दायरे से बाहर जाना बंद करे न्यायपालिका

Sunday, Oct 29, 2017 - 12:46 AM (IST)

महाधिवक्ता के.के. वेणुगोपाल ने पुराने जमाने के उन बहुत से लोगों की भावनाओं को जुबान दी है जिनको मूल संविधान की व्यवस्थाओं में अटूट श्रद्धा है। संविधान निर्माता अवश्य ही स्वर्ग लोक में छटपटा उठे होंगे जब उन्होंने यह देखा होगा कि सुप्रीम कोर्ट किस प्रकार अपनी संवैधानिक सीमाओं से पार जा रही है।

वेणुगोपाल ने गत सप्ताह शीर्षस्थ अदालत को बताया: ‘‘ आपने ढेर सारी शक्तियों का अधिग्रहण कर लिया है और दुनिया की सबसे शक्तिशाली अदालत बन गए हैं। आपने धारा 21 के दायरे को खींच कर इतना लम्बा-चौड़ा कर दिया है कि इसे कम से कम 30 नए अधिकारों की व्याख्या का आधार बना दिया है।’’ वेणुगोपाल इससे अधिक सटीक स्पष्टवादिता नहीं दिखा सकते थे। बहुत से लोग शीर्षस्थ अदालत के अधिकारों के लगातार बढ़ते दायरे के कारण व्यथित हैं। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट की बार के कुछ अति सम्मानित सदस्यों में से एक ने आखिर बिल्ली के गले में घंटी बांधने का ही रास्ता अपनाया। 

किसी जमाने में जनहित याचिका संविधान का ऐसा उपकरण था जिसको व्यापक सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था क्योंकि अब अदालतों द्वारा संवैधानिक प्रावधानों के प्रकाश में कानून की व्याख्या करने के अलावा इन याचिकाओं को ही हर निर्णय का आधार बनाए जाने से यह एक खतरनाक रूप ग्रहण कर गई है। कार्यपालिका अपनी संविधान प्रदत्त शक्तियों के क्षरण की असहाय साक्षी बन कर रह गई है क्योंकि जनता में इसकी अलोकप्रियता दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। लेकिन इस आधार पर उच्च न्यायपालिका को जनता से चुने हुए प्रतिनिधियों के कामकाज और भूमिका पर वस्तुत: कब्जा जमाने की दलील नहीं मिल जाती। वास्तव में यह कहना सही है कि जैसे-जैसे कार्यपालिका के कर्णधार राजनीतिज्ञों की गरिमा जनता की नजरों में कम होती गई उसी अनुपात में न्यायपालिका हर क्षेत्र में अपने पांव पसारती गई और शक्ति अर्जित करती गई। 

वैसे न्यायपालिका के उच्च पदों पर आसीन लोग भी उसी मिट्टी से बने हैं जिससे राजनीतिज्ञों समेत हम सभी बने हैं। न्यायपालिका के सदस्य भी अक्सर राजनीतिज्ञों व अन्य लोगों की तरह नैतिक और कानूनी मर्यादाओं का हनन करते हैं लेकिन न्याय प्रक्रिया में इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं होनी चाहिए। फिर भी अक्सर यह शिकायत सुनने में आती है कि जजों के साथ-साथ उनके फैसलों की गुणवत्ता में भी गिरावट आ रही है। शायद इसी परिप्रेक्ष्य में महाधिवक्ता के.के. वेणुगोपाल को समय पर हस्तक्षेप करके एक व्यापक चर्चा छेडऩी पड़ी। सच्चाई यह है कि कुछ एक सम्मानजनक अपवादों को छोड़कर न्यायपालिका के उच्च पदों पर बैठे लोगों की नैतिक और बौद्धिक गुणवत्ता में हाल ही के दशकों में काफी गिरावट आई है- बिल्कुल उसी तरह जैसे राजनीतिक तथा अन्य सभी क्षेत्रों में देखने को मिल रही है। न्यायपालिका हो या कोई अन्य संस्थान, हर जगह औसत दर्जे की काबिलियत का ही बोलबाला है। 

विडम्बना देखिए कि न्याय देने वाले पुरुषों और महिलाओं के नैतिक स्तर के समानांतर ही उनकी शक्तियों में लगातार वृद्धि होती जा रही है और जिसका मुख्य कारण जनहित याचिका ही है, जिनका व्यापक दुरुपयोग हुआ है। उदाहरण के तौर पर प्रादेशिक या राष्ट्रीय राजमार्गों के दोनों ओर 100 या 500 मीटर पर शराब की बिक्री और खपत पर प्रतिबंध लगाना अन्य हर किसी को तुगलकी फरमान प्रतीत होता था लेकिन शीर्षस्थ अदालत ने इसे एक बहुत न्यायपूर्ण मुद्दा मान लिया क्योंकि इसके पीछे जनहित याचिका का खेल था। वैसे अभी भी यह बात समझ से परे है कि सुप्रीम कोर्ट ने क्या सोचकर यह फैसला लिया है। जैसा कि महाधिवक्ता ने संज्ञान लिया है, इस फैसले से रातों-रात हजारों नहीं बल्कि लाखों लोग भुखमरी की कगार पर पहुंच गए हैं जो दिहाड़ी पर काम करके अपनी उपजीविका चलाते थे। 

अब इस आदेश को परिवहन मंत्रालय के किसी भूले-बिसरे सर्कुलर की आड़ में जिस तरह न्यायोचित ठहराने की कवायद हो रही है वह बिल्कुल ही अशोभनीय है। इससे आगे क्या अदालतें राजधानी में सार्वजनिक वाहनों सहित हर प्रकार की गाडिय़ों पर पाबंदी लगाएंगी और यह बहाना बनाएंगी कि सर्दियों में प्रदूषण का सबसे बुरा असर बच्चों पर होता है? मेरे कहने का अभिप्राय: यह है कि अपने स्वप्न महल में बैठकर देश का संचालन करने की कवायद बंद होनी चाहिए। माननीय न्यायमूर्तियों को वास्तविक दुनिया से जुड़े रहना चाहिए। राजमार्गों पर से शराब की दुकानें हटाने के फतवे की व्याख्या केवल इस आधार पर ही की जा सकती है कि यह दिशाबोध खो चुकने की अलामत है। 

अपनी सीमाओं के पार जाने का न्यायपालिका का एक और मामला देखिए जो अभी ताजा ही है। हमेशा खबरों में बने रहने के अभिलाषी कुछ मुस्लिम संगठनों और व्यक्तियों द्वारा दायर याचिका का चीरफाड़ करने की बजाय शीर्षस्थ अदालत ने केन्द्र सरकार से यह सवाल पूछा कि रोहिंग्या मुस्लिमों को देश में अपनी मर्जी से कहीं भी बसने की अनुमति क्यों नहीं दी जा रही? माननीय शीर्षस्थ अदालत ने इस बात पर तनिक भी गौर नहीं किया कि बंगलादेश के अलावा दुनिया के किसी भी मुस्लिम देश ने रोहिंग्या मुस्लिमों को अपने यहां कदम नहीं रखने दिया। यहां तक कि रोहिंग्या के लिए भारत के दरवाजे खोलने हेतु जोरदार वकालत करने वाले साम्यवादियों के वैचारिक प्रेरणास्रोत यानी कि उनके तीर्थ स्थल जैसी हैसियत रखने वाले रूस और चीन ने भी अपने दरवाजे रोहिंग्या के लिए बंद रखे हुए हैं। हमारे उद्देश्य के संंबंध में यह जानना महत्वपूर्ण है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के पास यह फैसला लेने की शक्ति है या नहीं कि रोहिंग्या को भारत में शरण दी जाए? 

यदि सुप्रीम कोर्ट मानता है कि उसके पास ऐसी शक्तियां हैं तो यह बताया जाए कि संविधान के किस प्रावधान के अंतर्गत उसे ये शक्तियां मिली हैं? अभी तक तो प्रबुद्ध लोग यही समझते आए हैं कि इस प्रकार के मामलों में फैसला लेना कार्यपालिका की जिम्मेदारी होती है क्योंकि रोहिंग्या जैसे लोग देश की सम्प्रभुता और सुरक्षा के लिए खतरा बन सकते हैं। यदि सुप्रीम कोर्ट को ऐसा लगता था कि इसे हस्तक्षेप करना चाहिए तो इसे कार्यपालिका से यह स्पष्टीकरण मांगना चाहिए था कि 40 हजार से भी अधिक रोहिंग्या भारत में अवैध ढंग से पहले ही कैसे घुस आए हैं और उनमें से कुछेक जम्मू-कश्मीर नियंत्रण रेखा के ऐन करीब कैसे बस गए हैं?

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ठहरी सर्वशक्तिमान, उसे तो डैमों की ऊंचाई निर्धारित करने और इस तरह उनके निर्माण में कई दशकों का विलंब करने, ट्रैफिक नियमन के आदेश जारी करने, शराब के ठेकों की जगह तय करने, शहरी कालोनियों के मास्टर प्लान का अनुमोदन करने जैसे मुद्दों से ही फुर्सत नहीं। ऐसे में वह यह फैसला लेने के लिए समय कैसे निकाल सकती है कि रोहिंग्या मुस्लिमों के लिए भारत में आना पार्क की सैर करने जैसा आसान काम कैसे बन गया? संविधान निर्माताओं ने सांसदों को कानून बनाने, कार्यपालिका को इन्हें लागू करने और न्यायपालिका को इनकी व्याख्या करने का अधिकार दिया था। आजकल न्यायपालिका ऐसा व्यवहार कर रही है जैसे यह गैर निर्वाचित सरकार हो। यह कानून बना रही है और अपनी मर्जी से उन्हें लागू कर रही है और जो इसकी मर्जी के आगे सिर नहीं झुकाता उस पर अदालत की अवमानना की तलवार लटका दी जाती है।-वरिन्द्र कपूर     

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