दिल है कि मानता नहीं

punjabkesari.in Saturday, Sep 24, 2022 - 04:56 AM (IST)

जब भी कभी कोई महत्वपूर्ण निर्णय लेना हो तो अक्सर यह देखा गया है कि दिल का पलड़ा दिमाग पर भारी पड़ता है। ऐसा ज्यादातर मोह माया के लोभ के कारण होता है। शास्त्रों में भी कहा गया है कि लोभ में फंसकर व्यक्ति नीति के विरुद्ध कार्य करता है। परंतु जिस भी व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में जब लोभ एक अहम स्थान ग्रहण कर लेता है तो वह हर तरह के प्रयास से अपने मोह से जुड़े लक्ष्यों की पूर्ति में जुट जाता है। 

प्राय: यह देखा गया है कि जब भी कभी किसी उच्च पद पर तैनात सरकारी अफसर, सांसद, विधायक आदि की सेवानिवृत्ति का समय आता है तो सरकारी बंगले और अन्य सुविधाओं का मोह उन्हें घेर लेता है। इसके विपरीत ऐसे भी व्यक्ति देखे गए हैं जो अति संवेदनशील पदों पर रहने के बावजूद, अपना सेवाकाल पूरा होते ही सरकारी बंगला छोड़ देते हैं। ऐसे लोग आप उंगलियों पर गिन सकते हैं जो रिटायर होने के दूसरे दिन ही सरकारी बंगला छोड़ देते हैं। 

उनका मानना है कि जब वे इस बंगले में रहने के योग्य बने थे तो उनकी यही इच्छा थी कि वे सरकारी बंगले में जल्द-से-जल्द शिफ्ट हो जाएं। यदि उनसे पहले रहने वाले व्यक्ति ने समय पर बंगला ख़ाली न किया होता तो उनकी ये इच्छा कैसे पूरी होती? ठीक उसी तरह इनके बाद उसी पद पर आने वाले व्यक्ति की भी इसी इच्छा का सम्मान करते हुए उन्हें भी सरकारी बंगला समय पर खाली कर देना चाहिए। 

कुछ हफ्ते पहले ऐसा भी देखने को मिला जब राज्य सरकार में महत्वपूर्ण पद पर तैनात एक अधिकारी ने अपनी सेवानिवृत्ति की तारीख से पहले ही पूरे सरकारी तंत्र में ऐसा माहौल बनाना शुरू कर दिया कि उसका एक्सटैंशन तय है। परंतु अटकलों का बाजार तब शांत हुआ जब उस अधिकारी की विदाई की पार्टी के लिए तमाम इंतजाम करने के आदेश जारी हुए। लेकिन आदत से मजबूर ये अधिकारी अपनी रिटायरमैंट के बाद भी जिले के अधिकारियों पर अपनी धौंस दिखाता रहा और मौखिक फरमान जारी करने लग गया। मीडिया में इस बात को लेकर काफी चर्चा रही। 

जाहिर-सी बात है कि इन महाशय से बंगले और नौकर गाडिय़ों का मोह नहीं छूट रहा था। ऐसे अधिकारी किसी न किसी ढंग से अपनी सेवा विस्तार करा ही लेते हैं। अगर सेवा विस्तार न हो पाए तो वे अपने लिए कोई एक ऐसा पद बनवा लेते हैं जो उन्हें मुख्य मंत्री के करीब ही रखता है। मतलब ये कि रिटायरमैंट के बाद भी अपने पद पर बने रहने का जुगाड़ कर लेते हैं। 

ऐसा नहीं है कि ऐसा लालच केवल नौकरशाही में ही देखा जाता है। पिछले हफ्ते खबर छपी कि राज्यसभा के एक वरिष्ठ सदस्य महोदय से भी दिल्ली के लुटियन जोन का बंगला खाली नहीं हो रहा है। सांसद महोदय ने सुरक्षा कारण बताते हुए बंगला खाली न करने की गुहार दिल्ली उच्च न्यायालय में भी लगा दी। माननीय उच्च न्यायालय ने उनकी दरखास्त को निरस्त करते हुए उन्हें 6 सप्ताह के भीतर अपना बंगला खाली करने के आदेश दे दिए। आपने ठीक पहचाना, इन सांसद महोदय का नाम डा. सुब्रमण्यम स्वामी है। 

राज्यसभा के पूर्व सांसद डा. सुब्रमण्यम स्वामी हमेशा विवादों में रहे हैं। लेकिन सत्ता के गलियारों में इस बात की चर्चा आम है कि मोदी सरकार भी इनके झांसे में आ गई और इन्हें राज्यसभा सांसद बना दिया। चुनावी वादों की तरह डा. स्वामी ने भी भाजपा को एक ऐसा सपना दिखाया जिससे वह स्वामी के कहने में आ गए। उधर स्वामी को जब कोई मंत्री पद नहीं मिला तो उन्होंने अपने वादे पूरा करना तो दूर, मोदी सरकार की नीतियों पर ही सवाल उठा दिए। बस होना क्या था स्वामी भाजपा की सरकार की आंख की किरकिरी बन गए। चूंकि राज्यसभा के सदस्य का निलम्बन कर भाजपा को विपक्ष के प्रहारों को सहना पड़ता शायद इसीलिए मोदी सरकार ने डा. स्वामी को नजरअंदाज करना शुरू कर दिया। मोदी सरकार के मंत्री या भाजपा के वरिष्ठ नेता डा. स्वामी के बयानों पर भी कोई टिप्पणी नहीं करते थे। 

2022 में जब मोदी सरकार ने डा. सुब्रमण्यम स्वामी को राज्यसभा टिकट नहीं दी तो इस बात पर मुहर लग गई कि भाजपा स्वामी से कन्नी काट रही है। राजनीतिक पंडितों द्वारा ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि जिस ‘जैड’ श्रेणी की सुरक्षा का हवाला देते हुए स्वामी अपने सरकारी बंगले को बरकरार रखना चाहते हैं, शायद वह भी हटा ली जाएगी। यदि ऐसा होता है तो स्वामी के पास सरकारी बंगला रखने का बहाना भी नहीं रहेगा। देखना यह है कि जनता के कर के पैसे पर सुरक्षा लेने वाले ऐसे कितने राजनेता हैं जो झूठे वादों के भरोसे बड़े राजनैतिक दलों से जुड़ जाते हैं और बाद में उन्हीं के खिलाफ बयानबाज़ी करते हैं। ऐसे में यदि उन नेताओं को सरकार द्वारा दी गई सुरक्षा और बंगले आदि की सुविधा वापिस ली जाती है तो इन नेताओं का दिल उसे छोडऩे की इजाजत नहीं देता। 

देश हो या विदेश आपको ऐसे अनेकों उदाहरण मिल जाएंगे जहां महत्वपूर्ण सरकारी पद छोड़ते ही अधिकारी या नेता अपने निजी आवास में चले जाते हैं। यह अलग बात है कि पुलिस का दरोगा हो या निम्न स्तर का सरकारी कर्मचारी कभी-कभी उनके निजी मकान उनके आला अधिकारियों से कहीं ज्यादा बड़े और आलीशान होते हैं। जबकि ईमानदारी से कार्य करने वाले वरिष्ठ अधिकारी, जज या नेता प्राय: आपको छोटे से फ्लैैट या अपने पुश्तैनी मकान में ही पाए जाएंगे, किसी पॉश कालोनी के महल में नहीं। इसलिए हमेशा दिल के आगे मजबूर होने से बेहतर है दिमाग की भी सुनें और लोभ न करें।-रजनीश कपूर


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News