाल की झोली वोटों से भर दी थी। इसके अलावा केजरीवाल खुद भी आधा दर्जन बार बवाना होकर आए थे। 

पिछली बार आम आदमी पार्टी वहां से 50 हजार से ज्यादा वोटों से जीती थी और इस बार 25 हजार वोटों से। इसके अलावा यह भी सच्चाई है कि बवाना के करैक्टर वाली सीटों की तादाद 70 में से 15 से ज्यादा नहीं है। फिर केजरीवाल यह कैसे भूल सकते हैं कि राजौरी गार्डन में हारने पर उनका कहना था कि एक सीट पर हार का मतलब आम आदमी पार्टी की सरकार के खिलाफ जनमत संग्रह नहीं है लेकिन बवाना सीट जीतने के बाद केजरीवाल यही मान बैठे हैं कि इस जीत का मतलब यह है कि सिर्फ बवाना या दिल्ली ही नहीं, बल्कि गुजरात और तमिलनाडु की जनता भी केजरीवाल-केजरीवाल के नारे लगाने को बेताब है। 

कहने का मतलब यह नहीं है कि केजरीवाल को गुजरात या तमिलनाडु में अपनी पार्टी के विस्तार का हक नहीं है। हैरानी इसलिए होती है कि वह बार-बार दिल्ली से बाहर पंख फैलाने की कोशिश में नीचे गिर रहे हैं। इससे दिल्ली में भी उनकी लोकप्रियता पर असर पड़ता है। पंजाब और गोवा की हार का इतना बड़ा असर पड़ा कि वह राजौरी गार्डन और दिल्ली नगर निगम के चुनाव भी हार गए। अगर वह इसी तरह लगातार गिरते रहे तो फिर दिल्ली में भी खड़े रह पाना मुश्किल हो सकता है।
 

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