इसराईल-हमास युद्ध और दोहरा मापदंड

Thursday, Jan 18, 2024 - 05:30 AM (IST)

इसराईल-हमास युद्ध को 100 दिन से अधिक हो गए हैं। यह युद्ध अभी तक हजारों जिंदगियों को लील चुका है, तो गाजा-पट्टी का आधा हिस्सा इसराईली बमबारी से मलबे में तबदील हो गया है। इसराईल और फिलिस्तीन के असंख्य नागरिकों के खिलाफ हो रहा अत्याचार रुकने का नाम नहीं ले रहा है। इस मानवीय त्रासदी के लिए कौन जिम्मेदार है? इसराईल या हमास (इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन) रूपी फिलिस्तान समर्थित संगठन? 

हमास, दुनिया के कई देशों द्वारा घोषित आतंकवादी संगठन है परंतु एक वैश्विक वर्ग, जोकि वाम-उदारवादियों और मुस्लिम कट्टरपंथियों का एक समूह है वह प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से इसराईल पर हमला करने वाले हमास के प्रति सहानुभूति रख रहा है। उनके लिए दुनिया का एकमात्र यहूदी राष्ट्र इसराईल ही दोषी है। इसे पूर्वाग्रह की पराकाष्ठा कहेंगे कि इसराईल में जिस तरह दानवी कृत हमास के जिहादियों ने किया, जिसमें उन्होंने पालने में सोते ढेरों मासूम बच्चों की गला रेतकर हत्या तक कर दी या उन्हें जीवित जला दिया। उसके समर्थन में इस कुनबे द्वारा नरेटिव बनाया जा रहा है कि हमास का हमला ‘फिलिस्तीन पर जबरन इसराईली कब्जे’ का बदला है, जबकि प्रतिकार स्वरूप सैन्य कार्रवाई कर रहा इसराईल हजारों फिलिस्तीनियों का दमन कर रहा है। यदि ऐसा है, तो यह कुनबा ‘ब्लैक सितंबर’ के बारे में क्या कहेगा? 

इसराईल के पड़ोस में जॉर्डन नामक इस्लामी राष्ट्र है, जिसके शासक राजा अब्दुल्ला-2 शाही हाशमाइट साम्राज्य (1946 से अबतक) से है, जिसे पैगंबर मोहम्मद साहब का प्रत्यक्ष वंशज माना जाता है। बात वर्ष 1967 की है। उस समय इसराईल के खिलाफ हुए 6 दिवसीय मजहबी युद्ध में मिस्र, जॉर्डन और सीरिया की प्रचंड पराजय हुई थी। तब लाखों फिलिस्तीनियों को जॉर्डन के तत्कालीन साम्राज्य राजा हुसैन ने शरण दी। इसी कालखंड में ‘फिलिस्तीन मुक्ति संगठन’ (पी.एल.ओ.) के सहयोग से ‘फतह’, ‘फिदायीन’ और ‘पी.एफ.एल.पी.’ नामक समूहों का गठन भी हो चुका था, जो यहूदी राष्ट्र इसराईल को दुनिया से मिटाने हेतु जॉर्डन में अपनी शक्ति बढ़ाने लगे। अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए वे प्रत्येक अंतराल पर इसराईली ठिकानों पर हमला करते। इससे उनकी लोकप्रियता अरब देशों में काफी बढऩे लगी। उस समय पी.एल.ओ. का मुख्यालय जॉर्डन के अम्मान में था। 

इसी बीच मिस्र ने 1969 में इसराईल पर फिर हमला कर दिया, जिसमें जॉर्डन से संचालित ‘पी.एल.ओ.’, ‘फतह’, ‘फिदायीन’ और ‘पी.एफ.एल.पी.’ ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। तब मिस्र-जॉर्डन-इसराईल के बीच 1970 में अमरीका के कूटनीतिक ‘रॉजर प्लान’ से युद्ध विराम हुआ। इससे नाराज पी.एल.ओ. ने हाशमाइट सम्राट हुसैन को चुनौती दी, जिस जॉर्डन ने उन्हें शरण दी, उसपर कई हमले किए और उसमें ही अलग ‘फिलिस्तीन’ राष्ट्र बनाने का प्रयास शुरू कर दिया। कालांतर में पी.एफ.एल.पी. ने सम्राट हुसैन की हत्या की भी कोशिश की, जिसमें असफल होने से बौखलाए पी.एफ.एल.पी. ने 2 अमरीकी और एक स्विस हवाई जहाजों का अपहरण कर लिया और उन्हें जॉर्डन ले आए। 56 यहूदियों और 6 अमरीकी नागरिकों को छोड़कर अन्य सभी यात्रियों को रिहा कर दिया और जॉर्डन पर दबाव बनाने के लिए पी.एफ.एल.पी. आतंकियों ने 2 खाली जहाजों को बम से उड़ा दिया। 

यह घटनाक्रम फिलिस्तीनी समूहों द्वारा जॉर्डन की स्वायत्तता पर गहरा प्रहार था। सम्राट हुसैन ने 16 सितंबर 1970 को अपनी सेना को फिलिस्तीनी-नियंत्रित क्षेत्रों पर हमले के निर्देश दे दिए, जिसे ‘ब्लैक सितंबर’ नाम से जाना जाता है। कई रिपोर्टों के अनुसार, उस समय मारे गए फिलिस्तीन समर्थक लड़ाकों की अनुमानित संख्या 25,000 या उससे अधिक थी। दिलचस्प यह भी है कि जो पाकिस्तान पिछले 100 दिनों से अन्य कुछ इस्लामी देशों की भांति हमास-विरोधी इसराईल सैन्य अभियान में कई ‘निर्दोष फिलिस्तीनियों’ के मारे जाने पर आंसू बहा रहा है, उसी देश के पूर्व तानाशाह जनरल जिया-उल-हक ने ही जॉर्डन के 10 दिवसीय ‘ब्लैक सितंबर’ में इसराईल के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हजारों फिलिस्तीनियों के कत्लेआम में रणनीतिक भूमिका निभाई थी। 

जिया उस समय ओमान में पाकिस्तानी दूतावास में कार्यरत थे। तब जिया ने जॉर्डन सेना को पी.एल.ओ. के खिलाफ लडऩे हेतु विशेष प्रशिक्षण दिया था। इस घटना के लिए जिया को फिलिस्तीनियों का ‘कसाई’ कहकर संबोधित किया जाता है। क्या तब पाकिस्तान के समर्थन से जॉर्डन के मुस्लिम शासक, जो पैंगबर साहब के प्रत्यक्ष वंशज हैं उनके द्वारा हजारों फिलिस्तीनियों की मौत पर कोई हो-हल्ला हुआ था, जैसे इसराईल-हमास युद्ध में हो रहा है? यदि तब सम्राट हुसैन द्वारा अपने देश की एकता और अखंडता सुरक्षित रखने के लिए फिलिस्तीनियों पर सैन्य कार्रवाई गलत नहीं थी, तब इसराईल द्वारा हमास के 7 अक्तूबर 2023 को किए भीषण आक्रमण का प्रतिकार, जिसमें गाजा-पट्टी पर रॉकेट-टैंक से हमला हो रहा है उस पर हायतौबा क्यों? 

वास्तव में, यह दोहरे मापदंड की चरम सीमा है। जब दुनिया (भारत) में आतंकवादी द्वारा इस्लाम के नाम पर गैर-मुस्लिमों के साथ अन्य मुसलमानों की हत्या की जाती है, तब इस पर या तो चुप्पी मिलती है या निंदनीय कह कर औपचारिकता पूरी की जाती है या फिर इसे कुतर्कों से न्यायोचित ठहराने का प्रयास किया जाता है। परंतु जब इसका पीड़ित (किसी देश सहित) द्वारा प्रतिकार किया जाता है, तब इसे ‘दमन’ या ‘इस्लामोफोबिया’ की संज्ञा दे दी जाती है। इसराईल-हमास युद्ध पर विकृत नरेटिव इसका हालिया उदाहरण है।-बलबीर पुंज     
    

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