धर्म से नहीं, जातिवादी सोच से निकली ‘नफरत’ को समाप्त करना जरूरी

Saturday, Jul 27, 2019 - 03:24 AM (IST)

जहां यह हमारा दुर्भाग्य था कि शताब्दियों तक हम दासता की बेडिय़ों में जकड़े रहे, वहां उससे भी बड़ी बदकिस्मती यह रही कि आजाद होने के बाद हमने उस जातिवादी सोच को ही अपनाया जिसे अंग्रेजों ने भारत पर शासन के लिए इस्तेमाल किया था। यह सोच थी ‘फूट डालो और राज करो’ क्योंकि इसके बिना किसी विदेशी की ताकत नहीं थी कि वह हमारे जैसे प्राचीन संस्कृति और सभ्यता वाले देश पर राज कर सकता।

इनटोलरैंस बनाम असहिष्णुता
जहां तक हिन्दू धर्म का संबंध है, यह अपने आप में इतना व्यापक है कि वह सबको साथ लेकर चलने और समान भाव से एक-दूसरे के साथ व्यवहार करने के सिद्धांत पर आधारित होने से धर्म से भी अधिक एक जीवनशैली की तरह प्रतिपादित हो चुका है। जो लोग इसके असहिष्णु होने की बात करते हैं और इसके प्रतीकों को अपमानित करने और तिरस्कार करने तक से नहीं चूकते वे अधिकतर इस धर्म में ही जन्मे हैं। दुनिया के किसी भी धर्म में इस तरह की छूट नहीं है कि उसमें रहते हुए उसके खिलाफ बोलते रहें और आपको इसके लिए दंड भी न मिले। 

यह हिन्दू धर्म की सहिष्णुता ही है कि संसद में लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान एक महिला श्रीमती रमा देवी से समाजवादी पार्टी के सांसद आजम खान, उनके यह कहने पर कि उन्हें जो कहना है वह उनकी तरफ मतलब अध्यक्ष की कुर्सी की ओर देखकर कहें, की हिम्मत यह कहने की नहीं होती कि ‘मैं तो आपकी आंखों में आंखें डालकर बैठे रहना चाहता हूं’ और इसके लिए संसद के अनेक सदस्यों द्वारा इसके लिए क्षमा मांगने को कहने पर भी वह निर्लज्जता से मुस्कुराते नहीं रहते। इस तरह की घटनाओं को सहिष्णुता बनाम छिछोरापन कहेंगे या कुछ और? जब यह व्यवहार गली-मोहल्ले और बीच सड़क पर होता है और इसके विरोध में मारपीट हो जाती है तो असहिष्णुता का जामा पहना कर बवाल पैदा करने की कोशिश की जाती है। और यह क्या बात हुई कि जय श्रीराम कहने पर उसे लिंचिंग तक पहुंचा दिया जाए जबकि गांव-देहात हो या शहर और महानगर, आज भी एक-दूसरे को अभिवादन करने के लिए राम-राम कहते हैं। 

हिंदुओं को वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत उनके काम और जीवनयापन के लिए अपनाए गए कर्म के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र की श्रेणी में रखने का अर्थ यह नहीं था कि उनमें कोई ऊंच-नीच या बड़े-छोटे होने की व्यवस्था थी, बल्कि यह था कि समाज में वेदपाठी और ज्ञानी ब्राह्मण हों, रक्षा करने के लिए क्षत्रिय हों, व्यापार के लिए वैश्य और सेवक के रूप में शूद्र भी हों। जिसको जो ठीक लगे और उसमें उस काम को करने की योग्यता हो वह अपना ले और उसी के अनुसार उसका वर्ण निर्धारित हो जाए।

अब हुआ यह कि इस वर्ण व्यवस्था से अंग्रेजों को फूट डालने के लिए ङ्क्षहदुओं के विभिन्न वर्णों को आपस में लड़ाने और धर्म के आधार पर मुस्लिमों से लड़वाकर राज करने का आसान नुस्खा मिल गया। इसका नतीजा क्या हुआ? बंटवारा और कत्ल-ए-आम, जिसका दंश आज तक कायम है। आजादी के बाद इसी जातिवादी और धार्मिक कट्टरपंथ को बढ़ावा देने के लिए संविधान के अनुच्छेद पंद्रह का मजाक बना दिया गया जिसमें सबको बराबरी का हक दिया गया है। इस अनुच्छेद की अवमानना के लिए देश में अनेक प्रकार के आरक्षणों का प्रावधान किया जाने लगा। 

देश की राष्ट्रवादी पार्टी कांग्रेस परिवारवादी दल बनने की ओर चल पड़ी, इसी की देखादेखी देश में ऐसे दलों का उभरना शुरू हो गया जो मूल रूप से एक परिवार पर केन्द्रित थे और कांग्रेस की तरह देश के संसाधनों पर कब्जा करने लगे। ये सब करने के लिए मोहरे के रूप में आरक्षण की चपेट में आईं वे जातियां थीं, जिन्हें गरीबी में रखने से ही इन परिवारवादी पाॢटयों की खुशहाली पक्की हो सकती थी। चाहे कांशीराम और मायावती की बहुजन समाज पार्टी हो, मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी हो या लालू यादव की आर.जे.डी. हो अथवा दक्षिण भारत के अनेक परिवारवादी दल हों, सब जातिगत वोट बैंक के आधार पर सत्ता कब्जियाने में सफल होते रहे। देश के विकास की फिक्र कम और अपनी ताकत बढ़ाने की नीतियां गरीब को और अधिक गरीब बनाती गईं। रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के साथ सरकारी खजाने की लूट-खसूट का दौर देश को रसातल में ले जाने लगा। 

ऐसे में साम्प्रदायिक कही जाने वाली भारतीय जनसंघ और अब भारतीय जनता पार्टी अपनी राष्ट्रवादी छवि बनाने में कामयाब हो गई। जनता तो त्रस्त थी ही, उसने बाकी सभी दलों को एक के बाद एक नकारना शुरू कर दिया और भाजपा के सभी दोषों को भुलाकर अपना लिया।

लोगों को बांट कर अपना उल्लू सीधा करना
यह विडम्बना ही है कि भारत जैसे विशाल देश में कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा जाति के आधार पर लोगों को बांटने और अपना उल्लू सीधा करने का आसान नुस्खा जाति पर आधारित आरक्षण व्यवस्था में मिल गया। उन्होंने इसका जमकर फायदा उठाया और अब तक उठा रहे हैं। होना यह चाहिए था कि केवल गरीबी और पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण होना चाहिए था। अब जातिगत आधार पर किए गए आरक्षण को खत्म करने और गरीबी को आरक्षण का पैमाना बनाने की बात करते ही ये स्वार्थी लोग सक्रिय हो जाते हैं और हिंसा तक पर उतारू हो जाते हैं। हकीकत यह कि आरक्षण ने जातियों में छोटा और बड़ा होने की भावना इतनी भर दी है कि वे एक-दूसरे के साथ ही अछूत होने का व्यवहार करते हैं। 

इस दिशा में एक सराहनीय पहल जातिग्रस्त होने के लिए मशहूर हरियाणा के कुछ जिलों की खाप पंचायतों ने अपने नाम के आगे जाति न लिखने से की है। यह एक अच्छी पहल है लेकिन इतने से ही काम चलने वाला नहीं। जब तक शिक्षा और नौकरी पाने के लिए जाति पूछी जाती रहेगी तब तक जातिवाद के चंगुल से बाहर निकलना असम्भव है। जातिवाद की रोटियां सेंकने वाले दलों की आधी कमर उसी दिन टूट जाएगी जिस दिन जाति के आधार पर लोगों को बांटने और नफरत रूपी जहर फैलाने के उनके सभी विकल्प समाप्त हो जाएंगे। इसके लिए सामाजिक जागरूकता की जरूरत है। यह सोचने की भी आवश्यकता है कि जातियों को आपस में लड़वाकर फायदा किसका हो रहा है, जिस दिन यह समझ में आ जाएगा तो जातिवाद की राजनीति करने वालों की पूरी कमर टूट जाएगी। सरकार की भूमिका केवल इतनी होनी चाहिए कि वह कानून व्यवस्था को न बिगडऩे दे और दोषियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने से न चूके।-पूरन चंद सरीन
 

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