जम्मू-कश्मीर के सामने इस समय ‘बड़ी चुनौतियां’

Friday, Feb 05, 2016 - 01:01 AM (IST)

(वजाहत हबीबुल्लाह): जम्मू-कश्मीर की गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद उनकी उत्तराधिकारी द्वारा पद्भार संभालने में हो रही देरी के कारण राज्य में राजनीतिक संकट चरम पर है। हर कोई महबूबा मुफ्ती के मन को पढऩे में व्यस्त है। मगर इस समय राज्य के सामने बहुत बड़ी चुनौतियां हैं। 

 
सितम्बर 1948 में, जब कश्मीर को लेकर भारत-पाकिस्तान के बीच पहला युद्ध समाप्त होने के करीब था, शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने भारत तथा पाकिस्तान के लिए संयुक्त राष्ट्र के पहले आयोग के पहले चेयरमैन जोसेफ कोरबेल के साथ बात की और अपना विचार बताया कि कश्मीरी भारत का साथ छोडऩा बेहतर समझते हैं। इसे लेकर उन्होंने अपनी दुविधा भी बताई। 
 
कश्मीरियों के निॢववाद नेता ने कश्मीर के सामने विकल्पों का भी जिक्र किया। उन्होंने लिखा था कि ‘‘मैंने हमारी समस्याओं के चार संभव समाधानों बारे बात की थी। पहला या दूसरा-जनमत संग्रह के माध्यम से भारत या पाकिस्तान के साथ विलय। ऐसा तीन वर्षों से कम समय में नहीं हो सकता था क्योंकि राज्य में काफी विनाश हुआ था और यहां के नागरिक जहां-तहां बिखरे हुए थे। इसके बावजूद एक व्यापक क्षेत्र में फैले इसके लोगों की इच्छाओं की निष्पक्षता का निर्धारण करना मुश्किल था। क्या ऐसा जनमत संग्रह लोकतांत्रिक होता और क्या भारत अथवा पाकिस्तान इस निर्णय को स्वीकार करते?
 
तीसरे, एक संभावना भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, चीन तथा सोवियत संघ की संयुक्त गारंटी के अन्तर्गत स्वतंत्रता की थी। मैं आजाद कश्मीर के नेता गुलाम अब्बास से मिलना चाहता था मगर क्या कश्मीर के शक्तिशाली पड़ोसी हमें स्वतंत्रता की गारंटी दे देते। मुझे उसके अधिक लंबे समय तक रहने में संदेह था। इसलिए मेरे विचार में केवल एक समाधान खुला था, वह था देश का बंटवारा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो लड़ाई जारी रहेगी। भारत तथा पाकिस्तान झगड़ा अनिश्चितकाल के लिए बढ़ाते रहेंगे और हमारे लोगों के संकट जारी रहेंगे।’’
 
वे संकट वास्तव में कभी समाप्त नहीं हुए, मगर आजादी की आकांक्षा कभी धूमिल नहीं हुई। जहां तक भारत और पाकिस्तान की बात है तोउस क्षेत्र को लेकर उनका झगड़ा, जिसका जिक्र शेख ने किया था, सैद्धांतिक रूप से सुलझ गया है, जैसा कि पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी की पुस्तक ‘नीदर ए हॉक, नार ए डव’ से स्पष्ट है कि कश्मीर सहित सभी पक्ष उस पर सहमत हो गए थे। अब समस्या राज्य के भीतर से है और इसके सभी दावेदारों को इसे मिलकर सुलझाना है। जैसा कि घाटी के बाहर ध्यान नहीं दिया गया, जैसे-जैसे आतंकवादसमाप्त होता गया, आजादी का सपना एक बार फिरजोर पकडऩे लगा। यह एक ऐसा रास्ता है, जिसे कश्मीरने निर्णायक तौर पर 1947 में अपनाने से इन्कार कर दिया था। 
 
पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी (पी. डी.पी.) तथा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) गठबंधन सरकार द्वारा अपने किसी भी वायदे को पूरा करने में असफल रहने के कारण कश्मीर के युवाओं में निराशा बढ़ी है। 
 
कश्मीर की जो स्थिति है, उसका बयान कश्मीरी पंडितों की हालत बखूबी करती है। 1996 में राज्य में चुनी हुई सरकार द्वारा सत्ता संभालने के बाद से ही उनको घाटी में वापस लौटा लाने की बातें की जा रही हैं। कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के आकलन के अनुसार 1 जनवरी 1990 को कश्मीरी पंडितों के परिवारों की संख्या 75343 थी, जो  1990-92 की उथल-पुथल के बाद कम होकर 651 परिवारों तक सिमट गई। लगभग 70000 परिवार यहां से पलायन कर गए। मगर बड़ी संख्या में, 3000 से अधिक परिवार उसके बाद तब पलायन कर गए जब ङ्क्षहसा पर बहुत हद तक काबू पाया जा चुका था। बेशक कश्मीरी पंडितों के घाटी में स्वागत की बातें की जा रही हैं, मगर जब तक वादी की जनता इसका आश्वासन नहीं देती, ऐसा हो पाना संभव नहीं है। 
 
यदि राज्य को विकास के रास्ते पर ले जाना है तो इसे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश  (एफ.डी.आई.) के लिए खुला होना चाहिए, जिसके साथ ही स्टार्टअप्स तथा बहुप्रचारित स्मार्ट सिटीज के विकास की शुरूआत होनी चाहिए। इससे युवा कश्मीरियों, पंडितों, मुसलमानों, सिखों, बौद्धों अथवा ईसाइयों को हौसला मिलेगा, जिनमें से बहुतों ने अपने कारोबार कहीं अन्य स्थापित कर लिए हैं। राज्य के अपने राजनीतिक नेतृत्व के बीच एक सामान्य मान्यता है कि जम्मू-कश्मीर के पास स्रोतों की कमी है और उसे अपने अस्तित्व के लिए काफी हद तक केन्द्र पर निर्भर रहना पड़ता है। मगर ऐसा इसलिए है क्योंकि राज्य के वर्तमान सरकारी ढांचे के अन्तर्गत उद्योगों को अवैध बनाया गया है और उनके रास्ते में अवरोध खड़े किए जाते हैं। 
 
फिर भी राज्य के दोहन किए जाने वाले स्रोतों का स्वरूप ऐसा है कि जम्मू-कश्मीर को भारत का शो-पीस बनाया जा सकता है। यहां के समृद्ध स्रोतों-वनों, झीलों, नदियों, धाराओं आदि में निवेश करने के बहुत से अवसर हैं। सरकार ने पहले इन स्रोतों का दोहन करने पर विचार किया था मगर ऐसा एकाधिकार के तहत था। इसके परिणामस्वरूप केवल सरकारी नौकरियां ही लाभकारी बनी रह गई हैं।                        
 
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