‘कृषि नीति के मुख्य निर्माता थे जस्टिस गुरनाम सिंह’

Thursday, Feb 25, 2021 - 03:48 AM (IST)

आज पंजाब के गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री जस्टिस गुरनाम सिंह जी की 122वीं जयंती पर यह बात स्मरण रखने योग्य है कि वे उस खेती नीति के मुख्य निर्माता थे जिसके कारण भारत अनाज की अतिरिक्त उपज में सक्षम हो गया। यह नीति मौजूदा केंद्रीय सरकार के विरुद्ध नए खेतीबाड़ी कानूनों को रद्द करने के लिए ऐतिहासिक किसान आंदोलन पर भी महत्व रखती है। 1967 में जब गुरनाम सिंह जी ने कार्यभार संभाला, तब भारत में अनाज की भारी कमी और अकाल से पीड़ित देश था। देश अमरीकी खाद्य सहायता पी.एल.480 पर निर्भर था। उस वक्त भारत एक मुक्त बाजार था जहां बड़े व्यापारी किसानों से कम कीमतों पर अनाज खरीद कर बड़े मुनाफों के साथ घाटे वाले राज्यों में बेचते थे। प्रधानमंत्री  इंदिरा गांधी ने अनाज की कमी और बढ़ रही कीमतों के संकट पर चिंता प्रकट की। 

गुरनाम सिंह ने 1967 में ओहदा संभालते हुए किसानों की फसल की ज्यादा कीमतें घोषित कीं और एक बड़ा कदम उठाते हुए गेहूं की पुरानी किस्मों का कम से कम खरीद मूल्य (एम.एस.पी.) 86/- प्रति क्विंटल और नई मैक्सिकन का 72/- प्रति क्विंटल निर्धारित किया गया। उपभोक्ताओं के लिए कीमतों में स्थिरता लाने के लिए जमाखोरों एवं पंजाब से अनाज के निर्यात पर रोक लगा दी गई।

गुरनाम सिंह ने यूनियन खेतीबाड़ी मंत्री जगजीवन राम व फूड कार्पोरेशन ऑफ इंडिया द्वारा कम से कम खरीद मूल्य पर अधिक अनाज को खरीदने के लिए मनाया। राज्य स्तर पर, स्थानीय मंडियों व कृषि बाजारों की स्थापना की। इस संदर्भ में पंजाब को पहला राज्य बनाने के लिए ग्रामीण बिजलीकरण और मंडियों को लिंक रोड से जोडऩे की नीति की शुरूआत की गई। 1939 में सर सिकंदर हयात टिवाना की यूनियनिस्ट पार्टी गवर्नमैंट ने पंजाब में विनियमित खेतीबाड़ी मंडियों के लिए ए.एम.पी.सी. एक्ट पास किया जो कृषि मंत्री सर छोटू राम की दिमागी उपज थी। 

अमरीकी वैज्ञानिक डा. फ्रैंक पारकर के सुझाव पर केंद्रीय कृषि मंत्री सी. सुब्रमण्यम द्वारा कम से कम खरीद मूल्य (एम.एस.पी.) को अपनाया गया। हालांकि, गुरनाम सिंह द्वारा पहल करने पर एम.एस.पी. लागू की गई जिसको बाद में हरियाणा राज्य ने भी अपनाया। इस प्रकार पंजाब भारत का सबसे खुशहाल राज्य बन गया। गुरनाम सिंह जी इकलौते मुख्यमंत्री थे जिन्हें रोम में आयोजित हुई विश्व फूड कांफ्रैंस में भारत का प्रतिनिधित्व करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। खेद की बात है कि उत्तराखंड के बिना बाकी राज्य सुधार को अपनाने के इस दुर्लभ मौके का फायदा नहीं उठा सके। 

वर्तमान समय की बात की जाए तो नए खेतीबाड़ी कानूनों को उद्योगपतियों, अर्थशास्त्रियों, शहरी अमीरों और समाचार एंकरों द्वारा डा. मनमोहन सिंह द्वारा 1991 में लाए गए सुधारों के साथ जोड़ा जा रहा है हालांकि किसानों ने इन कानूनों को नकार दिया है। इन कानूनों के शब्दों पर न जाकर देखा जाए तो भारत फिर से एक कृषि का खुला बाजार बन जाएगा जिसमें किसानों और उपभोक्ताओं के लिए कीमतें बाजारी ताकतों द्वारा निश्चित की जाएंगी। 

किसानों के हितों की चिंता करने की बजाय केंद्र सरकार उन्हें बदनाम करने और कुचलने का रास्ता अपना रही है और इस क्रांति को दबाने के लिए कठोर कानूनों की सहायता ले रही है। मोदी को अपना इतिहास पढऩा चाहिए। इस क्षेत्र ने सदियों से ही गौरवमयी संघर्ष देखे हैं। 1907 में ब्रिटिश सरकार द्वारा लागू किए तीन कृषि कानूनों की वापसी के लिए 20वीं सदी का सबसे बड़ा कृषि आंदोलन पंजाब में देखा गया जब हरियाणा भी पंजाब का ही हिस्सा था। उस समय भी भारी संख्या में लोगों को गिरफ्तार किया गया था। विभिन्न समझौतों के सुझाव सामने आए जिनमें से एक लाला लाजपत राय द्वारा प्रस्तावित किया गया और नौ महीनों के संघर्ष के बाद कानूनों को वापस ले लिया गया। 

पगड़ी संभाल जट्टा या किसानों के हक और सम्मान की संभाल नामक आंदोलनों को दिल्ली की सरहद पर आज भी दोहराया जा  रहा है और देश के विभिन्न भागों में भी फैल रहा है। शांतप्रिय आंदोलनकारियों और इनके समर्थन में अपनी आवाज बुलंद करने वालों के मानवाधिकारों के उल्लंघन की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निंदा की जा रही है। नागरिकों की शहरी आजादी एक मुख्य मुद्दा बन गया है। तो अब इसका क्या हल है?

गुरनाम सिंह का यह मानना था कि खेतीबाड़ी केवल सरकारी मदद के साथ ही आगे बढ़ सकती है। बड़े व्यापार कृषि विकास में केवल सीमित सहयोग दे सकते हैं पर सरकारी वित्तीय सहायता का स्थान नहीं ले सकते। उद्योग अपने बलबूते पर खेती को नहीं बचा सकते परन्तु एक खुशहाल खेतीबाड़ी समुदाय उद्योगों को एक बड़ा आधार देकर जीवित रख सकता है। उनको डा. एम.एस. रंधावा, एक होनहार सरकारी अफसर और वाइस चांसलर, पी.ए.यू. जोकि खुद एक किसान थे तथा स. प्रताप सिंह कादियां, भारतीय किसान यूनियन के संस्थापक जैसे बुद्धिजीवियों द्वारा सहयोग प्राप्त हुआ। अमरीका, कनाडा, यूरोपियन यूनियन, जापान, पूर्वी एशिया एवं चीन जैसे देश किसानों की कम से कम आमदन और कीमतों की स्थिरता को बनाए रखने के लिए खेतीबाड़ी को भारी सबसिडी देते हैं। 

चीन भारत के मुकाबले चार गुणा अधिक सबसिडी देता है इसलिए भारतीय सरकार को भी चाहिए कि किसानों को सीधे भुगतान के रूप में खेतीबाड़ी के लिए अधिक से अधिक फंड प्रदान करे। जल एवं मिट्टी की संभाल का पूंजी खर्चा, खोज, खेती उद्योग, सरकारी मंडियों को (ए.पी.एम.सी.) को खोलना इत्यादि में सरकारी वित्तीय सहायता का मिलना जरूरी है। सरकार को पंजाब और हरियाणा के किसानों को वित्तीय प्रोत्साहन और चावल और गेहूं की जगह अन्य फसलों को उगाने के लिए भी प्रेरित करना चाहिए।-गुरबीर सिंह 
 

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