‘जयश्री राम’ के नारे पर जय-पराजय की राजनीति

Saturday, Jun 08, 2019 - 04:29 AM (IST)

कुछ नारे कालजयी होते हैं, जिनका संबंध परिवर्तन से होता है, क्रांति से होता है। नारों का संबंध आस्था से भी होता है, रूढिय़ों और अंधविश्वासों को तोडऩे से होता है। नारों से जन संवेदनाएं भी आंदोलित होती हैं। देश-दुनिया में बहुत से नारे इतिहास बन गए हैं, परिवर्तन और क्रांति के प्रतीक बने हैं, जिनके प्रति जनसमुदाय का समर्पण भाव जुड़ा होता है। हमारे देश में ऐसे लोकप्रिय नारों का लम्बा-चौड़ा इतिहास रहा है। 

सुभाष चन्द्र बोस ने ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा दिया था। हालांकि इनकी आजाद ङ्क्षहद फौज आजादी नहीं दिला पाई थी, फिर भी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के इस नारे ने विदेशी सरकार के दांत खट्टे कर दिए थे। हिटलर की पराजय नहीं होती, अमरीका ने नागासाकी और हीरोशिमा पर परमाणु बम बरसा कर विध्वंस नहीं किया होता तो फिर आजाद ङ्क्षहद फौज देश को आजाद भी करा सकती थी।

1942 में महात्मा गांधी ने ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का नारा दिया था। पूरा देश महात्मा गांधी के इस नारे के साथ आंदोलित था, जेल जाने या फिर गोलियां खाने से डर नहीं था। इसके पूर्व भी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने ‘आजादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा दिया था। तिलक के इस नारे ने अंग्रेजी सरकार की नींव हिलाने का काम किया था। आजाद भारत में भी कई ऐसे नारे अस्तित्व में रहे हैं जिन्होंने देश के जनमानस पर न केवल छाप छोड़ी थी बल्कि देश के स्वाभिमान को भी जगाया था। खासकर लाल बहादुर शास़्त्री का ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा। यह सही बात है कि वही नारे इतिहास बनाते हैं, कालजयी बन जाते हैं जिनके पीछे कोई व्यक्तिगत स्वार्थ जुड़ा नहीं होता है, बल्कि उसके पीछे जन-संवेदनाएं होती हैं, जनहित होता है, परिवर्तन और क्रांति होती है। 

विरोध और पक्ष में तर्क
वर्तमान में ‘जयश्री राम’ का नारा  और उद्बोधन राजनीति के केन्द्रीय विचार के केन्द्र में आ गया है। इसे लेकर विस्फोटक राजनीति भी शुरू हो गई है। सिर्फ इतना ही नहीं, बल्कि इसे जय-पराजय की राजनीति भी मान लिया गया है। वैसे तो यह नारा राममंदिर आंदोलन से ही राजनीति को प्रभावित कर रहा है, खासकर सत्ता राजनीति में केन्द्रीय भूमिका निभा रहा है। विरोधी शक्तियां कहती हैं कि जयश्री राम के नारे के साथ धार्मिक भावनाएं जुड़ती हैं, जो विध्वंसकारी होती हैं, इसलिए इस तरह के नारे बंद होने चाहिएं। वहीं समर्थक धाराएं जयश्री राम के नारे को अपनी संस्कृति के उन्नयन के साथ जोड़ती हैं, देश के स्वाभिमान के साथ जोड़ती हैं। 

ऐसी धाराएं कहती हैं कि हमारी संस्कृति के विध्वंस को लेकर कोई एक नहीं, बल्कि सैंकड़ों नारे सक्रिय रहे हैं, जिन्हें कांग्रेस और वामपंथी सक्रिय रखे हैं पर उन पर कोई अपमानजनक या फिर कटाक्षपूर्ण टिप्पणियां नहीं होती हैं, सिर्फ हमारे स्वाभिमान के प्रतीक नारे पर ही इतनी हाय-तौबा क्यों मचती है। हाय-तौबा मचाने वाली राजनीति तुष्टीकरण का कैसा खेल खेलती है, तथाकथित अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों के प्रति कैसे असहिष्णुतापूर्ण भाव रखने के लिए उकसाया जाता है, यह भी देश की राजनीति में जगजाहिर है। कोई कहता है कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है तो कोई कहता है कि कहीं दंगा हुआ तो फिर प्रताडि़त होने के बावजूद हिन्दुओं को ही अपराधी माना जाएगा? बहुसंख्यक भावना यह है कि राजनीतिक तुष्टीकरण का जवाब जयश्री राम की बहुसंख्यक जन संवेदनाएं हैं। 

ममता की नींद उड़ाई
खासकर पश्चिम बंगाल में  उठ रही ‘जयश्री राम’ की बहुसंख्यक जन संवेदना से ममता बनर्जी कैसे भड़की हैं, इस नारे ने ममता बनर्जी की कैसे नींद उड़ाई है और गुस्से में वह कैसी भाषा बोल रही हैं, यह भी जगजाहिर हो चुका है। ममता बनर्जी यह कह रही हैं कि जयश्री राम के नारे के साथ भाजपा नफरत फैला रही है। राजनीति में क्रिया की विपरीत प्रतिक्रिया होती है, हथकंडे के खिलाफ हथकंडा होता है। यह सही है कि भाजपा ने ममता बनर्जी की सत्ता को उखाड़ फैंकने के लिए जयश्री राम का नारा दिया है, जिससे वह यह प्रदॢशत कर रही है कि ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल के हिन्दुओं के साथ नाइंसाफी, भेदभाव कर रही हैं। हिन्दुओं को दोयम दर्जे का नागरिक बना कर रख छोड़ा है। 

यह भी सही है कि राजनीतिक हथकंडे की कसौटी पर ममता बनर्जी भी दूध की धुली नहीं हैं, वह भी खुलेआम मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति पर सवार रही हैं, जो उनका सत्ता सूत्र है। हिन्दू त्यौहारों पर ममता बनर्जी ने कैंची चलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। मुस्लिम तुष्टीकरण का खेल राष्ट्र की भावनाओं को आहत कर रहा है। खासकर पश्चिम बंगाल में रोङ्क्षहग्या मुसलमानों और बंगलादेशी मुसलमानों की खुलेआम घुसपैठ को संरक्षण देना और रोङ्क्षहग्या-बंगलादेशी मुसलमानों को नागरिकता कार्ड देकर देश के नागरिक की हर सुविधाएं उपलब्ध कराने की सत्ता राजनीति चरम पर है। 

ऐसे में बहुसंख्यक वर्ग की भावनाओं का प्रकटीकरण भी स्वाभाविक है। जयश्री राम की बहुसंख्यक भावनाओं का प्रकटीकरण लोकसभा चुनावों में साफ देखा गया। भाजपा, जो पश्चिम बंगाल में कोई खास प्रभाव नहीं रखती थी, आज सत्ता के दावेदार के रूप में खड़ी है। इस लोकसभा चुनाव में 42 में से 18 सीटें जीत कर भाजपा ने ममता बनर्जी की नींद उड़ा डाली है। ममता बनर्जी को देखते ही बहुंसख्यक लोग जय श्री राम के नारे लगा रहे हैं और वह नारे लगाने वालों को बाहरी यानी कि पश्चिम बंगाल से बाहर के तत्व बता रही हैं और जेल भिजवाने की धमकियां दे रही हैं।

सिर्फ इतना ही नहीं, बल्कि जय श्री राम का नारा लगाने वाले सैंकड़ों लोगों को जेल भिजवा भी चुकी हैं, उन पर गंभीर किस्म के मुकद्दमे भी लादे गए हैं। रोङ्क्षहग्या-बंगलादेशी घुसपैठियों के खिलाफ एक शब्द नहीं बोलने वाली ममता बनर्जी देश के नागरिकों को ही बाहरी तत्व बता रही हैं। ऐसे में बहुसंख्यक जन भावनाएं उनकी विरोधी होकर नुक्सानदेह ही बनेंगी। 

उत्तर प्रदेश की भूमिका
1990 के दशक में ऐसा ही खेल उत्तर प्रदेश में खेला गया था, जहां पर जयश्री राम का नारा लगाने वाले लोगों को कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे सैक्युलर दलों के कोपभाजन का शिकार बनना पड़ता था। दुष्परिणाम यह हुआ कि उत्तर प्रदेश में पहली बार भाजपा की सरकार बनी थी, कल्याण सिंह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे थे। आज भी भाजपा केन्द्र में जो सत्तासीन है, उसके पीछे उत्तर प्रदेश की राजनीतिक शक्ति बड़ी भूमिका निभा रही है। वर्तमान स्थिति यह है कि बहुसंख्यक वर्ग भी अपने हित और अपने स्वाभिमान के प्रति सचेत, गंभीर और सक्रियतापूर्ण आंदोलनकारी हो गए हैं, इन्हें अब तुष्टीकरण करने वाले सैक्युलर दलों से नाराजगी है। इसी का प्रकटीकरण अभी-अभी लोकसभा चुनाव का परिणाम है, नरेन्द्र मोदी फिर से अपार बहुमत के साथ सत्ता में लौटे हैं। उनकी जीत को देशभक्ति की जीत, देश के बहुसंख्यक जनभावनाओं की जीत माना जा रहा है। 

राम तो भारतीय संस्कृति के आराध्य हैं। महात्मा गांधी भी भगवान राम की स्तुति करते थे। सबसे बड़ी बात डा. राम मनोहर लोहिया का भगवान राम  दर्शन है। लोहिया भगवान राम के जीवन पर आधारित ‘राम मेला’ का आयोजन करते थे, जिसमें देश भर से समाजवादी धारा के लोग एकत्रित होते थे। ममता बनर्जी ही क्यों, बल्कि देश की सभी सैक्युलर राजनीतिक पाॢटयों को आत्ममंथन करना चाहिए कि आखिर क्यों बहुसंख्यक जनभावनाएं आहत हैं? बहुसंख्यक जनभावनाएं आखिर क्यों अपने हित और अपने स्वाभिमान के लिए ‘जयश्री राम’ के नारे के शरण में गई हैं?-विष्णु गुप्त

Advertising