यह आवश्यक था कि शिक्षा व्यवस्था में ‘बदलाव’ हो

punjabkesari.in Saturday, Aug 29, 2020 - 03:11 AM (IST)

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। एक ऐसे समय में जब हमारा युवा देश वैश्विक स्तर पर अपनी क्षमताओं को सिद्ध करने के लिए विकासात्मक पहलों को प्राथमिकता दे रहा है, यह आवश्यक हो जाता है कि हम अपनी प्राचीन धरोहर और सांस्कृतिक मूल्यों का समग्रता से अवलोकन करें और मौजूदा यथास्थिति के स्थान पर आधुनिक और भविष्योन्मुखी दृष्टिकोण अपनाएं ताकि भावी पीढियो के कल्याण के लिए मानव संसाधन के उन्नयन को बढ़ावा मिल सके। 

इस बदलते परिदृश्य में, हाल ही में मंजूर की गई नई शिक्षा नीति उल्लेखनीय है क्योंकि यह हमारी जनसांख्यिकी क्षमता को सर्वोत्तम तरीके से सशक्त करने के लिए अत्यंत आवश्यक थी। 21वीं सदी में नेतृत्वकारी भूमिका में बने रहने के लिए आवश्यक था कि शिक्षा व्यवस्था में बदलाव हो। 

आजादी के बाद सरकारों ने शिक्षा व्यवस्था को औपनिवेशिक प्रभाव से मुक्त करने के लिए कई प्रयास किए। 1948-49 में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग, 1952-53 में माध्यमिक शिक्षा आयोग, 1964-66 में डी.एस. कोठारी आयोग तथा 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनाई गई। 1976 में, 42वें संविधान संशोधन के जरिए शिक्षा को समवर्ती सूची में शामिल किया गया। जनप्रिय राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने मूल्य-आधारित ऐसी शिक्षा प्रणाली पर बल दिया था जो युवावस्था में ही न्यायपरायणता की भावना भर दे ताकि भारत को खुशहाल, शांतिपूर्ण, सुरक्षित, प्रसन्नचित और विकसित राष्ट्र बनाने के लिए हमारे नागरिक सुसंस्कृत, चरित्रवान, सक्षम और कुशल नागरिक के रूप में विकसित हो सकें। 

वर्तमान में लागू राष्ट्रीय शिक्षा नीति 34 वर्ष पहले (1986) तैयार की गई थी और इनमें पिछला संशोधन हुए भी 28 वर्ष हो चुके हैं। कई प्रयासों और परिवर्तनकारी आधुनिक प्रौद्योगिकी चालित इस जटिल विश्व में नए भारत की आकांक्षा को पूरा करने के लिए अधिक उपयुक्त कार्यनीति को अपनाना आवश्यक हो गया था। प्रारंभ में कैबिनेट पूर्व सचिव स्वर्गीय टी.एस.आर. सुब्रह्मण्यन और बाद में जाने-माने वैज्ञानिक डा. के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली समिति ने जनवरी 2015 से ही, इसके लिए अभूतपूर्व स्तर पर सहयोगात्मक, समावेशी और सहभागितापूर्ण परामर्श किए जिनमें लगभग अढ़ाई लाख पंचायतों, 6600 प्रखंडों, 6000 यू.एल.बी. और 676 जिलों से लगभग दो लाख  सुझाव प्राप्त हुए और इन्हीं प्रयासों के फलस्वरूप ही 21वीं सदी के भारत की मांग के अनुरूप नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 तैयार हो सकी।

यह नई शिक्षा नीति एक महत्वाकांक्षी और भविष्योन्मुखी नीति है जो यह सुनिश्चित करती है कि पुरानी शिक्षा व्यवस्था की जड़ता टूटे और हर बच्चे को अपनी सर्वोत्तम प्रतिभा के अनुरूप विकसित होने का अवसर मिले। बुनियादी शिक्षा के महत्व को स्वीकार करते हुए ही 10+2 प्रणाली के स्थान पर 5+3+3+4 प्रणाली को अपनाया गया है जिसमें बुनियादी, प्रारंभिक, माध्यमिक और सैकंडरी चरण में बच्चों के समग्र विकास पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। 

विश्षलेण, सम्यक चिंतन, अवधारणात्मक स्पष्टता, सहायक पाठ्य सामग्री और खेलकूद, कला, वाणिज्य तथा विज्ञान जैसे पेशेवर विषयों पर बल देने से शिक्षा में विविधता आएगी। इसमें सबके लिए विद्यालय शिक्षा की पूर्ण सुलभता की गारंटी होगी और यह प्रस्ताव भी किया गया है कि विद्यालय नहीं जा रहे लगभग दो करोड़ बच्चों को नई शिक्षा नीति के तहत मुख्यधारा की शिक्षा प्रणाली में शामिल किया जाएगा। 

विद्यालयी पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धति में प्रस्तावित सुधार, शिक्षक भर्ती के लिए सशक्त और पारदर्शी प्रक्रिया, योग्यता-आधारित पदोन्नति और राष्ट्रीय पेशेवर शिक्षक मानकों के विकास, लैंगिक समावेशन कोष के गठन और वंचित क्षेत्र तथा समूह के लिए विशेष आर्थिक जोनों से शिक्षा व्यवस्था समग्र रूप से मजबूत होगी। परख (समग्र विकास के लिए निष्पादन आकलन, समीक्षा और ज्ञान का विश्षलेण) जैसा बदलाव इसलिए लाया गया है ताकि मूल्यांकन का तौर-तरीका बदले और देश भर के शिक्षा बोर्डों का मानकीकरण हो।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कुशल नेतृत्व में यह सुविचारित और भविष्योन्मुखी दस्तावेज 21वीं सदी में भारत को ज्ञान के क्षेत्र में महाशक्ति बनाने की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा। मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदलकर फिर से शिक्षा मंत्रालय करने से भी सभी पक्षों को नए शिक्षा पारितंत्र को अपनाने के लिए एक नया दृष्टिकोण मिला है। नई शिक्षा नीति-2020 का सबने स्वागत किया है और हमारे शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक तथा उनके सहयोगी इसके अक्षरश: पालन के लिए हरसंभव प्रयास कर रहे हैं।-अर्जुन राम मेघवाल(भारी उद्योग एवं संसदीय कार्य मंत्री)


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