केजरीवाल जी, लोग ‘सड़कों की राजनीति’ पसंद नहीं करते

Wednesday, Jun 20, 2018 - 04:00 AM (IST)

इस मौसम में गर्मी के चरम पर होने तथा प्रदूषण के गम्भीर स्तर के चलते दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल तथा उपराज्यपाल व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच एक सप्ताह से भी अधिक समय से देश की राजधानी विचित्र विवाद में फंसी हुई है। 

राजनीति के अलावा इस लड़ाई में नौकरशाही को भी घसीट लिया गया है क्योंकि मुख्यमंत्री का आरोप है कि आई.ए.एस. अधिकारी केन्द्र के इशारे पर उनके साथ सहयोग नहीं कर रहे। परिणामस्वरूप राजधानी में अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है और 14 जून के बाद से कोई काम नहीं हुआ। वर्तमान संकट तब पैदा हुआ जब अपने कैबिनेट मंत्रियों मनीष सिसोदिया, सत्येन्द्र जैन तथा गोपाल राय के साथ केजरीवाल ने  उपराज्यपाल के आवास राजनिवास पर 14 जून को इस मांग के साथ डेरा डाल दिया कि वह आई.ए.एस. अधिकारियों को उनकी अघोषित हड़ताल समाप्त करने के निर्देश दें। ‘आप’ सरकार तथा नौकरशाही के बीच तनातनी 20 फरवरी के बाद से ही चल रही है जब दिल्ली के मुख्य सचिव पर दो ‘आप’ विधायकों ने मुख्यमंत्री के आवास पर कथित रूप से हमला किया। 

इस नवीनतम अप्रत्याशित राजनीतिक नाटक में जितना नजर आता है उससे कहीं अधिक छिपा हुआ है। इस समय केजरीवाल सड़क पर लड़ाई में क्यों उतर पड़े हैं? इसके कई पहलू हैं। यह मुख्यमंत्री तथा उनके नापसंदीदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच एक तरह की मुक्केबाजी चल रही है। यह मुख्यमंत्री तथा दिल्ली के उपराज्यपाल के बीच एक सत्ता संघर्ष है। राजनीतिक तौर पर विपक्षी दल इस अवसर का इस्तेमाल उभर रही विपक्षी एकता को दिखाने के लिए कर रहे हैं। अभी तक चार विपक्षी मुख्यमंत्रियों ने केजरीवाल का समर्थन किया है। आई.ए.एस. अधिकारी मुख्यमंत्री से नाराज हैं और उन्हें अपनी सुरक्षा का डर है। 

यह पहली बार नहीं है कि केजरीवाल इस तरह के नाटक का हिस्सा बने हों। उनकी आकांक्षा प्रधानमंत्री बनने की है और वह 2014 से मोदी का सामना कर रहे हैं और यहां तक कि वाराणसी में उनके खिलाफ चुनाव भी लड़े थे। उन्होंने केन्द्र की आलोचना करने का कोई अवसर नहीं गंवाया है। उन्होंने यह कहते हुए उपराज्यपाल के कार्यालय को निशाना बनाया है कि उपराज्यपाल उन्हें काम करने से रोकने के लिए केन्द्र के एजैंट के तौर पर कार्य कर रहे हैं। उन्होंने पहले ऐसा ही उपराज्यपाल नजीब जंग के साथ किया था और अब उनके उत्तराधिकारी अनिल बैजल के साथ कर रहे हैं। जब उनकी पार्टी की पंजाब तथा गोवा में विस्तार की योजना असफल हो गई और भाजपा की उत्तर प्रदेश तथा अन्य राज्यों में अप्रत्याशित चुनावी विजय के पश्चात केजरीवाल ने यह एहसास करते हुए जानबूझ कर अपने तेवर ढीले करने का निर्णय किया कि भाजपा राजनीतिक तौर पर बढ़त की ओर अग्रसर है और उसकी विजय यात्रा उत्तर-पूर्व में भी जारी रही है। उनका इस कहावत में विश्वास है कि किसी नेता पर तब हमला न करो जब वह लोकप्रिय हो। अब उन्होंने डीजल तथा पैट्रोल की कीमतों में वृद्धि तथा मोदी की नीतियों के भी खिलाफ लोगों के बढ़ते गुस्से को देखते हुए अपनी रणनीति बदल दी है।

राजनीतिक तौर पर भी हालिया उपचुनावों के परिणामों तथा कर्नाटक में भाजपा की पराजय ने दिल्ली के मुख्यमंत्री को आक्रामक बनने की हिम्मत दी है। इसके अतिरिक्त 2019 के आम चुनावों से पूर्व हाल ही में विपक्षी एकता के लिए किए गए प्रयास थे जो कर्नाटक सरकार के गठन के बाद स्पष्ट दिखाई दिए थे। कोई हैरानी की बात नहीं कि 4 गैर राजग मुख्यमंत्रियों-ममता बनर्जी (पश्चिम बंगाल), चन्द्रबाबू नायडू (आंध्र प्रदेश), पिनाराई विजयन (केरल) तथा एच.डी. कुमारस्वामी (कर्नाटक) ने मामला प्रधानमंत्री के समक्ष उठाया है। किसने सोचा था कि दो राजनीतिक विरोधी-ममता बनर्जी तथा उनके केरल के समकक्ष कामरेड पिनाराई विजयन न केवल मिलेंगे बल्कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ मुख्यमंत्रियों के दबाव समूह का हिस्सा भी बनेंगे। 

इन चार कद्दावर नेताओं द्वारा 2019 के चुनावों से पूर्व केजरीवाल को खुला समर्थन राजनीतिक तौर पर ममता तथा विजयन की पृष्ठभूमि में भाजपा की विस्तार योजनाओं को लेकर डर है जबकि चन्द्रबाबू ने हाल ही में राजग को छोड़ा है और कुमारस्वामी अपना पद बचाना चाहते हैं। अत: लोकतंत्र तथा संघवाद के नाम पर उन्होंने ‘आप’ प्रमुख को अपना समर्थन देने का वायदा किया है। मजे की बात यह है कि यद्यपि कांग्रेस केजरीवाल के समर्थन में नहीं है मगर इससे ये क्षेत्रीय क्षत्रप आगे बढऩे से नहीं रुके। केजरीवाल राजद, रालोद, सपा, द्रमुक, भाकपा तथा माकपा जैसे अन्य विपक्षी दलों से भी धीरे-धीरे समर्थन प्राप्त करने में सफल रहे हैं। 

केजरीवाल ने जब से पदभार सम्भाला है तभी से नौकरशाही के साथ उनका संघर्ष चल रहा है और कोई हैरानी नहीं कि वह इसे जारी रखे हुए हैं। वह उपराज्यपाल के साथ आई.ए.एस. अधिकारियों की नियुक्तियों तथा स्थानांतरणों को लेकर झगड़ा करते रहे हैं। राजधानी में बहुत से लोग इस गंदे संघर्ष को देख कर खुश नहीं हैं। कौन सही है या गलत, परेशानी दिल्ली के लोगों को झेलनी पड़ रही है। केजरीवाल सरकार को इस तरह के हंगामे करने के लिए नहीं चुना गया है। वह बहुत चतुर राजनीतिज्ञ हैं और खुद को पीड़ित दिखा कर लोगों का समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। उनका यह ‘पीड़ित कार्ड’ चलेगा अथवा नहीं, यह देखा जाना है। यदि वह वोट जीतना चाहते हैं तो उन्हें अवश्य परिणाम दिखाने होंगे और मध्यम वर्ग का समर्थन वापस जीतना होगा, जो धीरे-धीरे उनसे दूर होता जा रहा है। 

दूसरे, उन्हें प्रशासनिक परिणाम दिखाने के लिए आई.ए.एस. अधिकारियों को अपने पक्ष में रखना होगा क्योंकि उनकी सफलता अथवा असफलता में उनकी एक महत्वपूर्ण भूमिका है। तीसरे, राजनीति को एक तरफ रख कर उन्हें आवश्यक तौर पर प्रशासन पर ध्यान केन्द्रित करना होगा। चौथे, केन्द्र, राज्य तथा उपराज्यपाल के साथ-साथ नौकरशाही के साथ भी एक बढिय़ा संतुलन बनाए रखना जरूरी है। लोग इस तरह की सड़कों की राजनीति को पसंद नहीं करते। हो सकता है कि केजरीवाल का ‘पीड़ित कार्ड’ एक या दो बार चल गया हो मगर वह इसे बार-बार खेल कर समर्थन प्राप्त करने की आशा नहीं कर सकते। ए.के. वापस काम पर आओ क्योंकि यही एकमात्र मंत्र है जिसका आपको जाप करना चाहिए।-कल्याणी शंकर

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