कश्मीर : नेहरू की कुछ बड़ी गलतियां
punjabkesari.in Friday, Oct 28, 2022 - 04:49 AM (IST)

27 अक्तूबर को कश्मीर पर नेहरू की गलतियों की 75वीं वर्षगांठ थी। एक ऐसी त्रुटि जिसके लिए भारत और भारतीयों ने 75 वर्षों तक अपने खून से इसका भुगतान किया। जुलाई 1947 में महाराजा हरि सिंह ने अन्य रियासतों की तरह भारत में शामिल होने के लिए कांग्रेस से संपर्क किया। इस पर नेहरू ने इंकार करते हुए कहा कि उन्हें एक ऐसी आवश्यकता चाहिए जो किसी भी साधन में मौजूद नहीं थी। 20 अक्तूबर, 1947 को पाकिस्तानी हमलावरों ने कश्मीर क्षेत्र पर आक्रमण किया।
नेहरू अभी भी हिचकिचाते रहे और भारत में शामिल होने के कश्मीर के अनुरोध को स्वीकार नहीं किया। 21 अक्तूबर को नेहरू ने आधिकारिक तौर पर महाराजा हरि सिंह के पी.एम. को पत्र लिख कर कहा कि उस समय कश्मीर का भारत में विलय होना वांछनीय नहीं है इसके बावजूद पाकिस्तानी सेना कश्मीर में तेजी से आगे बढ़ती रही। 26 अक्तूबर को पाकिस्तानी सेना ने श्रीनगर को घेर लिया और महाराजा हरि सिंह ने एक बार फिर से भारत में शामिल होने की बेताब अपील की। नेहरू ने जवाब देने में अत्यधिक देरी कर दी। 27 अक्तूबर को शेख अब्दुल्ला पर नेहरू की मांग पूरी होने पर कश्मीर आखिरकार भारतीय संघ में स्वीकार कर लिया गया।
1947 में पंडित नेहरू ने मामले को सरदार पटेल पर छोडऩे की बजाय जम्मू-कश्मीर के एकीकरण को संभालने का फैसला किया जिन्होंने अपनी सभी रियासतों के एकीकरण का प्रबंधन किया। हालांकि 1947 से लेकर 1949 तक की महत्वपूर्ण अवधि के दौरान नेहरू द्वारा की गई पांच ऐतिहासिक भूलों ने न केवल जम्मू-कश्मीर के पूर्ण एकीकरण को रोका बल्कि सुरक्षा खतरों और भारत विरोधी गतिविधियों के लिए एक भूमि तैयार की जिसने इस क्षेत्र को कई दशकों से त्रस्त कर रखा है।
75 वर्षों से एक ऐतिहासिक झूठ का प्रचार किया गया है कि महाराजा हरि सिंह ने भारत में प्रवेश किया था। हालांकि नेहरू के भाषणों और पत्रों से संकेत मिलता है कि उनके निराशाजनक व्यवहार के कारण मामलों से निपटने में देरी हुई और जम्मू-कश्मीर के विलय को लगभग पटरी से उतार दिया गया। महाराजा हरिसिंह जुलाई 1947 में शामिल होने के इच्छुक थे परंतु नेहरू ने मना कर दिया। 24 जुलाई, 1952 में एक भाषण में जवाहर लाल नेहरू ने उल्लेख किया कि महाराजा हरि सिंह ने जुलाई 1947 में ही भारत से संपर्क किया था। हालांकि परिग्रहण को औपचारिक रूप देने की बजाय नेहरू ने कश्मीर को एक विशेष मामला माना और कुछ और अधिक समय मांगा। नेहरू ने जानबूझ कर कश्मीर को एक अनूठा मामला बना दिया। जहां शासक शामिल होने के लिए तैयार था लेकिन केंद्र सरकार ने विलय को अंतिम रूप देने में संकोच किया।
नेहरू ने जानबूझ कर कश्मीर को एक अपवाद बना दिया और शेख अब्दुल्ला के साथ बातचीत करने का फैसला किया। नेहरू ने झूठा प्रचार किया कि शेख अब्दुल्ला राज्य की प्रमुख लोकप्रिय आवाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। विभाजन के बाद हुए रक्तपात और हिंसा के बावजूद नेहरू जम्मू-कश्मीर के विलय के लिए पूर्व शर्तों को बनाने पर अड़े रहे। वह चाहते थे कि महाराजा भारत में विलय से पहले एक अंतरिम सरकार की स्थापना करें। वहीं नेहरू इस बात पर अड़े थे कि शेख अब्दुल्ला को अंतरिम सरकार का नेतृत्व करना चाहिए।
पाकिस्तान के हमलावरों ने 20 अक्तूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर में प्रवेश किया और तेजी से राज्य के क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। हालांकि तेजी से विलय को औपचारिक रूप देने और जम्मू-कश्मीर को सैन्य सहायता देने की बजाय नेहरू ने परिग्रहण के लिए पूर्व शर्तों को चित्रित करना जारी रखा। यही देरी भारत के लिए महंगी साबित हुई जिससे पाकिस्तानी सेना को अपनी स्थिति मजबूत करने और आगे बढऩे का मौका मिला। 26-27 अक्तूबर को जब पाकिस्तानी सेना श्रीनगर से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर पहुंची थी तब नेहरू को विलय स्वीकार करने में अपने पर भरोसा नहीं था। नेहरू ने ये मिथक बनाया कि जम्मू-कश्मीर के विलय सशर्त और अस्थायी था।
1 जनवरी, 1948 को नेहरू ने कश्मीर पर यू.एन.एस.सी. से संपर्क करने का फैसला किया। संयुक्त राष्ट्र ने हस्तक्षेप करने का फैसला किया और भारत तथा पाकिस्तान के लिए संयुक्त राष्ट्र आयोग का गठन किया। पिछले कई दशकों से जम्मू-कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों ने भारत की स्थिति को कमजोर कर दिया है। एक लोकप्रिय मिथक के विपरीत यू.एन.सी.आई.पी. का जनमत संग्रह करवाने का सुझाव भारत के लिए बाध्यकारी नहीं है। यू.एन.सी.आई.पी. ने खुद इस बात को स्वीकार किया है। 3 अगस्त 1948 को यू.एन.सी.आई.पी. ने 3 भागों के साथ एक प्रस्ताव पारित किया जिसे क्रमिक रूप से पूरा किया जाना था।
1 जनवरी, 1949 को भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम किया गया था। हालांकि पाकिस्तान अपने सैनिकों को उचित रूप से वापस लेने में असफल रहा। इस मामले पर यू.एन.सी.आई. पी. की स्पष्ट नीति के बावजूद कि जनमत संग्रह विफल है, एक ऐतिहासिक मिथक का प्रचार किया गया है कि भारत एक जनमत संग्रह आयोजित करने के लिए बाध्य है। 306 ए जो बाद में धारा 370 बन गया, के विभिन्न प्रारूप एन. गोपाल स्वामी अयंगर शेख अब्दुल्ला के बीच कई दौर के आदान-प्रदान के बाद तैयार किए गए थे। अंतिम मसौदा शेख अब्दुल्ला द्वारा की गई विभिन्न मांगों की एक रियायत और स्वीकृति थी।-किरेण रिजिजू केंद्रीय कानून मंत्री