चुनावी सुधारों की गुंजाइश है या नहीं

punjabkesari.in Sunday, Dec 01, 2024 - 05:31 AM (IST)

75 वर्षों के अस्तित्व में, चुनाव आयोग के कामकाज की आलोचनात्मक जांच करना सार्थक होगा। भारत की चुनावी यात्रा की आलोचनात्मक जांच करते हुए, हमारे पास इसकी उल्लेखनीय सफलता का जश्न मनाने के कई कारण हैं। इसने वैश्विक प्रशंसा अर्जित की है।

अमरीकी सीनेटर हिलेरी क्लिंटन ने इसे स्वर्ण मानक कहा और न्यूयार्क टाइम्स ने इसे पृथ्वी पर सबसे बड़ा शो बताया। यदि हम इसके कामकाज के दायरे और आयाम को देखें तो यह निश्चित रूप से सबसे बड़ा शो था। हम भारतीयों के पास चुनाव आयोग की सफलता की कहानी पर गर्व महसूस करने के कारण हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि हमें अपनी आंखें बंद कर लेनी चाहिएं और खुश हो जाना चाहिए। ऐसा बिल्कुल नहीं है। हमें अपनी आंखें और कान खुले रखने चाहिएं ताकि यह देखा जा सके कि इसके बेहतर कामकाज की गुंजाइश है या नहीं, जिसके लिए चुनावी सुधारों की आवश्यकता होगी। मुझे लगता है कि हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली के संपूर्ण कामकाज की आलोचनात्मक जांच करने का समय फिर से आ गया है।

26 नवम्बर को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इवैंजेलिस्ट डा. के.ए. पॉल द्वारा दायर एक जनहित याचिका (पी.आई.एल.) को खारिज कर दिया, जिसमें पेपर बैल्ट वोटिंग सिस्टम की वापसी की मांग की गई थी और विभिन्न चुनावी सुधारों का प्रस्ताव दिया गया था। जस्टिस विक्रम नाथ और पी.बी. वराले की पीठ ने याचिका में कोई दम नहीं पाया और इलैक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ई.वी.एम.) की कमजोरी के दावों को निराधार बताते हुए खारिज कर दिया।

न्यायालय ने राजनीतिक नेताओं द्वारा चुनिंदा आरोपों पर आधारित तर्कों की आलोचना की और ई.वी.एम. की विश्वसनीयता पर उनके रुख में असंगतता को नोट किया। जस्टिस विक्रम नाथ ने जनहित याचिका को खारिज करते हुए टिप्पणी की कि ई.वी.एम. को केवल तभी दोषी ठहराया जाता है जब कोई हारता है, न कि तब जब कोई जीतता है। उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि चंद्रबाबू नायडू ने दावा किया था कि जब वे हारे थे तो ई.वी.एम. से छेड़छाड़ की जा सकती थी, लेकिन जब वे जीते तो ऐसा कोई आरोप नहीं था। डा. पॉल, जिन्होंने खुद को ग्लोबल पीस इनिशिएटिव के अध्यक्ष के रूप में पेश किया, ने सेवानिवृत्त अधिकारियों और न्यायाधीशों से समर्थन का दावा किया, लेकिन न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि याचिका में कोई दम नहीं है और यह इस तरह की चर्चाओं के लिए उपयुक्त मंच नहीं है। 

डा. पॉल के प्रस्तावों में मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए पैसे या शराब बांटते हुए पकड़े जाने पर उम्मीदवारों को 5 साल के लिए अयोग्य ठहराना, मतदाता शिक्षा पहल को बढ़ाना और राजनीतिक दलों के वित्तपोषण की जांच करने के लिए तंत्र शुरू करना शामिल था। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि इस तरह की चर्चा न्यायिक मंचों के लिए उपयुक्त नहीं थी। अप्रैल में, सुप्रीम कोर्ट ने ई.वी.एम. की कार्यप्रणाली में अपने विश्वास की पुष्टि करते हुए, वोटर वैरीफएिबल पेपर ऑडिट ट्रेल (वी.वी.पी.ए.टी.) मशीनों द्वारा उत्पन्न पॢचयों के विरुद्ध ई.वी.एम. के माध्यम से डाले गए वोटों के 100 प्रतिशत सत्यापन या वैकल्पिक रूप से पेपर बैलेट पर लौटने के अनुरोधों को अस्वीकार कर दिया। हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि संसदीय प्रणाली का मूल स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव है। इस मामले में देश का ट्रैक रिकॉर्ड बेहद संतोषजनक रहा है। फिर भी, कई मुख्य चुनाव आयुक्तों ने हमारे लोकतांत्रिक कामकाज की गुणवत्ता को और बेहतर बनाने के लिए चुनाव सुधारों पर चर्चा की है।

हालांकि कई नेताओं ने चुनाव सुधारों पर चर्चा की है, लेकिन यह अफसोस की बात है कि हमारे नेताओं ने इस सवाल को गंभीरता से नहीं लिया है। सच है, चुनाव सुधार एक जटिल मुद्दा है पर अफसोस की बात यह है कि हमारे नेताओं को चुनावी कानूनों में बड़े बदलाव करने के लिए विधि आयोग की सिफारिशों पर अमल करने के बारे में और अधिक सोचने की जरूरत है। इस मुद्दे पर नई दिल्ली में राष्ट्रीय सैमीनार में चर्चा की गई है। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने कथित तौर पर विधि आयोग की सिफारिशों और दलबदल करने वाले सांसदों और राज्य विधायकों को तुरंत अयोग्य ठहराने का समर्थन किया था। दलबदल विरोधी अधिनियम स्पष्ट रूप से विफल रहा है। ऐसे सैमीनारों का वास्तव में स्वागत है। हालांकि, समर्थन की कमी के कारण इस मामले को वह ध्यान नहीं मिल पाया है जिसका वह हकदार है। इसका मुख्य कारण यह है कि राजनीतिक दल और कई राजनेता यथास्थिति बनाए रखना पसंद करते हैं ताकि वे सत्ता में बने रह सकें। इसे नकारा जाना चाहिए।

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन कहा करते थे कि हमारे देश की सभी बुराइयों की उत्पत्ति चुनावी प्रक्रिया में है। उन्हें पता होना चाहिए था कि वे किस बारे में बात कर रहे हैं। अफसोस की बात यह है कि राजनेताओं को सिस्टम की खामियों को ठीक करने की बिल्कुल भी चिंता नहीं है। शायद चुनावी कानूनों के समय-समय पर संशोधन के लिए एक संवैधानिक जनादेश से सिस्टम को साफ करने में मदद मिलनी चाहिए, क्योंकि राजनेताओं और संसद की मर्जी पर कुछ भी नहीं छोड़ा जाना चाहिए। यहां, राष्ट्रपति एक प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं। जो भी हो, राष्ट्रपति की शक्ति का मुद्दा संवैधानिक सुधारों का एक और क्षेत्र है।-हरि जयसिंह


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