हर जगह पानी है पर...

Wednesday, Apr 20, 2016 - 12:57 AM (IST)

मैंने एक अमरीकी नोबेल पुरस्कार विजेता से कहा था कि हमारी असली समस्या जनसंख्या है। उसने इसका खंडन किया और कहा, ‘‘पानी आपकी बड़ी समस्या बनने वाली है।’’ हम लोग आने वाले सालों में भारत के सामने आने वाली तकलीफों पर चर्चा कर रहे थे। काफी लंबी बहस के बाद भी हमारे बीच सहमति नहीं हो पाई।

महाराष्ट्र जैसे सम्पन्न राज्य के लातूर में जो हुआ उसने उस अमरीकी की चेतावनी दोहरा दी है। घड़ोंऔर बर्तनों को लाइन में रखवाने के लिए धारा 144 लगानी पड़ी और इसने मुझे उस चेतावनी की याद दिला दी। लेकिन उस अमरीकी ने मुझे एक आशावादी पक्ष भी दिखाया था कि यमुना-गंगा योजना में पानी का समंदर है जो निकाले जाने का इंतजार कर रहा है। मुझे पता नहीं कि यह कितना सच है। अगर ऐसा होता तो सरकार ने इस जमा पानी को नापने के लिए वैज्ञानिक अध्ययन कराया होता। मैंने ऐसी किसी योजना के बारे में अभी तक नहीं सुना है।
 
शायद इस साल महाराष्ट्र सबसे पीड़ित राज्य है। पिछले साल कुछ दूसरे राज्यों की हालत ऐसी ही थी। ज्यादातर राज्य या जहां तक इसका सवाल है, देश की अर्थव्यवस्था मानसून पर काफी निर्भर है। हमें आकाश में काले बादल ढूंढते रहना पड़ेगा। पानी हमारे लिए बहुत मायने रखता है-अनाज उगाने और पीने के लिए।

पंजाब-हिमाचल प्रदेश में भाखड़ा बांध ने हरियाणा समेत पूरे क्षेत्र को भारत के अनाज भंडार के रूप में बदल दिया है। भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भाखड़ा बांध को मंदिर कहते थे। उन्होंने उस समयकहा था कि भारत के परम्परागत मंदिर रहेंगे लेकिन आॢथक विकास के लिए हमें नए मंदिरों, जिसका अर्थ था बांध और औद्योगिक परियोजनाएं, का निर्माण करना होगा।

यह भाखड़ा बांध पूरे देश को खिला सकता है। लेकिन बड़े बांध बनाना जरूरी नहीं है क्योंकि ये घर-द्वार और चूल्हा-चक्की से उजाड़ दिए लोगों को बसाने की समस्या पैदा करते हैं। छोटे और अलग-अलग जगहों पर बने बांध उतने ही काम के हो सकते हैं, भले ही उनसे बेहतर न हों।

नर्मदा बांध की ऊंचाई को लेकर मेधा पाटेकर के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन का यही निष्कर्ष था। वह सफल नहीं हो पाईं, हालांकि सरकार की ओर से तैयार कराई हुई जल संसाधन मंत्री सैफुद्दीन सोज की रिपोर्ट ने कहा है कि बांध से होने वाला फायदे सालों से रहने वाले लोगों को उजाडऩे से होने वाले घाटे के मुकाबले बहुत कम हैं।

लेकिन कई साल बाद बांध बनाया जाने लगा, जब गुजरात सरकार ने यह वायदा किया कि उजाड़े गए किसानों और अन्य लोगों की भरपाई के लिए वह जमीन देगी। यह अलग बात है कि राज्य सरकार अपना वायदा पूरा नहीं कर पाई क्योंकि वह उतनी जमीन ढूंढ ही नहीं पाई।

भारत में सात बड़ी नदियां -गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, नर्मदा,कृष्णा,गोदावरी और कावेरी हैं और इन नदियों में जल पहुंचाने वाली अनेक छोटी नदियां भी हैं। इन नदियों के इस्तेमाल ही नहीं, बल्कि उनसे बिजली पैदा करने के लिए नई दिल्ली ने केन्द्रीय जल और बिजली आयोग बना रखा है। इसने बहुत हद तक काम भी किया है। लेकिन भारत के कई हिस्सों में इससे ऐसे गंभीर विवाद पैदा हुए हैं जो दशकों से सुलझाए नहीं जा सके हैं।

इस स्थिति ने एक राज्य से दूसरे राज्य के लोगों के बीच दूरी भी बना दी है। उदाहरण के लिए, कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी जल के बंटवारे का मामला सालों से लटका हुआ है। तमिलनाडु को कुछ क्यूसेक (जल की मात्रा मापने का पैमाना) पानी देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद ऐसी हालत है।

पास में ही, पंजाब ने राजस्थान को पानी देने से मना कर दिया है। यह सिंधु जल समझौते के समय अपनाई गई नई दिल्ली की दृष्टि के खिलाफ है। उस समय, परियोजना को धन दे रहे विश्व बैंक के सामने भारत ने दलील दी थी कि राजस्थान के बलुआहीइलाकों को सींचने के लिए उसे बहुत ज्यादा पानी चाहिए।

यह हास्यास्पद है कि नई दिल्ली की ओर से राजस्थान के पक्ष में फैसला होने के बाद भी पंजाब ने अब उसे पानी देने से मना कर दिया है। विश्व बैंक ने उस समय भारत की यह दलील स्वीकार कर ली थी कि भारत पाकिस्तान को पानी नहीं दे सकता क्योंकि उसे राजस्थान के बालू के टीलों वाली जमीन वापस पाने के लिए पानी की जरूरत है। हमारे पास इसका क्या जवाब है जब राजस्थान को पानी देने के अपने वायदे से पंजाब मुकर जाता है?

यह माना जाता है कि राजस्थान पहुंचने वाले पानी से वहां कई अनाज पैदा किए जा सकते हैं, लेकिन पंजाब और हरियाणा के कुछ इलाकों जो पहलेे से सिंचित हैं, को पानी नहीं मिलेगा। यही विसंगतियां अंतर्राज्यीय जल-विवादों के लिए जिम्मेदार हैं। आजादी के सत्तर साल बाद भी इन विवादों को सुलझाया नहीं जा सका है।

जब केन्द्र और राज्यों, दोनों में कांग्रेस शासन कर रही थी तो समस्या ने इतना भद्दा रूप  नहीं लिया था। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पास उस समय कुछ लोकसभा सीटें थीं और उसकी कोई ज्यादा गिनती नहीं करता था। आज हालात एकदम अलग हैं। अभी जब संसद में इसका बहुमत है तो वह चाहती है कि इसके शासन वाले राज्यों को ज्यादा फायदा मिले, नियम से, बिना नियम से।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से यह घोषणा जरूर की थी भारत एक है और दूसरी पार्टियों के शासन वाले राज्यों के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। लेकिन जमीन का सच यह नहीं है। कांग्रेस पार्टी भी, जो अब विपक्ष में है, संसद तक को चलने नहीं दे रही है।

राज्यसभा कई सत्रों तक स्थगित होती रही जब तक पार्टी ने खुद ही यह महसूस नहीं किया कि सदन में बहस के जरिए वह सरकार से अपने मतभेदों को ज्यादा बेहतर ढंग से सामने ला सकती है। अभी ऐसा लगता है कि पाॢटयों के बीच यह समझ बन गई है कि संसद को चलने दिया जाए। यह उम्मीद करनी चाहिए कि पाॢटयां अपने बीच बनी इस आम सहमति पर कायम रहेंगी और पहले की तरह गंभीरता से मुद्दों पर बहस करेंगी।

अगर इस भावना के अनुसार काम होता है तो संसद में कोई बाधा नहीं पैदा होगी और चुने हुए प्रतिनिधि, जिन्होंने अपने हंगामा वाले व्यवहार से जनता को हताश कर दिया है, अपना ध्यान देश की बीमारियों पर लगाएंगे। तब कोई भी विवाद सत्र को नहीं रोकेगा चाहे वह जल का हो या और किसी समस्या से संबधित।
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