क्या देश ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के पक्ष में है?

Wednesday, Mar 20, 2024 - 05:12 AM (IST)

भारत में लोकतंत्र की सबसे बड़ी नौटंकी आम चुनाव अप्रैल-मई की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं और इन चुनावों के लिए भाजपा ने अबकी बार 400 पार का नारा दिया है, तो कांग्रेस अध्यक्ष खरगे ने चेतावनी दी है कि यह अंतिम चुनाव हो सकता है और इससे संघवाद का अंत हो सकता है। पूर्व राष्ट्रपति कोविंद की समिति की 320 पेज की रिपोर्ट में 2 चरणीय चुनावी प्रक्रिया की सिफारिश की गई है। पहला लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव और उसके बाद सौ दिन के भीतर नगर पालिकाओं और पंचायतों के चुनाव और यह रिपोर्ट इस सप्ताह सुर्खियों में रही। 

समिति ने यह सुझाव भी दिया कि एक साथ चुनाव कराने के प्रावधान को लागू करने की निर्धारित तिथि के बाद किसी भी चुनाव में कथित राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल लोकसभा के कार्यकाल के पूरा होने के साथ समाप्त हो जाएगा और इस संबंध में यह बात ध्यान में नहीं रखी जाएगी कि विधानसभा कब गठित की गई। 

प्रश्न उठता है कि क्या हम ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की दिशा में बढ़ रहे हैं, विशेषकर जब देश में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के अब तक 400 से अधिक चुनाव हो चुके हैं और विधि आयोग ने 1999, 2015 और 2018 में तीन बार इस आधार पर यह सिफारिश की है कि नागरिकों, राजनीतिक दलों और सरकार को बार-बार चुनाव की थकाऊ प्रक्रिया से मुक्त किया जाए। इसी तरह संसदीय समिति ने 2016 में सिफारिश की थी कि एक साथ चुनाव कराने से चुनावों पर होने वाले भारी व्यय में कमी होगी और चुनाव आयोग द्वारा भी इस बात को रेखांकित किया गया कि एक साथ चुनाव कराने की लागत 4500 करोड़ रुपए होगी। 

नि:संदेह एक साथ चुनाव कराना आॢथक रूप से अच्छा होगा और इससे राजकोष में काफी बचत होगी। इससे बार-बार चुनाव कराने से शासन में व्यवधान से बचा जा सकेगा और नीतिगत पंगुता भी दूर होगी क्योंकि किसी पार्टी के निर्वाचित होने और सरकार गठित करने के बाद वह कार्य करने लग जाएगी और लोकहित में कठोर निर्णय भी देगी तथा वोट बैंक पर इसके प्रभाव की ङ्क्षचता किए बिना सुशासन की ओर ध्यान देगी। 15 राजनीतिक दल इस रिपोर्ट का विरोध कर रहे हैं और इसके समक्ष चुनौती प्रक्रियागत ब्यौरे तथा अकुशल सरकारों को हटाने के नागरिकों के अधिकारों के प्रति सरकार की उपेक्षा है। साथ ही विविधता संपन्न देश में इसे संघीय ढांचे व संविधान की भावना के विरुद्ध माना जा रहा है और इसके चलते एक लंबी जटिल कानूनी प्रक्रिया शुरू हो सकती है। कोविंद रिपोर्ट में संवैधानिक संशोधन लाने का प्रस्ताव किया गया है और इस संबंध में सावधानीपूर्वक आगे बढ़ा जाना चाहिए, ताकि संघवाद के खतरे की आशंकाओं को दूर किया जा सके। 

यही नहीं, विपक्षी दल मानते हैं कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ भाजपा का राजनीतिक एजैंडा थोपना है और यह आस्था, रीति-रिवाज, भाषा, गणवेश, खानपान आदि के संबंध में भाजपा की वैचारिक प्राथमिकता का विस्तार है क्योंकि विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों में संघीय ढांचे के अंतर्गत संबंधों में टकराव है। इससे राजनीतिक जवाबदेही और सरकारों के कार्य निष्पादन की समीक्षा भी प्रभावित होगी।  अक्तूबर 1951 से मई 1952 के बीच में नेहरू कैबिनेट में आरंभ में ये चुनाव एक साथ कराए गए। किंतु नेहरू कैबिनेट द्वारा केरल में माकपा के नेतृत्व वाली सरकार को बर्खास्त करने के बाद ये अलग-अलग होने लगे। 60 के दशक में राजनीतिक अस्थिरता पैदा होने लगी, जिसके चलते लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराने की प्रक्रिया बाधित हुई। 

1967 से 1980 के बीच में पंजाब, बिहार और उत्तर प्रदेश की विधानसभाएं तीन बार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाईं और ओडिशा में उस दौरान विधानसभा के पांच बार चुनाव हुए। पश्चिम बंगाल में 1967 और 72 के दौरान चार बार चुनाव हुए, जिसके चलते केन्द्र और राज्यों में अनेक अस्थिर सरकारें बनीं और लोकसभा और विधानसभाओं का समय पूर्व विघटन करना पड़ा जिसके बाद भारत में कभी भी एक साथ चुनाव नहीं हुए। चुनाव पर व्यय निरंतर बढ़ता गया। 1980 में यह 23 करोड़ रुपए था। 1984 में 54 करोड़ रुपए, 1989 में 154 करोड़ रुपए तक पहुंचा और 1991 के चुनाव में यह 359 करोड़ रुपए तो 1999 में 880 करोड़, 2004 में 1300 करोड़, 2014 में 30 हजार करोड़ तो 2019 में यह 60 हजार करोड़ रुपए था। तथापि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल के बारे में कानूनी और संवैधानिक स्थिति चुनौतीपूर्ण है और इसके लिए संशोधन की आवश्यकता होगी और इन संशोधनों का राज्यों द्वारा अनुसमर्थन करना होगा, ताकि भविष्य में कानूनी टकराव से बचा जा सके। 

इसका एक उदाहरण अनुच्छेद 83 (2) और 172 (1) है, जिनमें कहा गया है कि लोकसभा और राज्य विधानसभा का कार्यकाल उनकी पहली बैठक से पांच वर्ष के लिए होगा। दोनों का कोई निर्धारित कार्यकाल नहीं है और उन्हें समय पूर्व भंग किया जा सकता है। इसके अलावा इन अनुच्छेदों के परंतुक में लोकसभा और विधानसभा के कार्यकाल को 6 माह तक बढ़ाने की अनुमति भी दी गई है और ऐसा आपातकाल की घोषणा के बाद किया जा  सकता है। इसके साथ ही संविधान का अनुच्छेद 356 केन्द्र को किसी भी राज्य को राष्ट्रपति शासन के अधीन लाने की अनुमति देता है और इसके लिए वह विधानसभा को समय पूर्व भंग कर सकती है। किंतु केन्द्र की इस शक्ति का दुरुपयोग रोकने के लिए दल-बदल रोधी अधिनियम 1995 और उच्चतम न्यायालय ने अनेक सुरक्षा उपाय किए हैं। 

कोविंद के प्रस्तावों का ‘इंडिया’ गठबंधन के घटक दल समर्थन नहीं कर रहे। उनका कहना है कि हम अपनी राज्य सरकारों के अधूरे कार्यकाल को क्यों स्वीकार करें। उनका मानना है कि सरकार का उद्देश्य दक्षिणी राज्यों में भाजपा की कमजोरी को दूर करने का प्रयास है, जहां पर भाषाई और वैचारिक दृष्टि के कारण उसकी प्रगति बाधित हो रही है। कुछ लोगों का तर्क है कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के निर्धारित कार्यकाल हमारे संसदीय लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के विरुद्ध हैं। यदि एक साथ चुनाव कराने के बाद राजनीतिक समीकरणों के बदलने से किसी विधानसभा के कार्यकाल में व्यवधान उत्पन्न हो तो क्या होगा? इससे केन्द्र में राष्ट्रीय दल का वर्चस्व होगा और यह क्षेत्रीय दलों के लिए नुकसानदायक होगा। यदि मध्यावधि में केन्द्र या किसी भी राज्य में सरकार गिर जाती है तो क्या होगा और यदि जनाधार प्राप्त किसी राज्य सरकार को अविश्वास मत से हटाया जाता है तो फिर क्या होगा? क्या वह सत्ता में बनी रहेगी या उसके स्थान पर दूसरी सरकार बनेगी जिसे हो सकता है कि जनादेश प्राप्त न हो। 

निश्चित रूप से जिस सरकार को सदन का विश्वास प्राप्त न हो वह जनता पर थोपी हुई सरकार होगी और यह एक तरह से वास्तविक निरंकुशता, तानाशाही या राजतंत्र की अराजकता होगी और इस तरह एक अप्रतिनिधिक सरकार बनेगी। इससे बचने के लिए निर्वाचन आयोग ने सुझाव दिया कि किसी भी सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव के साथ-साथ दूसरी सरकार और प्रधानमंत्री के लिए विश्वास प्रस्ताव भी आना चाहिए और दोनों पर साथ-साथ मतदान किया जाना चाहिए और यही स्थिति राज्य विधानसभाओं में भी होनी चाहिए। जर्मनी में वहां की संसद के निचले सदन और राज्य विधानसभाओं तथा स्थानीय चुनाव एक साथ होते हैं। फिलीपींस में भी प्रत्येक 3 वर्ष में एक साथ चुनाव होते हैं, हालांकि वहां पर राष्ट्रपति शासन प्रणाली है। 

एक राष्ट्र, एक चुनाव के पक्ष-विपक्ष में अलग अलग तर्क हैं और इसके संबंध में विकास बनाम जवाबदेही, चुनावी व्यय बनाम राजनीतिक विकल्प, शासन बनाम चुनावी निष्पक्षता आदि के तर्क दिए जाते हैं। चुनाव देश की लोकतंत्र की सबसे बड़ी शक्ति है, इसलिए इस संबंध में बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। चुनाव हमारे लोकतंत्र की आधारशिला है। बार-बार चुनाव कराने से बचा जा सकता है। राज्यों में निरंतर चुनाव होने के चलते सरकार का प्रबंधन कठिन हो जाता है। भारत का लोकतंत्र हर वक्त राजनीतिक दलों के बीच तू-तू, मैं-मैं में नहीं बदलना चाहिए।-पूनम आई.कौशिश
 

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