जरा याद उन्हें भी कर लो जो लौट के फिर न आए

punjabkesari.in Monday, Sep 18, 2023 - 05:15 AM (IST)

भारतीय सेनाओं की वीरता, रणकौशल तथा शासन के प्रति पूर्ण निष्ठा समूचे विश्व में अद्वितीय है। स्वतंत्र भारत में पाकिस्तान के दुस्साहसपूर्ण 1947, 1965, 1971 और 1999 के आक्रमणों का मुंह तोड़ उत्तर हमारी सेना ने दिया और दुश्मन सेनाओं को करारी हार का सामना करना पड़ा। इसी प्रकार भारतीय सेना ने प्रथम विश्व युद्ध में इम्पीरियल सेना के साथ मिलकर अपनी वीरता का जो परिचय दिया था वह भी बेमिसाल है। वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा दिल्ली में बनाया गया नैशनल वार मैमोरियल, भारतीय सेना द्वारा राजस्थान सहित अन्य प्रदेशों में रणभूमि श्रद्धांजलि यात्राओं का आयोजन, वार मैमोरियल्स का निर्माण व उनमें लाइट एंड साऊंड शो के आयोजन आदि कार्यों द्वारा देश व प्रदेशों की वीर गाथाओं को जन मानस के मन पर अंकित करने के अच्छे प्रयास हैं। लेकिन कुछ दिन ऐसे भी हैं जिन्हें यादगार बनाने के लिए काफी कुछ करने की गुंजाइश है। 

नई पीढ़ी के लिए 23 सितम्बर एक साधारण तारीख है। एेसा इसलिए क्योंकि  इसराईल के प्रमुख शहर हायफा की आजादी में हमारी कैवलरी के योगदान के बारे में पढ़ाया ही नहीं गया जिसमें जोधपुर, मैसूर और हैदराबाद के घुड़सवारों की कमजोर ब्रिगेड ने युद्ध कौशल और अदम्य साहस के दम पर तुर्की के आेटोमन साम्राज्य के अनुभवी सैनिकों को हराया और हायफा को 402 साल की गुलामी से मुक्त कराया था। 

1918 में ब्रिटेन, फ्रांस व रूस ने मिलकर ओटोमन साम्राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ा था जिसमें इसराईल को मुक्त कराने के लिए जर्मनी, आस्ट्रिया व हंगरी की सेनाएं शामिल थीं। हायफा तुर्कों के नियंत्रण में फंसा एक रणनीतिक बंदरगाह था। तुर्कों ने हायफा की खाड़ी को समुद्री रास्ते से तथा जमीनी सुरंग लगाकर घेर रखा था। ब्रिटिश सेना व उसके सहयोगियों के हमले के कारण तुर्की सेना ने हायफा को खाली करना शुरू कर दिया। जब तुर्की सेना के 700 जवान हायफा कैसल से भागने लगे तो वह 22 सितम्बर 1918 को 13वीं कैवलरी ब्रिगेड के 18 किंग जार्ज लैंसर्स से भिड़ गए। 23 सितम्बर को जोधपुर लैंसर्स ने हायफा पर हमला कर दिया। तुर्की सेना की इकाइयां माऊंट कार्मेल की ऊंचाई से जोधपुर लैंसर्स पर हमला कर रही थीं लेकिन अपने प्राणों की परवाह न करते हुए अदम्य साहस के साथ मेजर दलपत सिंह के नेतृत्व में जोधपुर कैवलरी भयंकर गोलीबारी के बीच आगे बढ़ती रही तथा तलवारों, बरछों और भालों से तुर्की सेना को हताहत करके हायफा पर कब्जा कर लिया। 

23 सितम्बर को दोपहर 3 बजे युद्ध समाप्त हो गया और हायफा को 402 वर्षों के तुर्की शासन से मुक्त करा दिया गया। केवल डेढ़ दिन तक चली इस लड़ाई में जोधपुर लैंसर्स ने 1532 दुश्मन सैनिकों को तोपों और मशीनगनों के साथ पकड़ लिया। जोधपुर, मैसूर और हैदराबाद की इन 14वीं व 15वीं कैवलरी यूनिटस ने बहुत ही कुशलतापूर्वक एक बड़े दुर्गम क्षेत्र को जहां एक ओर माऊंट कार्मेल तथा दूसरी ओर नदी थी व जिसके किनारे दलदल था, अपने कब्जे में ले लिया। इस अदम्य शौर्य के लिए मेजर दलपत सिंह को मिलिट्री क्रास से सम्मानित किया गया। कैप्टन बहादुर सिंह जोधा व जमादार जोर सिंह को उनकी शहादत के लिए इंडियन आर्डर आफ मैरिट से सम्मानित किया गया। हायफा आजादी के इस सफल अभियान में 900 भारतीय सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। इसराईल ने भारतीय कैवलरी के सम्मान में स्मारक बनाए। साथ ही जोधपुर के मेजर दलपत सिंह को हीरो ऑफ हायफा का दर्जा दिया गया। 

हायफा हिस्टारिकल सोसाइटी के मुताबिक इसराईल के बच्चों को तीसरी से 5वीं कक्षा में हायफा की आजादी में भारतीय सैनिकों,  खासकर मेजर दलपत सिंह व कैवलरी के योगदान के बारे में पढ़ाया जाता है। कहते हैं ‘‘एक सैनिक की मौत उस समय नहीं होती जब युद्ध के मैदान में उसे गोली लगती है। सैनिक की मौत तो उस समय होती है जब जनमानस उस सैनिक की शहादत को भूल जाता है’’। विश्वास है कि भारत का जन मानस दशाब्दियों तक हायफा के इन शहीदों की शौर्य गाथा को नहीं भूलेगा।-जसबीर सिंह 


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