‘लंगर’ के नाम पर ‘दान’ की मांग करना उचित नहीं

punjabkesari.in Thursday, Jul 09, 2020 - 03:44 AM (IST)

इन्हीं  दिनों दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की ओर से ‘दिल से सेवा-फीडिंग मिलियन’ कार्यक्रम ‘दान देने  के लिए हम से सम्पर्क करें’ के उद्देश्य से एक टी.वी. चैनल पर ‘स्पांसर’ करवाया गया जिससे यह सवाल उभर कर सामने आ गया कि ‘लंगर के नाम पर जो सेवा’ की गई है अथवा की जा रही है उसके  नाम पर ‘दान’ की मांग करना क्या सिख धर्म की मान्यताओं के अनुकूल है? इस सवाल का जवाब तलाशने से पहले आवश्यक है कि हम ‘सिख धर्म में लंगर की परम्परा और उसके महत्व’ के संबंध में जान लें। 

सिख धर्म में लंगर : जहां तक गुरु घर में प्रचलित लंगर की परम्परा अथवा मर्यादा की बात  है उसके संबंध में यह जान लेना लाजिमी है कि सिख  धर्म में लंगर के दो स्वरूपों को स्वीकार किया गया है। पहला तो वह जो सिख धर्म में लंगर की आरंभता के रूप में माना जाता है वह श्री गुरु नानक देव जी द्वारा ‘सच्चा सौदा’ किया जाना है जिसका उद्देश्य भूखे साधुओं की केवल भूख मिटाना अथवा उनकी जरूरतों को ही पूरा करना नहीं था, अपितु उन्हें यह भी समझाना था कि घर-गृहस्थी का त्याग करने और भूखे नंगे रह, न तो संसार में आने के उद्देश्य को पूरा किया जा सकता है और न ही प्रभु-परमात्मा को पाया जा सकता है। गुरु साहिब का मानना था कि पहले गृहस्थ जीवन का त्याग करना और फिर अपनी भूख-नंग को मिटाने और अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए, उन गृहस्थियों के दरवाजे को आ खटखटाना, जो मेहनत-मजदूरी कर, खून-पसीना बहा, अपने गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियों को पूरा कर रहे हैं, न तो उचित है और न ही शोभा देता है। इस प्रकार गुरु साहिब ने उन्हें गृहस्थ जीवन का महत्व समझाया। 

इसी प्रकार लंगर का जो दूसरा स्वरूप सिख धर्म में स्वीकार किया गया है, उसके संबंध में यदि गुरु-इतिहास को गंभीरता से विचारा और समझा जाए तो यह बात स्पष्ट रूप से उभर  कर सामने आ जाएगी कि गुरु साहिब ने यह मर्यादा केवल गरीबों और भूखों की भूख मिटाने और उनकी अन्य जरूरत को ही पूरा करने के लिए नहीं आरंभ की। अपितु उनकी ओर से इसे आरंभ किए जाने का मुख्य उद्देश्य देश-वासियों के बीच खड़ी की  हुई ऊंच-नीच और अमीर-गरीब की दीवारों को मिटाना और समानता को बढ़ावा देना था। यही कारण था कि गुरु घर में ‘पहले पंगत पाछे संगत’ की परम्परा स्थापित की गई, अर्थात जिसने गुरु साहिब के दर्शन करने हों, उसे पहले लंगर की पंगत में, चाहे कोई ऊंची जाति का हो, चाहे छोटी जाति का, चाहे गरीब हो या अमीर, सभी के साथ बैठ, लंगर छकना होता था। इस प्रकार लंगर छकने के बाद ही वह गुरु साहिब के दर्शन कर पाता था। 

इस परम्परा को स्थापित करने का उद्देश्य मनुष्य-मात्र में पैदा की गई बड़प्पन की और हीन-भावना को खत्म कर, समानता को उत्साहित करना था। इतिहास गवाह है कि शहंशाह अकबर को भी गुरु साहिब के दर्शन करने से पहले इस परम्परा का पालन करना पड़ा था। यह बात भी बहुत कम लोग जानते हैं कि इसी परम्परा के चलते ही श्री दरबार साहिब के दर्शनों के लिए मुख्य ड्योढ़ी पार करने से पहले श्री गुरु रामदास जी के लंगर की स्थापना की गई है। जहां दरबार साहिब के दर्शनों से पहले श्रद्धालुओं को लंगर छकना होता है। यहां यह बात भी ध्यान में रखने वाली है कि ‘नाम सिमरन’ करते हुए लंगर किसी भी स्थान पर तैयार किया  और बांटा जा सकता है। इस उद्देश्य के लिए कोई विशेष स्थान निश्चित नहीं।  शर्त मात्र यही है कि लंगर पंगत में बैठ कर ही छका जाए। 

जहां तक भूखे और जरूरतमंद लोगों को बिना पंगत में बिठाए खाना खिलाए अथवा उन तक खाना पहुंचाए जाने का संबंध है, वह सिख धर्म में प्रचलित ‘सेवा’ की परम्परा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसका पालन किया जाना बहुत ही प्रशंसनीय माना जाता है परन्तु जब ‘सेवा’  के बदले उसके ‘मोल’ के रूप में ‘दान’ की मांग कर ली जाती है, तो ‘सेवा’ ‘सेवा’ न रह, एक ‘सौदा’ बन जाती है। मतलब यह है कि आपने गरीब/जरूरतमंद को खाना खिलाया और उसके बदले दूसरे लोगों से ‘दान’ ले, उसका ‘मोल’ वसूल कर लिया, तो इससे ‘सेवा’ जैसे पवित्र कार्य पर ‘ग्रहण’ लग गया। इस दृष्टि से इस कार्यक्रम ‘दिल से सेवा’ में जिस ‘सेवा’ का सेहरा अपने सिर पर बांधने की कोशिश की गई, वह उस समय ‘सेवा’ न रह ‘सौदा’  बन कर रह गई, जब इसका प्रचार करते हुए इसके बदले ‘दान’ की मांग कर, करोड़ों रुपए इकट्ठे कर लिए गए।

क्या यह सच है? : इन्हीं दिनों आम सिखों में चल रही यह चर्चा सुनने को मिल रही है कि दिल्ली गुरुद्वारा कमेटी के मुखियों ने अपने प्रबंधाधीन चल रहीं शैक्षणिक संस्थाओं के स्टाफ से कहा है कि वे उनके बकाए अदा कर पाने की स्थिति में नहीं हैं, उन्हें जो करना है कर लें। बताया गया है कि एक पदाधिकारी ने तो उन्हें  यहां तक कह दिया कि यदि वे चाहें तो दिल्ली सरकार को इन संस्थाओं को अपने हाथों में लेने को कह सकते हैं। वह उनकी इस मांग को मनवाने में पूरा-पूरा सहयोग करने को भी तैयार है। यदि यह बात सच है तो यह बहुत ही बदकिस्मती वाली बात है। इससे तो ऐसा  लगता है कि जैसे गुरुद्वारा कमेटी के मुखी इन संस्थाओं को चला पाने के मामले पर अपने हाथ खड़े कर रहे हैं और साथ ही इन्हें सरकारी हाथों में सौंपे जाने की जिम्मेदारी स्वयं लेने से बचने के लिए, स्टाफ को बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। यहां यह बात याद रखने वाली है कि पहले जब इन संस्थाओं को दूसरे हाथों में दिए जाने की बात चली थी तो ‘जागो’ पार्टी के मुखी मनजीत सिंह जी.के. और गुरुद्वारा कमेटी की कार्यकारिणी के सदस्य परमजीत  सिंह राणा ने इसका तीव्र विरोध करते हुए था कि वे किसी भी कीमत पर इन्हें  कमेटी के हाथों से नहीं निकलने देंगे, इसके साथ ही सरना-बंधुओं ने इन्हें स्वयं संभालने और इनका मूल गौरव बहाल करने की पेशकश की थी। 

...और अंत में... बताया गया है कि सेवापंथी बाबा सुरिन्द्र सिंह (कारसेवा), जिन्हें दिल्ली गुरुद्वारा कमेटी ने बाला साहिब अस्पताल को चलाने की जिम्मेदारी सौंपी है, ने कहा कि सरना-बंधुओं ने जिस प्रकार कोलैब्रेशन द्वारा इस अस्पताल को चलाने की योजना बनाई थी, यदि उसमें बादल अकाली दल द्वारा रुकावटें पैदा न की गई होतीं, तो आज कोरोना वायरस की महामारी के दौरान यह अस्पताल न केवल मानवता की सेवा में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा रहा होता, अपितु इसके साथ ही इससे गुरुद्वारा कमेटी को लाखों की स्थायी आय भी हो रही होती।-न काहू से दोस्ती न काहू से बैर जसवंत सिंह ‘अजीत’
 


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