क्या जम्मू-कश्मीर में भाजपा महबूबा की ‘अग्रिम शर्तों’ को स्वीकार करने का जोखिम उठाएगी

Monday, Feb 15, 2016 - 02:00 AM (IST)

(बी.के. चम): जम्मू-कश्मीर में सरकार के गठन को लेकर पैदा हुआ गतिरोध क्या टूट सकेगा? क्या भाजपा और पी.डी.पी.-जिन्हें मुफ्ती मोहम्मद सईद ने मुख्यमंत्री की शपथ ग्रहण करने के तत्काल बाद एक मार्च को ‘उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव का मिलन’  करार दिया था-एक-दूसरी से दूर हट रही हैं? यह प्रश्र इसलिए महत्वपूर्ण बन गया है कि पी.डी.पी. प्रमुख महबूबा मुफ्ती ने सरकार गठन के लिए पूर्व शर्तें रखी हैं। उन्होंने यह कहते हुए इस मुद्दे पर कठोर स्टैंड लिया है कि अन्य बातों के अलावा केन्द्रीय नेतृत्व लिखित रूप में यह आश्वासन दे कि गठबंधन सहयोगियों  के न्यूनतम सांझा कार्यक्रम पर आधारित गवर्नैंस का एजैंडा  हूबहू लागू किया जाएगा। वह यह भी चाहती हैं कि विश्वास बढ़ाने वाले कदम उठाए जाएं लेकिन इस मामले में उन्होंने विस्तार से कुछ नहीं बताया। भाजपा नेतृत्व अभी तक अपने सहयोगी दल की इन मांगों के संबंध में कोई भरोसा दिलाने में विफल रहा है। 

 
गठबंधन सहयोगियों के रिश्तों में गतिरोध उनकी विचारधाराओं के टकराव में से ही उग्मित हुआ है। फिर भी उन्होंने सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने की महत्वाकांक्षा को साकार करने के लिए अपनी विचारधारा पर समझौता किया। दोनों दलों में से किसी  ने भी 87 सदस्यीय जम्मू-कश्मीर विधानसभा में निर्णायक बहुमत हासिल नहीं किया था। पी.डी.पी. और भाजपा को क्रमश: 28 और 25 सीटें ही मिली थीं। 
 
यह तो पहले से ही तय था कि गठबंधन बना रही दोनों पाॢटयों के अंतॢवरोध भाजपा के वैचारिक सूत्रधार  आर.एस.एस. के उस निर्देश में  निहित थे जिसमें कहा गया था कि पार्टी को  सत्ता हाथ में आने का मौका गंवाना नहीं चाहिए क्योंकि यह इसे राज्य की संवेदनशील मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी में विशेष तौर पर अपने जनाधार को विस्तार देने का अवसर उपलब्ध करवाएगा। 
 
लेकिन मुफ्ती मोहम्मद सईद का मानना था कि मुस्लिम बहुल कश्मीर में केन्द्रित पी.डी.पी. और हिन्दू बहुल जम्मू में केन्द्र भाजपा दोनों का एक-दूसरे के करीब आना उन्हें ‘मिलकर प्रदेश में शांति और विकास हेतु काम करने’ का अवसर प्रदान करेगा।
 
यह बहुत वांछित और नेक भावना थी जिसे शुभचितकों ने व्यापक रूप में सराहा था क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि इस संवेदनशील प्रदेश को एक स्थिर सरकार हासिल होगी लेकिन ताजा-तरीन घटनाक्रम इस उम्मीद के चीथड़े उड़ाने की चुनौती दे रहे हैं। 
 
इसमें कोई संदेह नहीं कि संवेदनशील प्रदेश में सरकार के 6 वर्ष की मियाद में मुफ्ती ने ‘अमन और विकास’ को साकार करने का जो वायदा किया था उसके लिए  एक वर्ष की अवधि काफी छोटी है लेकिन ऐसे बहुत कम संकेत मिले हैं कि गठबंधन सरकार अपने ‘विकास एजैंडे’ को  साकार कर रही है।
 
जम्मू-कश्मीर में यदि इस समय अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण वातावरण है तो इसके लिए गठबंधन सरकार कोई श्रेय नहीं ले सकती। लगभग एक दशक तक रोष प्रदर्शनों और ङ्क्षहसा की उथल-पुथल भरे समय की पृष्ठभूमि में देखा जाए तो अपेक्षाकृत जो शांति आई है वह मुख्य तौर पर  सुरक्षा बलों द्वारा आतंकवादियों के विरुद्ध गतिविधियां तेज किए जाने और सीमापारीय घुसपैठ पर अंकुश लगाने का नतीजा है।
 
लेकिन ङ्क्षचता की बात वे रिपोर्टें हैं जो गत कुछ समय से कश्मीरी युवकों के आतंकवादियों में शामिल होने के बारे में आ रही हैं। सुरक्षा बलों ने भी इस घटनाक्रम पर ङ्क्षचता व्यक्त की है।  
 
मुफ्ती मोहम्मद सईद की मृत्यु के बाद दोनों गठबंधन सहयोगी खुद को  अनिर्णय की स्थिति में पा रहे हैं। गठबंधन सरकार की इसके ‘विकास’ के वायदों पर असंतोषजनक कारगुजारी तथा केवल सत्ता की हवस में हिन्दू  दक्षिणपंथी पार्टी के साथ हाथ मिलाने के कारण पी.डी.पी. की छवि उसके गढ़ मुस्लिम  बहुल कश्मीर घाटी में  आहत हुई है। 
 
जम्मू क्षेत्र में भाजपा की पकड़ ढीली पड़ रही है, जबकि यह क्षेत्र पूर्व प्रजा परिषद और जनसंघ के समय से ही पार्टी का गढ़ चला आ रहा है। मीडिया ने बेनाम वरिष्ठ भाजपा नेताओं  के हवाले से रिपोर्टें प्रकाशित की हैं कि  मुफ्ती मोहम्मद सईद की सरकार   के पूर्व मंत्रियों सहित पार्टी के अधिकतर विधायकों ने केन्द्रीय नेतृत्व को बताया है कि  पी.डी.पी. का ‘जरूरत से अधिक तुष्टीकरण’ करने  के फलस्वरूप जम्मू क्षेत्र में केन्द्रित भाजपा  पर यह आरोप लगेंगे कि यह  दबाव के आगे झुक रही है। ‘‘जब से हमने राष्ट्रहित में पी.डी.पी. के साथ हाथ मिलाया है हमारे पक्के मतदाताओं में हमारी छवि धूमिल हुई है।’’
 
महबूबा द्वारा केन्द्रीय नेतृत्व को यह पूर्व शर्त पेश करना कि वह लिखित रूप में यह आश्वासन दे कि गठबंधन सहयोगियों की सहमति से तैयार न्यूनतम सांझा कार्यक्रम के आधार पर गवर्नैंस के एजैंडे को हूबहू लागू किया जाएगा-इस मुद्दे पर भाजपा का एक प्रभावी वर्ग कथित विरोध कर रहा है। वह यह भी चाहती हैं कि विश्वास बहाली के लिए कदम उठाए जाएं लेकिन उन्होंने इसकी व्याख्या नहीं की। अभी तक भाजपा अपने गठबंधन सहयोगी की मांगों पर कोई आश्वासन देने में विफल रही है।
 
रिपोर्टों के अनुसार महबूबा ने मांग की है कि सार्वजनिक रूप में यह घोषणा की जाए कि प्रदेश को विशेष दर्जा देने वाली धारा-370 से कोई छेड़छाड़ नहीं की जाएगी तथा प्रदेश के जिन जिलों में शांति बहाल हो चुकी है वहां से तत्काल ‘अफस्पा’ (सशस्त्रबल विशेषाधिकार अधिनियम)  वापस लिया जाए और   राष्ट्रीय जल विद्युत निगम (एन.एच.पी.सी.) से दोनों जल विद्युत परियोजनाएं वापस लेकर प्रदेश सरकार को सौंपने की प्रक्रिया शुरू की जाए। 
 
न्यूनतम सांझा कार्यक्रम में दोनों ही पाॢटयों ने प्रदेश से संबंधित मुद्दों पर लचकदार पैंतरा अपनाया है।  यहां तक कि भाजपा नेतृत्व ने अपने स्टैंड को नर्म कर दिया है और ‘‘जम्मू-कश्मीर से संबंधित सभी संवैधानिक प्रावधानों को यथावत बनाए रखने पर सहमत हो गई है।’’ वैसे जम्मू-कश्मीर मुद्दे पर इसका स्टैंड 13 मार्च 2015 को नागपुर में आयोजित आर.एस.एस. की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा  की 3 दिवसीय ङ्क्षचतन बैठक के फैसले  से एकदम बेमेल है। आर.एस.एस. के इस शीर्ष निर्णयकारी निकाय ने एक बार फिर  ‘‘जम्मू-कश्मीर में धारा 370 को रद्द किए जाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है।’’ सार्वजनिक रूप में भाजपा और आर.एस.एस. चाहे कोई भी मुद्रा अपनाएं, इसके बावजूद भाजपा शायद सरकार गठन के संबंध में महबूबा की अग्रिम शर्तों को स्वीकार करने का जोखिम नहीं उठाएगी। 
 
भाजपा के क्षेत्रीय गठबंधन सहयोगियों ने पहले ही अपना दमखम दिखाना शुरू कर दिया है इसलिए यह एक प्रादेशिक सहयोगी को खोना भी गंवारा नहीं कर सकती। दूसरी ओर मोदी और उनकी सरकार की तेजी से घटती लोकप्रियता के कारण भाजपा की सौदेबाजी की शक्ति बुरी तरह प्रभावित हुई है। मोदी को अपने ‘अमरीकी दोस्त’ बराक ओबामा से कुछ सीख लेनी चाहिए जिन्होंने गत वर्ष 26 जनवरी पर दिल्ली यात्रा के दौरान उनसे गलबहियां  लेते हुए कहा था, ‘‘कोई लोकतंत्र समझौतों के बगैर काम नहीं कर सकता।’’ 
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