इस महाकाल में केवल आशावादी होना ही पर्याप्त नहीं

Tuesday, May 25, 2021 - 06:22 AM (IST)

यह लेख हृदय की उस अपार पीड़ा की अभिव्यक्ति का प्रयास है जिसको शब्दों में बयान करना कठिन है परंतु हृदय विदारक दर्द का यदि कोई इलाज है तो वह उसकी अभिव्यक्ति ही है। अत: दुख की लहर सैलाब न बन जाए, इसलिए पीड़ा की अपनी भावना को देशवासियों के साथ बांट रहा हूं। यूं तो इतिहास आत्मा को झंझोडऩे वाले मनुष्य द्वारा मानवता पर ढाए गए अनगिनत जुल्मों की गाथा है परंतु जिस दौर से संसार आज गुजर रहा है, इसका दूसरा उदाहरण इतिहास के पन्नों पर दर्ज नहीं है। 

जिस तरह की हृदय घातक स्थिति ‘राम राज्य’ की परिकल्पना से जुड़े हमारे देश में आज है उसको शब्दों में कैसे बयान करूं सोच रहा हूं। पर फिर शब्द ही तो हमारी भावनाओं का पहनावा हैं और इतिहास के साक्षी भी। शब्द ही सत्य का दर्पण हैं और मानवता की गवाही भी। वर्तमान की वास्तविकता की दर्द भरी कहानी कुछ प्रश्नों के रूप में इस लेख के माध्यम से दोहरा रहा हूं ताकि जो भाग्यशाली हैं और महामारी के प्रकोप से सुरक्षित हैं, जनता की असाधारण पीड़ा को समझ कर उनके दर्द में भागीदार बन सकें। संवेदना ही तो भारतीय संस्कृति की मूल पहचान है। 

यह प्रलय क्यों प्रभु? जिसमें पिता अपने जवान बच्चों के शवों को कंधों पर उठाने को मजबूर है, बिलखती माताएं अपने नन्हे बच्चों को ममता के आंचल से महरूम रखने पर विवश हैं। असहाय बुजुर्ग जीवन के अंतिम पड़ाव में अपनों के स्नेह और सेवा से क्यों वंचित हैं? अत: जीवन और मृत्यु के बीच इस सर्वनाशकारी युद्ध में अकेले क्यों? यह कैसा प्रकोप है प्रभु कि नाना-नानी, दादा-दादी अपने पोते-पोतियों, नातिन-नातियों को उनका जीवन शुरू होने से पहले ही अस्पतालों में ले जाने पर मजबूर हैं? क्यों एक बेटे को अपनी मां का शव कंधों पर उठाकर श्मशान तक दूर का सफर अकेले ही तय करना पड़ा? 

क्यों मृत पिता के शव को श्मशान में जगह न मिलने पर दो दिन तक घर में रखना पड़ा? दिल में धड़कन की तरह बसने वाले अपने, जिनकी मुस्कान हमारे जीवन को पूर्ण करती है, उनकी डूबती सांसें और जिंदगी की भूख मांगती अंधेरी आंखों का असहनीय दृश्य क्यों प्रभु? क्या गंगा मां को अंत्येष्टि बिना बहाए गए शवों के पाप का बोझ उठाना जरूरी था? क्यों हजारों कर्मचारी अपने कत्र्तव्यों को निभाते हुए बिना इलाज कोरोना का शिकार हो गए और अपने बच्चों को बिलखता छोड़ गए?

अनाथ और असहाय बच्चे को सजा क्यों प्रभु? यह कैसा सामाजिक न्याय है कि बीमारी और बेरोजगारी से परस्त लाखों देशवासियों को अपनी गरिमा को दो वक्त की रोटी के लिए ताक पर रखकर ल बी कतारों में खड़ा होना पड़ रहा है? आत्मा को खंडित करने वाली अपनों के अपनेपन की परीक्षा क्यों? जीवित होते हुए भी प्रतिदिन बीमारी और मौत का इंतजार कैसे जीवन को परिभाषित कर सकता है? 

इतना सबके बाद भी क्या हम कोरोना की तीसरी लहर के लिए तैयार हैं? क्या सभी हकदार व्यक्तियों का टीकाकरण इस ‘वेव’ से पहले हो पाएगा जबकि अब तक केवल 4 प्रतिशत से कम भारतीयों को दोनों टीके लग सके हैं? क्या बच्चों पर कोरोना के प्रहार के लिए देश तैयार है? आंकड़ों के अनुसार देश में 18 वर्षों से कम उम्र के बच्चों की सं या 16.5 करोड़ है। यदि केवल पांच प्रतिशत बच्चों को भी अस्पताल में इलाज की आवश्यकता  पड़ी तो देश में बच्चों के इस्तेमाल के लिए 1.65 लाख आई.सी.यू. बैड्स की आवश्यकता होगी जबकि इस समय देश भर में केवल दो हजार बैड्स ऐसे ही हैं। अस्पताल में बच्चों के साथ उनके माता-पिता का रहना जरूरी है जो स्वयं में एक बड़ी चुनौती है। 

देश में डाक्टरों, नर्सों और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों का अभाव आज भी महसूस हो रहा है। क्या देश कोरोना की तीसरी लहर के लिए तैयार है? क्या आपदा के समय संवेदना की मरहम की जगह जन सेवा कर रहे नेताओं और समाजसेवियों को कारावास की धमकी देने लोकतांत्रिक मर्यादा के अनुकूल है और यह विड बना नहीं तो क्या है कि जिस समय मानवता ही ताक पर है, अहम और वर्चस्व की लड़ाई ने हमारे राजनेताओं को अंधा किया हुआ है? 

इन कठिन प्रश्रों को पूछना आवश्यक है परंतु यह भी स्पष्ट है कि कोरोना के साथ आरपार की लड़ाई, जनता के सहयोग के साथ सरकार ही लड़ सकती है। इस परीक्षा में सरकारें तभी सफल होंगी जब वह रचनात्मक सुझावों को कटाक्ष न मान कर समय पर उचित निर्णय लें। सरकार को समझना होगा कि राष्ट्र की आत्मा देशवासियों की गरिमा में निहित है, जिसके साथ राजनीतिक खिलवाड़ नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री जी कैसे भूल सकते हैं कि दबी हुई जन पीड़ा और मूक आक्रोश की गर्जना सत्ता पलटने का ऐलान है? 

इन प्रश्रों के उत्तर भी निहित हैं। वर्तमान की वास्तविकता, संवेदनशील सरकार और सक्षम राष्ट्र का दर्शन तो नहीं हो सकती। दिल को दहला देने वाली राष्ट्रीय पीड़ा की गूंज हर एक गली और मोहल्ले में सुनाई दे रही है। मानो देश कह रहा हो  :
‘गीत अश्क बन गए,
छंद हो दफन गए,
साथ के सभी दिए,
धुआं पहन-पहन गए।’
बीमारी और मृत्यु के साए में जीवन की तलब कवि गुलजार की लिखी पंक्तियों में इस तरह दॢशत है :
‘आहिस्ता चल जिंदगी,
अभी कुछ कर्ज चुकाना बाकी है,
कुछ दर्द मिटाना बाकी है,
कुछ फर्ज निभाना बाकी है।’
मैं जानता हूं कि अंतत: पुरुषार्थ और धैर्य की विजय होती है, परंतु इस महाकाल में केवल आशावादी होना ही पर्याप्त नहीं। इस विध्वंसकारी समय में परमेश्वर की कृपा व करुणा ही संकट मोचन हो सकते हैं। समर्पण की इस भावना सहित राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की रचना ‘रश्मि रथी’ की पंक्तियों से इस लेख को समाप्त कर रहा हूं :
‘हे दयानिधे, रथ रोको अब,
क्यों प्रलय की तैयारी है,
यह बिना शस्त्र का युद्ध है, जो
महाभारत से भी भारी है।
राघव-माधव मृत्युंजय,
पिघलो यह अर्ज हमारी है।
(भूतपूर्व केंद्रीय विधि मंत्री,
ये निजी विचार हैं।)-अश्वनी कुमार
 

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