कहीं नहीं जाने वाला कश्मीर

punjabkesari.in Sunday, Apr 30, 2017 - 01:05 AM (IST)

पता नहीं कितनी बार यह बात दोहराई जा चुकी है कि कश्मीर समस्या एक अबूझ पहेली है जिसने 70 वर्षों से बड़े-बड़े धुरंधरों का दिमाग चकराए रखा है। जहां तक भी याद किया जाए भारत के राजनीतिक तंत्र को यह समस्या लहूलुहान ही करती आ रही है। बीच-बीच में बेशक शांति और अस्थिरता के दौर आते रहे हैं लेकिन इनके साथ ही यह भी स्मरण करें कि पाकिस्तान ने ऐन 1947 से शुरू करके कश्मीर को हथियाने के लिए चार युद्ध लड़े हैं और हर बार भारत ने उसे धूल चटाई है। 

इसलिए पूर्व गृह मंत्री पी. चिदम्बरम जैसे किसी व्यक्ति के लिए मोदी सरकार को यह सुझाव देना कि कश्मीर हमारे हाथों से निकल सकता है, कुछ अधिक ही शेखचिल्लीनुमा सपना है। यह समस्या चाहे कितनी भी जटिल क्यों न हो, सच्चाई यह है कि कश्मीर कहीं भी जाने वाला नहीं है। भारतीय सत्ता तंत्र कोई इतनी कमजोर चीज नहीं है कि कश्मीर को अपने हाथों में से खिसकने देगा। जिसे हम कश्मीर समस्या कहते हैं उसकी जड़ें उन लोगों की तिकड़मबाज मानसिकता में हैं, जिनके हाथ में विभाजन के समय निर्णायक शक्ति थी और जिन्होंने इस उपमहाद्वीप को दो दुश्मनों के बीच बांट कर रख दिया। 

कश्मीर के बारे में लिखने का हमारा प्रायोजन उस टकराव के लिए किसी को दोष देना नहीं जो पाकिस्तान के जन्म से ही भारी मात्रा में भारत के मानवीय और पदार्थक संसाधनों की बलि लेता आ रहा है। हमारा उद्देश्य तो आम पाठकों को कश्मीर के संंबंध में सर्वज्ञात तथ्यों का स्मरण करवाना है जो दुर्भाग्यवश तब-तब जनमानस में से गायब हो जाते हैं जब-जब  भी घाटी में कोई असुखद घटना होती है और आजकल तो ऐसा आमतौर पर होता है। कश्मीर के बारे में सर्वज्ञात लेकिन फिर भी अधिकतर लोगों की याद्दाश्त में से गायब हो चुके तथ्य इस प्रकार हैं : 

* जम्मू-कश्मीर का कुल क्षेत्रफल 101, 380 वर्ग किलोमीटर (पाकिस्तानी कब्जे वाले क्षेत्र को छोड़कर) 
* इसमें से कश्मीर के क्षेत्रफल का हिस्सा : 15 प्रतिशत।
* जम्मू-कश्मीर का हिस्सा: 26 प्रतिशत। 

* लद्दाख का क्षेत्रफल : 59 प्रतिशत। 
* कुल जनसंख्या 1.25 करोड़।
* कश्मीर: 69 लाख आबादी (जिसमें से 13 लाख गैर कश्मीरी भाषा बोलते हैं)
* जम्मू: 53 लाख लोग जो मुख्य तौर पर डोगरी, पंजाबी और हिंदी बोलते हैं। 
* लद्दाख: तीन लाख आबादी जो लद्दाखी भाषा बोलती है। वैसे वहां 7.50 लाख अन्य लोग भी रहते हैं लेकिन उन्हें नागरिक अधिकार हासिल नहीं। 

* जम्मू-कश्मीर के 22 जिले हैं जिनमें से 5 अलगाववादी हिंसा की गिरफ्त में हैं। इनके नाम हैं श्रीनगर, अनंतनाग, बारामूला, कुलगाम तथा पुलवामा। 
*15 जिले पूरी तरह अलगाववाद के विरुद्ध हैं। अलगाववादी जम्मू-कश्मीर की आबादी में अधिक से अधिक 15 प्रतिशत ही बनते हैं और वे मुख्यत: सुन्नी मुस्लिम हैं। 

* जम्मू-कश्मीर की आबादी में शिया, डोगरा (राजपूत, ब्राह्मण, महाजन इत्यादि), कश्मीरी पंडित, सिख, बौद्ध (लद्दाखी), गुज्जर बकरवाल, पहाड़ी, बल्टी, ईसाई इत्यादि हैं। 
* कश्मीर घाटी में केवल एक-तिहाई लोग ही कश्मीरी भाषा बोलते हैं। लेकिन अलगाववादी आंदोलन में उन्हीं का वर्चस्व है। यही एक-तिहाई वर्ग जम्मू-कश्मीर के कारोबार तथा सार्वजनिक सेवाओं पर कब्जा किए हुए है। 
* उल्लेखनीय है कि पुंछ और कारगिल जिले बेशक मुस्लिम बहुल है तो भी यहां के लोग भारत विरोधी प्रदर्शनों में हिस्सा नहीं लेते। 

इसका सरल सा अर्थ यह है कि जिसे हम कश्मीर समस्या कहते हैं वह केवल 5 जिलों और जम्मू-कश्मीर की 5 प्रतिशत से भी कम आबादी तक सीमित है। वैसे घाटी में लूटपाट, आगजनी, दंगों और पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी कुकृत्यों की खबरें देने के लिए हम मीडिया को दोष नहीं दे सकते। लेकिन उपरोक्त तथ्यों की रोशनी में मीडिया को अपना यह परिप्रेक्ष्य दुरुस्त करने की जरूरत है कि पूरा कश्मीर जल रहा है। 

कभी इस राज्य में आग लगी हुई थी लेकिन अब नहीं है। वैसे अनेक वर्षों से यहां कोई आग नहीं लगी थी लेकिन पाकिस्तान में मजहब आधारित कृत्रिम कश्मीर आंदोलन गठित किए जाने के बाद ही ऐसा लगने लगा है जैसे पूरा कश्मीर धधक रहा हो। वैसे कश्मीर में बेशक फिलहाल अवरोध की स्थिति बनी हुई है तो भी देर-सवेर यह समाप्त होगी ही और कोई भी सही दिमाग वाला व्यक्ति बातचीत की जरूरत से इंकार नहीं करेगा। आपसी बातचीत से निश्चय ही कत्लगाह बन चुकी घाटी का तापमान कुछ नीचे आएगा। लेकिन जब तक पत्थरबाज (सही अर्थों में तो उनको वेतन देने वाले और सीमापार से  उन्हें नियंत्रित करने वाले तत्व) अपनी भड़काऊ गतिविधियां बंद नहीं करते तब तक ‘आजादी’ का शोर मचाने वालों के साथ भारतीय सत्तातंत्र के  लिए कोई बातचीत नहीं चला सकता। 

इसी बीच दोनों देश विज्ञापनबाजी की चमक-दमक से दूर रहते हुए फिर से पिछले दरवाजे से वार्ता शुरू कर सकते हैं और किसी तीसरे देश की सहायता से कश्मीर में सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए मीटिंगें कर सकते हैं। फिर भी सामान्य भारतीय नागरिकों को इस बात से भ्रमित नहीं होना चाहिए कि कश्मीर भारत के हाथों में से खिसक रहा है। वैसे आजादी के लिए शांतमय आंदोलन की अभी भी अनुमति दी जा सकती है लेकिन किसी भी लोकतांत्रिक देश में शृंखलाबद्ध ढंग से ङ्क्षहसक प्रदर्शनों को अंजाम देनेे की अनुमति नहीं दी जा सकती और ऐसे प्रदर्शनों को पूरी शक्ति से कुचलना होगा।     


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