कश्मीरी युवाओं की ‘आशाएं-आकांक्षाएं’ समझना जरूरी

Friday, Aug 14, 2020 - 03:24 AM (IST)

कश्मीर की तेजी से बदलती राजनीति में कभी भी निष्क्रिय पल नहीं रहा। नौकरशाह से राजनीतिज्ञ बने शाह फैसल के राजनीति छोडऩे के बाद स्थिति में नया बदलाव आने की संभावना है। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने कहा है कि जिस तरह से उन पर ‘राष्ट्रविरोधी’ का ठप्पा लगाया गया उससे उन्हें ‘गहरी चोट’ पहुंची है। 

जम्मू एंड कश्मीर पीपुल्स मूवमैंट के नेता फैसल कोई सामान्य व्यक्ति नहीं हैं। वह पहले कश्मीरी थे जिन्होंने 2010 में सिविल सर्विसिज परीक्षा में टॉप किया था। एक वर्ष से अधिक समय पहले उन्होंने सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया था, संभवत: कश्मीर की गंदी राजनीति को लोक हितैषी एवं विकासवादी दिशा देने के लिए। यद्यपि ऐसा नहीं होना था। केंद्र द्वारा धारा 370 को समाप्त करने तथा राज्य को केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने के लिए 2 विधेयक पारित करने के बाद 14 अगस्त 2019 को उन्हें दिल्ली हवाई अड्डे पर हिरासत में ले लिया गया था। जून 2018 से जम्मू-कश्मीर केंद्रीय शासन के अंतर्गत है।

धारा 370 समाप्त करने के एक वर्ष से अधिक समय के बाद भी जम्मू-कश्मीर में स्थिति डांवाडोल बनी हुई है। केंद्रीय नेताओं द्वारा नया कश्मीर के लिए आशा जताए जाने के बावजूद कोई विश्वस्त नहीं है कि कल क्या होगा? वर्तमान पंगु माहौल तथा बहुप्रतीक्षित राजनीतिक प्रतिक्रिया के अभाव में कोई भी सुनिश्चित नहीं हो सकता कि वास्तव में लोगों का प्रतिनिधित्व कौन कर रहा है? 

एक केंद्र शासित प्रदेश के तौर पर गत एक वर्ष के दौरान भाजपा नेता मनोज सिन्हा के रूप में कश्मीर को तीसरा उप राज्यपाल मिला है। मैं जानता हूं कि सत्ताधारी पार्टी अपना खुद का राजनीतिक एजैंडा आगे बढ़ाने के लिए उत्सुक है। यद्यपि अतीत के घटनाक्रम हमें बताते हैं कि महज गवर्नरों या उप राज्यपालों अथवा सत्ता के दलालों को बदलने से कोई नीति या रणनीति नहीं बनती। अच्छी तरह से केंन्द्रित नीतियों के अभाव में यह सामान्य की तरह महज गंदी राजनीति है। 

जहां तक सत्ता के पंडितों की बात है, जिन्हें केंद्र में कश्मीरी मामलों का कार्य सौंपा गया है, वे बदलती जमीनी हकीकतों के बारे में अनजान दिखाई देते हैं, विशेष कर युवा कश्मीरियों की आशाओं तथा आकांक्षाओं को लेकर।  सोच तथा कार्रवाइयों में वही पुराना ढर्रा सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्तियों की विश्वसनीयता में वृद्धि नहीं करता। यदि मोदी शासनकाल में भी कश्मीर एक समस्या बना हुआ है तो  इसका मुख्य कारण यह है कि शीर्ष केंद्रीय नेता अभी भी अपनी ख्याली दुनिया में रहना पसंद करते हैं। 

गत कुछ महीनों के दौरान उन्होंने कुछ चुनिंदा मुख्यधारा राजनीतिज्ञों को हिरासत से आजाद किया है, कुछ विशेष शर्तों के साथ। यह उस राजनीतिक प्रक्रिया के प्रति आधे-अधूरे मन से की गई कार्रवाई है जिसके बारे में मोदी सरकार आमतौर पर बात करती रहती है। फारुख अब्दुल्ला तथा उनके बेटे उमर अब्दुल्ला तकनीकी रूप से आजाद हैं लेकिन उन्होंने एक तरह से चुप्पी धारण कर रखी है क्योंकि जम्मू-कश्मीर प्रशासन उन्हें राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं देखना चाहता, यदि वे आधिकारिक कदमों का अनुसरण करने को तैयार नहीं होते। 

कांग्रेसी नेता सैफुद्दीन सोज का कहना है कि यदि वह आजाद हैं तो क्यों उन्हें जहां वह जाना चाहें वहां जाने से रोका जाता है। पीपुल्स कांफ्रैंस के चेयरमैन सज्जाद लोन को 31 जुलाई को घर में नजरबंदी से आजाद कर दिया गया था लेकिन उनकी पार्टी का कहना है कि वह ‘बाहर नहीं जा सकते।’ इस पेचीदा व्यवस्था के बीच पूर्व मुख्यमंत्री एवं पी.डी.पी. प्रमुख महबूबा मुफ्ती नागरिक सुरक्षा कानून (पी.एस.ए.) के अंतर्गत लगातार हिरासत में हैं। वह एकमात्र प्रमुख राजनीतिज्ञ हैं जो अभी भी पी.एस.ए. के अंतर्गत हिरासत में हैं। 

मैं यह कहना चाहता हूं कि कश्मीर में तब तक सामान्य स्थितियां बहाल नहीं की जा सकतीं जब तक कि राजनेताओं को लोगों के बीच घुलने-मिलने तथा बोलने की उचित स्वतंत्रता नहीं दी जाती। केंद्र के सामने एक अन्य महत्वपूर्ण चुनौती है कश्मीर के साथ-साथ जम्मू के लिए राज्य का दर्जा बहाल करना।  लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेश बने रहने में कोई समस्या नहीं है।

मेरी प्रमुख ङ्क्षचता यह है कि क्या मनोज सिन्हा जैसे अनुभवी राजनीतिज्ञ को वहां भेजने से कश्मीरी नेताओं के साथ बातचीत शुरू करने के मामले में कोई अंतर आएगा? मैंने अपनी आशाओं को जीवित रखा है। इसके लिए मेरा मानना है कि आंतरिक तौर पर कश्मीर की समस्या से निपटने के लिए जबरन थोपी गई चुप्पी कोई सही उत्तर नहीं है।  मैं समझता हूं कि धारा 370 खत्म करने की पहली वर्षगांठ के अवसर पर जम्मू-कश्मीर में कड़ी सुरक्षा लगाई गई। मैं केंद्र के इस कदम का समर्थन करता हूं लेकिन मैं नैशनल कांफ्रैंस के अध्यक्ष फारुख अब्दुल्ला द्वारा अपने घर पर बुलाई गई एक सर्वदलीय बैठक को पुलिस द्वारा अवरुद्ध किए जाने का समर्थन नहीं करता। 

हमें कतई नहीं भूलना चाहिए कि किसी समय फारुख अब्दुल्ला अंतर्राष्ट्रीय  मंच पर ‘भारत का चेहरा’ थे। यह मानने के पीछे कोई कारण नहीं कि वह भारत के मूल हितों के खिलाफ जाएगा। कश्मीर में हालिया घटनाक्रम को लेकर उनका अपना नजरिया हो सकता है मगर भाजपा नेताओं को उन्हें सुनना चाहिए। वे अकेले अपने बलबूते पर कश्मीर की समस्याओं को नहीं सुलझा सकते।वैश्विक स्तर पर भारत की सबसे बड़ी पूंजी इसका लोकतांत्रिक ढांचा है। अत: केंद्रीय नेताओं को लोकतंत्र की भावना का अनुसरण करना चाहिए और वह भी मानवीय छुअन के साथ क्योंकि हमारा अंतिम उद्देश्य कश्मीर के लोगों के दिल जीतना है। इस संदर्भ में हमें हमेशा यह याद रखना चाहिए कि केवल शब्दाडंबर अच्छी तरह से केन्द्रित राष्ट्रीय लक्ष्यों तथा शीर्ष पर बैठे लोगों की राजनीतिक इच्छा शक्ति द्वारा समर्थित हितों का स्थान नहीं ले सकते। 

इस बात की भी सराहना किए जाने की जरूरत है कि अतीत की ऐतिहासिक गलतियों से ही सबक लेकर उन्हें सुधारा जा सकता है न कि उन्हें दोहराया जाए। किसी भी अन्य चीज के अलावा  मुझे कश्मीर की आंतरिक समस्याओं से निपटने के लिए एक अच्छी तरह से सुयोजित तथा व्यवस्थित तरीके के साथ देश के नेतृत्व के लिए एक अन्य अवसर दिखाई देता है। पहला, उप राज्यपाल मनोज सिन्हा की पहली प्राथमिकता कश्मीरी समाज के सभी स्तरों पर एक उचित संचार प्रक्रिया के माध्यम से कश्मीर हाऊस को व्यवस्थित करना होनी चाहिए। यह एक उपयुक्त सरकार तथा लोगों को साफ तथा पारदर्शी प्रशासन देने का आह्वान करता है। 

दूसरा, एक समयबद्ध विकास-उन्मुख रणनीति तथा कार्य योजना को प्राथमिक आधार पर नए सिरे से शुरू करने की जरूरत है। तीसरा, कश्मीर में आॢथक विकास में बढ़ौतरी करने के लिए युवाओं के लिए नौकरियां पैदा करना जरूरी है। बेरोजगारी की समस्या सबसे बड़ा अभिशाप है जो आतंकवाद के लिए एक तैयार मसाला है। चौथा, समय-समय पर परखी गई सूफीवाद तथा धर्मनिरपेक्ष परम्पराओं  के आधार पर कश्मीरी समाज को फिर से बनाने के लिए एक राजनीतिक-प्रशासनिक प्रणाली का पूर्ण पुनर्गठन करने की जरूरत है।

पांचवां, संदिग्ध उद्देश्यों के लिए विदेशी धन के प्रवाह पर नियंत्रण लगाने के लिए एक व्यापक समीक्षा जरूरी है।  छठा, सभी राजनीतिक समूहों के साथ बातचीत की प्रक्रिया एक निरंतर अभ्यास होनी चाहिए। दरअसल कश्मीर के भाग्य का समझदारीपूर्वक मार्गदर्शन होना चाहिए। सातवां, कश्मीरी मामलों से संबंधित नेताओं को एक अति सक्रिय नीति न केवल शाब्दिक तौर पर बल्कि जमीनी स्तर पर भी चलानी चाहिए। 

आठवां, कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी के लिए ठोस प्रयासों की जरूरत है। वे कश्मीर की धर्मनिरपेक्ष नीति तथा इसकी उदार परम्पराओं का एक आधारभूत हिस्सा बनाते हैं। अंतत:, सरकार का मुख्य उद्देश्य कश्मीर को भारत गणतंत्र का एक जीवंत स्वर्ग बनाना है। वर्तमान उथल-पुथल वाली स्थिति में केंद्र की कश्मीर नीति में सफलता केंद्रीय तथा राज्य के नेताओं की राजनीतिक इच्छा शक्ति पर निर्भर करती है। उन्हें नया कश्मीर के लिए दृढ़तापूर्वक, निर्णयपूर्वक तथा क्रूरतापूर्वक काम करना होगा। 

जो स्थिति है, ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस (ए.पी.एच.सी.) के 91 वर्षीय पाकिस्तानी समर्थक नेता ने इस विघटन समर्थक संगठन को छोड़ दिया है। ए.पी.एच.सी. आज बंटी दिखाई देती है। जहां तक आतंकवादियों की बात है, वे पाकिस्तान की आई.एस.आई. के समर्थन से बंदूकों के साथ खेलना जारी रखे हुए हैं। हालांकि यहां सुरक्षाबलों द्वारा निभाई जाने वाली अत्यंत सक्रिय भूमिका को याद रखने की जरूरत है। हालिया महीनों के दौरान बड़ी संख्या में आतंकवादियों का सफाया कर दिया गया है।-हरि जयसिंह

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