जैसलमेर : ‘पधारो म्हारे देश’

punjabkesari.in Monday, Feb 01, 2021 - 05:08 AM (IST)

पूरा साल कोविड के चक्कर में कहीं घूमने जाना नहीं हुआ। इस हफ्ते हिम्मत करके जैसलमेर, जोधपुर में छुट्टी बिताने का सोचा। थार के रेगिस्तान में बसा जैसलमेर, आमतौर पर इन दिनों हजारों विदेशी सैलानियों से पटा रहता है। लेकिन इस बार एक साल से कोई विदेशी पर्यटक नहीं आया, जिससे पर्यटन पर आधारित यहां की अर्थव्यवस्था पूरी तरह बैठ चुकी है। तमाम छोटे-बड़े होटल बंद पड़े थे या बंद होने की कगार पर थे। 

पिछले तीन महीनों में जैसे ही कोविड का डर लोगों के मन से दूर हुआ तो गुजरात, राजस्थान और दिल्ली आदि के पर्यटकों का सैलाब टूट पड़ा। उससे यहां के पर्यटन उद्योग को कुछ ऑक्सीजन मिली है। स्थानीय लोगों का कहना था कि पूरे कोविड काल में जैसलमेर और आसपास के इलाके में इस महामारी का कोई खास असर नहीं था। न तो लोगों ने मास्क पहने और न सामाजिक दूरी बनाई। कमोबेश यही हालत सारे देश की रही है। 

कोविड का जो भी घातक असर देखने को मिला वह केवल मुंबई, इंदौर, दिल्ली जैसे नगरों और मध्यमवर्गीय या उच्चवर्गीय परिवारों में ही देखा गया। हमारे मथुरा जिले के किसी भी गांव में कोविड महामारी के रूप में नहीं आया। पर कोविड के आतंक से जिस तरह के अप्रत्याशित कदम उठाए गए उससे अर्थव्यवस्था की रीढ़ पूरी तरह टूट गई। 

यही कारण है कि गरीब आदमी, मजदूर, किसान और छोटे दुकानदार और कारखानेदार हर शहर में ये प्रश्न करते हैं कि क्या वह सब जरूरी था? अगर यह माना जाए कि एेसी कड़ी रोकथाम से ही भारत में कोविड पर काबू पाया जा सका तो यह भी सही नहीं होगा। क्योंकि जब देश की बहुसंख्यक आबादी ने कोविड के प्रतिबंधों का पालन ही नहीं किया और फिर भी इस महामारी के प्रकोप से ईश्वर ने भारतवासियों की रक्षा की तो यह स्पष्ट है कि भारत के लोगों में प्रतिरोधी क्षमता, पश्चिमी देशों के लोगों के मुकाबले ज्यादा है क्योंकि हम बचपन से विपरीत परिस्थितियों से जूझ कर बड़े होते हैं और वह भी बहुत ज्यादा सावधानियों के साथ। 

इस इलाके में आने से पहले, एक कल्पना थी कि चारों आेर रेत के टीले ही टीले होंगे। पर राजमार्ग के दोनों तरफ हरियाली और खेत देख कर आश्चर्य हुआ। पता चला यह कमाल है इंदिरा नहर का। जिसके आने के बाद से अब यहां बारिश भी साल में 10-12 बार हो जाती है। जबकि पहले बारिश सालों में एक बार होती थी। इससे यह सिद्ध होता है कि समुचित जल प्रबंधन से देश का कायाकल्प हो सकता था। 

आजादी के बाद खरबों रुपया बहुउद्देशीय नदी परियोजनाआें पर खर्च हुआ। बावजूद इसके आज भी हम वर्षा के मात्र 10 फीसदी जल का ही संचयन कर पाते हैं। जबकि 90 फीसदी जल बह कर नदियों के रास्ते समुद्र में चला जाता है। जबकि जैसलमेर की सबसे धनी सेठों की ‘पटवों की हवेली’ में जिस पानी से नहाया जाता था, उसी को एकत्र करके कपड़े धुलते थे और कपड़े धुलने के बाद उसी पानी से फिर फर्श और गली धोए जाते थे। आज हम एेसा नहीं कर सकते पर पानी की बर्बादी पर रोक लगाने की मानसिकता भी विकसित करने को तैयार नहीं हैं। जबकि हर शहर का भूजल स्तर तेजी से गिरता जा रहा है और जल संकट गहराता जा रहा है। 

पर्यटन की दृष्टि से अब भारत के मध्यमवर्गीय परिवारों ने एक बड़ा बाजार खड़ा कर दिया है। इसलिए इस वर्ग को भी पर्यटन के शिष्टाचार सीखने की जरूरत है। आप दुबई के रेगिस्तान में बने ‘डेजर्ट सफारी’ में जाएं तो आपको प्लास्टिक छोड़ ऊंटों की लीद भी देखने को नहीं मिलेगी। हमारी इस यात्रा का ‘हाई प्वाइंट’ था भारत पाकिस्तान के बार्डर पर सीमा सुरक्षा बल की पोस्ट पर जाकर उनके जीवन को देखना।

जिस गलवान घाटी में बर्फ की तहों के अंदर खड़े हो कर हमारे सैनिक सीमा की रक्षा करते हैं, उससे कम नहीं है थार के रेगिस्तान में 55 डिग्री सैल्सियस की तपती लू और कई दिनों चलने वाली काली आंधी में बी.एस.एफ. के जवानों का पाकिस्तान के विरुद्ध मोर्चा लेना। इन जवानों और अफसरों के हौसले को सलाम है। रोचक बात यह पता चली कि जहां भारत ने 1751 किलोमीटर की पूरी सीमा पर कंटीले तारों की मजबूत बाड़, हर 100 मीटर पर सर्च लाइट के खम्भे और निरीक्षण कक्ष बना रखे हैं, वहीं अपनी आर्थिक तंगी के चलते पाकिस्तान ने एेसा कुछ भी नहीं किया। 

इससे साफ जाहिर है कि पाकिस्तान गुरिल्ला युद्ध या आतंकवाद पनपाने का काम तो कर सकता है पर कोई बड़ा युद्ध लडऩे की उसकी औकात नहीं है। यह हमारे लिए संतोष की बात है। कुल मिलाकर ‘पधारो म्हारे देश’ का यह अनुभव बहुत रोचक रहा और उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले महीनों में देश की हालत और सुधरेगी और फिर हम सब भारतवासी आनंद और उमंग से वैसे ही जिएंगे जैसे कि सदियों से जीते आए हैं।-विनीत नारायण   
  


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