उद्धव और शरद पवार के लिए महाराष्ट्र की राजनीति में वापस लौटना कठिन

punjabkesari.in Monday, Nov 25, 2024 - 05:50 AM (IST)

हरियाणा  के बाद महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भी प्रचंड जीत से भाजपा का वह आत्मविश्वास लौट आएगा, जो लोकसभा चुनाव में अकेले दम बहुमत से वंचित रहने पर डगमगाता लग रहा था। दूसरी ओर हाथ आती सत्ता हरियाणा के बाद महाराष्ट्र में भी फिसल जाने के सदमे से उबर पाना विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के लिए आसान नहीं होगा। इन चुनाव परिणामों का मनोवैज्ञानिक असर अगले साल होने वाले दिल्ली और बिहार के विधानसभा चुनावों पर भी पड़ेगा। बिहार में हुए चारों विधानसभा उप-चुनावों में राजग की जीत ‘इंडिया’ के लिए खतरे का ही संकेत है। पंजाब में 4 में से 3 विधानसभा उप-चुनाव जीत लेने को दिल्ली का सैमीफाइनल बता रहे ‘आप’ संयोजक अरविंद केजरीवाल भी जानते हैं कि दिल्ली में सत्ता की जंग इस बार पिछली बार जितनी आसान नहीं होगी। 

लोकसभा चुनाव परिणाम में महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ महायुति पर विपक्षी गठबंधन महा विकास अघाड़ी भारी पड़ता नजर आया था। लोकसभा चुनाव में लगभग एक-तिहाई सीटों पर सिमट जाने के बावजूद महायुति के लिए संतोष की बात थी कि विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त के मामले में फासला ज्यादा नहीं था। मत प्रतिशत में भी ज्यादा अंतर नहीं था। इसीलिए महायुति ने हिम्मत हारे बिना जमीनी, राजनीतिक और चुनावी प्रबंधन की बिसात बिछाई और हारी हुई लग रही बाजी इस तरह पलट दी कि चुनौती देने वाले चेहरे उद्धव ठाकरे को भी कहना पड़ा कि यह तो सुनामी है। अक्सर हार के बाद ई.वी.एम. समेत चुनाव प्रक्रिया पर उंगली उठाने वाले विपक्ष ने फिलहाल तो समीक्षा और आत्मविश्लेषण की बात ही कही है। दरअसल यह विपक्ष के लिए समीक्षा से भी ज्यादा आत्मविश्लेषण की घड़ी है। आखिर कुछ तो कारण हैं कि विपक्ष जीती दिख रही बाजी भी हार जाता है और भाजपा या उसके नेतृत्व वाला गठबंधन हारी हुई दिख रही बाजी भी जीत जाता है।

महाराष्ट्र तो हरियाणा से भी 2 कदम आगे निकल गया। लोकसभा चुनाव में भाजपा की महायुति महाराष्ट्र में 48 में से 17 सीटों पर सिमट गई थी। भाजपा के हिस्से तो मात्र 9 सीटें ही आई थीं। जिस तरह इस बार हरियाणा के साथ ही महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव नहीं करवाए गए तथा लोकसभा चुनावों के बाद से लोक-लुभावन योजनाओं और घोषणाओं की झड़ी लगा दी गई, उससे भी संकेत यही गया कि भाजपा को सत्ता की जंग की मुश्किलों का अहसास है। विधानसभा चुनाव में भाजपा के बाद सबसे बेहतर सफलता दर अजित की राकांपा की ही रही है। पिछली बार उद्धव की शिवसेना से गठबंधन के बावजूद 74 सीटें ही जीत पाई भाजपा ने इस बार 132 सीटें जीत कर सबको चौंका दिया है तो देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस 100 से ज्यादा सीटें लड़कर भी मात्र 15 सीटें ही जीत पाई। 

अजित पवार की पार्टी 53 सीटों पर चुनाव लड़कर 41 सीटें जीतने में सफल रही, जबकि चाचा शरद पवार की पार्टी 82 सीटों पर चुनाव लड़कर मात्र 10 सीटें ही जीत पाई। यह साधारण प्रदर्शन नहीं है, क्योंकि 6 महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में शरद पवार की राकांपा की सफलता दर सबसे बेहतर 80 प्रतिशत रही थी, जबकि अजित की राकांपा की सफलता दर सबसे कम 25 प्रतिशत थी। एकनाथ शिंदे की शिवसेना ने लोकसभा चुनाव में भी अच्छा प्रदर्शन किया था। विधानसभा चुनाव में तो उसने उद्धव ठाकरे की शिवसेना को बहुत पीछे छोड़ दिया है। शिंदे 81 सीटों पर चुनाव लड़ कर 57 सीटें जीतने में सफल हो गए, जबकि उद्धव 97 सीटों पर चुनाव लड़कर 20 सीटें ही जीत पाए। जाहिर है, विभाजन के बाद से जारी असली-नकली शिवसेना और राकांपा विवाद में जनता जनार्दन ने भी अपना फैसला सुना दिया है। 

राजनीति में भविष्यवाणी करना जोखिम भरा काम है, पर उद्धव ठाकरे और शरद पवार के लिए महाराष्ट्र की राजनीति की मुख्यधारा में वापस लौट पाना आसान नहीं होगा। बेशक ये चुनाव परिणाम किसी गठबंधन के सुमेल या बेमेल होने का प्रमाण नहीं माने जा सकते क्योंकि लोकसभा चुनाव में अघाड़ी को मतदाताओं का समर्थन मिला तो विधानसभा चुनाव में महायुति को मिला है। चुनावी मुद्दे कमोवेश समान होने के बावजूद झारखंड में  ‘इंडिया’ गठबंधन की जीत महाराष्ट्र के जनादेश के विश्लेषण को और भी मुश्किल बना देती है। भाजपा की हरसंभव कवायद के बावजूद हेमंत सोरेन के नेतृत्व में झारखंड मुक्ति मोर्चा-कांग्रेस-राजद-वाम दल सरकार को लगातार दूसरी बार जनादेश राजनीतिक दलों और नेताओं की विश्वसनीयता पर भी विचार की जरूरत को रेखांकित करता है।

निश्चय ही महाराष्ट्र और झारखंड के जनादेश का सबसे सकारात्मक पक्ष यह है कि मतदाताओं ने स्थिर सरकार के लिए स्पष्ट जनादेश दिया है। लोक-लुभावन योजनाएं और घोषणाएं मतदाताओं को आकर्षित करने में निश्चय ही सफल रहती हैं, लेकिन जन आकांक्षाओं पर खरा न उतरने पर होने वाली जन प्रतिक्रिया भी बहुत तीव्र होती है।-राज कुमार सिंह 
 


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