जम्मू-कश्मीर समस्या: क्या सरकार मुद्दइयों से बातचीत करेगी

Sunday, Jun 24, 2018 - 04:03 AM (IST)

केवल कुछ ही सप्ताह पूर्व मैंने अपने दिल की व्यथा प्रकट करते हुए एक स्तम्भ लिखा था :‘‘जम्मू-कश्मीर की परीक्षा में विफल हो रहा भारत।’’ जम्मू-कश्मीर और खासतौर पर कश्मीर घाटी में स्थिति तेजी से बिगडऩे के लिए मुझे भाजपा नीत केंद्रीय सरकार की नीतियों को दोष देने में कोई झिझक नहीं। 

इस नीति का आधार तो कुछ दिन पूर्व धराशायी ही हो गया था। भाजपा ने गठबंधन सरकार से खुद को अलग कर लिया और दूसरी सहयोगी पी.डी.पी. के समक्ष सिवाय त्यागपत्र देने के कोई विकल्प ही नहीं रह गया था। जम्मू-कश्मीर अब राज्यपाल शासन के अंतर्गत आ गया है जोकि केंद्र सरकार के सीधे शासन का ही पर्याय है। 

शेष भारत में ऐसे लोगों की संख्या कोई बहुत ज्यादा नहीं जो इस स्थिति की गंभीरता को समझ पाएं। ये लोग सत्ताधीशों की बयानबाजी के छलावे में आ गए। इस बयानबाजी का प्रारंभ खुद प्रधानमंत्री ने ही किया था। ‘घुसपैठ रोक दी जाएगी,’ ‘आतंकवाद की जड़ उखाड़ दी जाएगी,’ ‘अलगाववादियों को दंडित किया जाएगा,’ ‘प्रदेश में शांति बहाल होगी’ और ‘जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बना रहेगा’ जैसे वायदों से मंत्रमुग्ध हो जाना बहुत आसान है। ठहरने और आत्ममंथन करने के हर आह्वान को ठेंगा दिखाया गया और हर आलोचना को राष्ट्र विरोधी करार दिया गया। 

जरा उनके शब्दों को याद करो
शायद आप भूल गए हों, आर.एस.एस. तथा भाजपा के संकटमोचक ने एक से अधिक मौकों पर सरकार की नीति को इन शब्दों में सूत्रबद्ध किया : ‘‘सरकार चट्टान की तरह मजबूती से खड़ी रहेगी चाहे उसके विरुद्ध कोई लावा फटता है या नहीं।’’ यही सरकार 19 जून 2018 को धराशायी हो गई और भारत के लोगों से उसने लेशमात्र भी क्षमायाचना करने की जरूरत नहीं समझी। गृहमंत्री ने कुछ माह पूर्व एक बहुत रहस्यमय बयान दिया था: ‘‘जम्मू-कश्मीर समस्या का समाधान ढूंढ लिया गया है।’’ राज्यपाल शासन घोषित होने के बाद 20 जून 2018 को सीधे रूप में जम्मू-कश्मीर के प्रभारी इस मंत्री ने केवल असंतोषजनक ढंग से इतना ही कहा, ‘‘केंद्र अब आतंकवाद को बिल्कुल सहन नहीं करेगा।’’ उस रहस्यमय समाधान के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा गया जो सरकार ने काफी समय पूर्व ढूंढ लिया था। 

जब राजनीतिक दलों ने रमजान महीने के लिए गोलीबंदी की मांग की तो सेना प्रमुख ने इस मांग का उत्तर देने की जिम्मेदारी खुद संभाल ली और कहा, ‘‘आजादी नहीं मिलने वाली, कभी भी नहीं... यदि तुम हमारे साथ हमारे विरुद्ध लड़ोगे तो हम पूरी शक्ति से तुम्हें कुचल देंगे।’’ राज्यपाल शासन लागू होने के बाद सेना प्रमुख ने फिर से अपनी इस घिसी-पिटी उक्ति को दोहराते हुए कहा : ‘‘आतंक विरोधी अभियान जारी रहेंगे और हमारे काम में अब कोई राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होगा।’’
शुक्रवार सायं 6 बजे तक एक ही शख्स जिसने जुबान नहीं खोली थी, वह थे प्रधानमंत्री। 

हमें जो कीमत अदा करनी पड़ी
मुझे इस तथ्य से कोई संतुष्टि हासिल नहीं होती कि 3 वर्ष पूर्व मैंने जो कहा था उसकी अनेक व्यक्तियों द्वारा पुष्टि की गई है। तब मैंने कहा था: ‘‘पी.डी.पी.-भाजपा गठबंधन अप्राकृतिक और अवसरवादी गठबंधन है। इसको तो पहले ही दिन घाटी के लोगों ने रद्द कर दिया था। उनकी नजरों में पी.डी.पी. गद्दार है और भाजपा अवैध कब्जाधारी। श्रीनगर चुनावी क्षेत्र में जब उप चुनाव करवाया गया तो केवल 7 प्रतिशत लोगों ने ही मतदान किया। इस मौके पर जो हिंसा हुई उसके लिए गठबंधन सरकार ही एकमात्र भड़काऊ कारण थी।’’ 

26 मई 2014 से लेकर अब तक के 48 महीनों दौरान इससे पूर्व के 48 महीनों की तुलना में घुसपैठ भी बढ़ी है और ङ्क्षहसा व मौतों में वृद्धि हुई है। कई मूलभूत सिद्धांतों को बहुत नुक्सान पहुंचा है। लिखित और अलिखित नियमों के विपरीत सेनापतियों ने राजनीतिक बयानबाजी की, जम्मू-कश्मीर की मंत्रिपरिषद ने सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत की धज्जियां उड़ाईं, प्रदेश के तीनों क्षेत्रों की एकजुटता को गंभीर आंच आई और सत्तातंत्र ने युवा नागरिकों सहित अपने ही लोगों के विरुद्ध हिंसा का तांडव शुरू कर दिया। 

अनुत्तरित प्रश्र
अनेक सवाल पैदा होते हैं : 
1. राज्यपाल शासन का क्या यह तात्पर्य नहीं कि रोष-प्रदर्शनों को दबाने के लिए अधिक बाहुबली और सैन्य दमन की नीति अपनाई जाएगी? इस माह के अंतर्गत जब एन.एन. वोहरा का कार्यकाल समाप्त होगा तो राज्यपाल कौन बनेगा? (श्री वोहरा एक मंझे हुए अनुभवी व्यक्ति हैं लेकिन उनकी आयु उनके पद पर बने रहने के रास्ते में बाधा है। भाजपा के असली इरादे तो तब बेनकाब होंगे जब नए राज्यपाल की नियुक्ति होगी।)
2. क्या राज्यपाल शासन का एकसूत्रीय एजैंडा यही होगा: ‘‘आतंकवाद की जड़ उखाडऩे के लिए भारी-भरकम शक्ति का प्रयोग किया जाए? आतंकवाद का समर्थन तो कोई भी नहीं करता लेकिन इस तथ्य की ओर से कोई भी आंखें नहीं मूंद सकता कि एक अनसुलझी राजनीतिक समस्या ने ही बहुत से युवाओं को ङ्क्षहसा का रास्ता अपनाने के लिए प्रेरित किया है।’’
3. क्या सरकार मुद्दइयों से बातचीत करेगी? वर्तमान सरकार की तो किसी भी प्रकार की विश्वसनीयता नहीं है। यदि यह बातचीत की पेशकश भी करती है तो कोई भी सरकारी प्रतिनिधियों के साथ वार्तालाप करने को तैयार नहीं होगा। दिनेश्वर शर्मा के इरादे चाहे कितने भी नेक क्यों न रहे हों, अब उनकी कोई उपयोगिता नहीं रही। अब समय आ गया है कि सिविल सोसाइटी से संबंधित स्वतंत्र वार्ताकारों को फिर से जम्मू-कश्मीर के लोगों के साथ संवाद रचाने का प्रयास करने दिया जाए लेकिन वर्तमान सत्तातंत्र के अंतर्गत यह बात असंभव-सी लगती है।
4. प्रादेशिक विधानसभा के लिए क्या नए सिरे से चुनाव होंगे? ऐसा खतरा है कि यदि पूरे प्रदेश में नहीं तो कम से कम कश्मीर घाटी में तो चुनाव का बहुत जबरदस्त बायकाट होगा। 
5. क्या पाकिस्तान के साथ युद्ध होगा? ‘सॢजकल स्ट्राइक’ से ‘सीमित युद्ध’ की ओर बढऩे के लिए केवल कुछ ही छोटे-छोटे कदम उठाने की जरूरत होगी। चुनावी वर्ष में यह पंगा लेने का लालच खासतौर पर प्रबल होकर उभरेगा। मैं अभी भी इस उम्मीद से चिपका हुआ हूं कि कश्मीर सदा के लिए हमारे हाथ से नहीं निकला है लेकिन स्थिति काफी हद तक प्रलयंकारी है।-पी. चिदम्बरम

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