बाजारवाद के इस दौर में क्या ग्राहक वाकई राजा है

Tuesday, Mar 14, 2023 - 06:12 AM (IST)

आज हम जिस दौर में जी रहे हैं वह है बाजारवाद और उपभोक्तावाद का दौर। अब पहला प्रश्न यह कि इसका क्या मतलब हुआ? परिभाषा के हिसाब से यदि इसका अर्थ निकाला जाए तो वह यह होगा कि आज उपभोक्ता (यानी किसी भी वस्तु का उपयोग करने वाला) ही राजा है। खास बात यह है कि बाजारवाद के इस दौर में उपभोक्ता की जरूरत से आगे बढ़कर उसके आराम को केंद्र में रखकर ही वस्तुओं का निर्माण किया जा रहा है।

मोबाइल है तो यूजर फ्रैंडली। कोई एप है तो उसका इस्तेमाल करने वाले की उम्र यानी बच्चे, युवा अथवा वयस्क के मानसिक विकास, उसकी जरूरतों और क्षमताओं को ध्यान में रखकर उसे कस्टमर फ्रैंडली बनाया जा रहा है। रोबोट है तो ह्यूमन फ्रैंडली। और पूंजीवाद के इस युग में तो मनुष्य के उपभोग के लिए सामान बनाने वाली विभिन्न कम्पनियां उसे अपनी ओर आकर्षित करने के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा कर रही हैं।

यहां यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इसके लिए (ग्राहक को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए) ये कम्पनियां मार्कीटिंग और पब्लिसिटी का इस हद तक सहारा ले रही हैं कि आज एडवर्टाइजिंग अपने आप में एक तेजी से बढ़ता हुआ उद्योग बन चुका है। अब दूसरा प्रश्न यह है कि इसके क्या मायने हैं? नहीं वे नहीं हैं जो आप सोच रहे हैं कि पूंजीवाद के इस दौर में आप यानी ग्राहक एक राजा हैं। यह तो हमें एक ग्राहक के रूप में एहसास कराया जा रहा है लेकिन सत्य इसका उलट है।

सत्य तो यह है कि उपभोक्तावाद के इस दौर में हम बाजारवाद  के गुलाम बनकर रह गए हैं। क्यों, चौंक गए न? चलिए जरा खुल कर बात करते हैं, इसे एक साधारण से उदाहरण से समझते हैं। सच बताइए जब हमारा बच्चा घर की रोटी या दाल-चावल या सब्जी की बजाय मैगी की जिद करता है और हम यह जानते हुए कि हमारे बच्चे की सेहत के लिए मैगी ठीक नहीं है फिर भी हम मैगी खरीदते ही नहीं बल्कि उसे खाने भी देते हैं तो क्या हम इसे अपनी मर्जी के राजा बनकर खरीदते हैं?

नहीं, नहीं ऊपरी तौर पर नहीं बल्कि जरा गहराई और ईमानदारी से इस विषय पर सोचिए। अगर आप सोच रहे हैं कि आप अपने बच्चे की जिद के आगे नतमस्तक हो रहे हैं तो माफ कीजिएगा आप गलत हैं। उस कम्पनी ने आपके बच्चे  को माध्यम बनाकर आपको अपना उत्पाद खरीदने के लिए मजबूर कर दिया। यह तो एक उदाहरण है। सोचेंगे तो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में ऐसे कितने ही उदाहरण हमें मिल जाएंगे। लेकिन बात सिर्फ इतनी-सी नहीं है कि उपभोक्तावाद के इस दौर में हमारी खाने-पीने की आदतें  प्रभावित हो रही हैं।

बात इससे काफी आगे बढ़ चुकी है। क्योंकि बात अब एक व्यक्ति के तौर पर, एक परिवार के तौर पर, एक समाज के तौर पर, हमारे मूल्यों, हमारी नैतिकता, हमारे व्यक्तित्व, हमारे आदर्शों के कभी ‘कूल’ बनने के नाम पर तो कभी ‘चिल आऊट’ के नाम पर, कभी ‘अपने लिए जीने’ के नाम पर तो कभी ‘हां मैं परफैक्ट नहीं हूं’ के नाम पर हमारे विचारों के प्रभावित होने तक पहुंच गई है।

परिणामस्वरूप सदियों से चली आ रही हमारी पारिवारिक और सामाजिक संरचना के मूल विचार भी प्रभावित होने लगे हैं क्योंकि बाजारवाद के इस दौर में हम एक उपभोक्ता के रूप में उत्पाद बनाने वाली कम्पनियों के लिए पैसा कमाने का एक साधन मात्र हैं। एक बच्चे के रूप में, एक युवा के रूप में, एक पुरुष के रूप में एक महिला के रूप में एक बुजुर्ग के रूप में हम उनके लिए एक टार्गेट कस्टमर से अधिक कुछ नहीं हैं।

अपने लग्जरी उत्पादों को बेचने के लिए किसी समाज को विलासिता की ओर आकर्षित करना बाजारवाद की स्ट्रैटेजी का हिस्सा होता है। कोई आश्चर्य नहीं कि आज इस तरह के वाक्य बहुत प्रचलन में हैं कि हां मैं परफैक्ट नहीं हूं’ या ‘मैं जैसी हूं या जैसा हूं मुझे वैसे ही स्वीकार करो’। आज की पीढ़ी तो इन वाक्यों के प्रति आकर्षित भी होती है और सहमत भी।

लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि जो बाजारवाद अपने भौतिक सुखों को देने वाली वस्तुओं को खरीदने के लिए हमें ‘ये दिल मांगे मोर’ या ‘डर के आगे जीत है’ जैसे संघर्षशील बनने  का जज्बा देता है वही बाजारवाद जब बात हमारे व्यक्तित्व के विकास की आती है, हमारे नैतिक उत्थान की आती है, हमारे भीतर पारिवारिक या सामाजिक मूल्यों के विकास की आती है तो जो ‘मैं जैसा हूं या जैसी हूं वैसा ही स्वीकार करो’ या फिर ‘मैं एक साधारण मनुष्य हूं भगवान नहीं’ जैसे विचार परोस देता है। -डा. नीलम महेंद्र

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