क्या राहुल गांधी ही सब कुछ हैं

Sunday, Jul 22, 2018 - 03:50 AM (IST)

राहुल गांधी के लिए मानदंड इतना नीचा तय कर दिया गया है कि 47 वर्षीय यह लड़का या आदमी जो कुछ भी कहता है उसे पसंद कर लिया जाता है। झप्पी डालने तथा आंख मारने जैसे बचकाना शो तथा राफेल व डोकलाम पर सफेद झूठ बोलने के बाद हमें हैरानी नहीं कि कांग्रेस अध्यक्ष छद्म धर्मनिरपेक्ष भीड़ से काफी प्रशंसा प्राप्त कर रहे हैं। हम अपने नेताओं से कितनी कम आशा रखने लगे हैं! 

बेशक मोदी के अंतर्गत हम कुछ चीजों से खुश नहीं हैं, विशेषकर सत्ताधारी पार्टी की सांस्कृतिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में की गई गलतियों को लेकर। मगर क्या राहुल ही सब कुछ हैं जिन्हें भारत की सबसे प्राचीन भव्य पार्टी एक विकल्प के तौर पर पेश करना चाहती है? अथवा क्या यह सारी औपचारिकता मोदी के खिलाफ लक्ष्य करके है? स्पष्ट कहूं तो यह ढीला-ढाला तर्क कि ‘कोई भी मगर मोदी नहीं’ प्रभावित नहीं करता। 

निश्चित तौर पर हम 2019 के लिए एक बेहतर राष्ट्र चाहते हैं। यद्यपि शुक्रवार को अविश्वास प्रस्ताव पर थकाऊ तौर पर नीरस तथा शोर-शराबे वाली चर्चा, जिसमें अधिकतर वक्ताओं ने एक जैसी शिकायतें पेश कीं, से तथाकथित महागठबंधन के बीच दरारें पहले ही स्पष्ट हो चुकी थीं। ‘न’ कहने वालों के बीच सामंजस्य का पूर्ण अभाव दिख रहा था। जो लोग मोदी के खिलाफ थे उनको एकजुट करने के लिए बहुत कम चीजें थीं सिवाय उनका विरोध करने के। 

यदि अविश्वास प्रस्ताव को आगे बढ़ाने वाले का उद्देश्य कांग्रेस तथा भाजपा दोनों द्वारा आंध्र प्रदेश के साथ कथित धोखा था, कांग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता ने अपने उस वायदे को निभाए बिना भाषण दिया जिसमें उन्हें मोदी को मसलने के लिए मात्र 15 मिनट चाहिए थे-उनके असल शब्द थे, ‘‘मोदी जी मुझे 15 मिनट संसद में बोलने दें, देश में भूचाल आ जाएगा।’’ इस घटनाक्रम में लोग केवल एक चीज से प्रभावित हुए और वह थी सावधानीपूर्वक लिखी गई उनकी झप्पी, ऐसा दिखाई देता है कि आंख मारने की योजना नहीं थी, जो उनकी मानसिक उम्र को प्रतिङ्क्षबबित करता है। भारतीय लोकतंत्र के पावन स्थल में बचकानी हरकत पर हर कोई भौंचक्का था। 

निश्चित तौर पर कोई भी स्टाइल व विषय-वस्तु में उस ऊंचाई पर नहीं पहुंच सका, जैसे कि अतीत में चर्चाओं के दौरान देखने को मिलती थी। पुराने लोग वाजपेयी, कृपलानी, लोहिया, लिमिये, फर्नांडीज आदि को याद करेंगे जो अविश्वास प्रस्तावों पर सरकार को मजबूर कर देते थे। हालांकि उन दिनों में भी अधिकतर किसी परिणाम पर नहीं पहुंचा जाता था। शुक्रवार को किसी को भी सरकार के गिरने की आशा नहीं थी। मगर यह जीत का अंतर था जिसने सत्ताधारी पार्टी में फिर से विश्वास पैदा किया। तेदेपा के बहिर्गमन के अलावा शिवसेना की अनुपस्थिति तथा बड़ी संख्या वाली अन्नाद्रमुक के सभी सदस्यों के आने से एक महत्वपूर्ण अंतर बन गया। 

राहुल ने अपने 50 मिनट के भाषण में जो कुछ कहा वह सब पहले भी सुन चुके हैं मगर हैरानीजनक हिस्सा डोकलाम तथा राफेल सौदे पर उनकी टिप्पणियां थीं। डोकलाम मामले में भूटानी क्षेत्र में चीनियों द्वारा कब्जे को लेकर सरकार द्वारा न झुकने के मामले को गांधी परिवार के उत्तराधिकारी ने पलट दिया। जो उस समय चीनी राजदूत के साथ मेल-मिलाप बढ़ा रहे थे (इस आशा में कि गतिरोध से मोदी विरोधी लहर मजबूत होगी)। राफेल मामले में निर्मला सीतारमण ने राहुल गुब्बारे की हवा निकाल दी। उन्होंने यह कहा कि फ्रांसीसी तथा भारतीय सरकार के बीच एक गोपनीयता धारा पर हस्ताक्षर किए गए हैं-सरकारें, न कि निजी पक्षों द्वारा और वह भी तब जब 2008 में कुछ न करके गलती न करने वाले ए.के. एंटनी रक्षा मंत्री थे। 

सामान्य तौर पर चर्चा आने वाले राज्य विधानसभा चुनावों तथा बाद में अगले वर्ष होने वाले संसदीय चुनावों के लिए प्रचार अभियान का एक वास्तविक ट्रेलर थी। कांग्रेस की रणनीति स्पष्ट थी। मोदी की विश्वसनीयता को कम करने के लिए कुछ भी किया जाए इसलिए राफेल को लेकर झूठ बोला गया। दूसरे, इसे व्यापार हितैषी के तौर पर पेश किया  गया। दोनों ही मामलों में तथ्य कांग्रेस की बात को झुठलाते हैं। स्वतंत्रता के बाद से किसी भी सरकार ने व्यापारी वर्ग को अनुशासित करने के लिए इतना कुछ नहीं किया-सरकारी खजाने से लूट खत्म की, दिवालिया विरोधी तथा बेनामी सम्पत्ति कानूनों को व्यवस्थित किया, कार्य में पारदर्शितालाई, लाखों शैल कम्पनियों को बंद किया, जो कर चोरी में बड़ी भूमिका निभा रही थीं। सफाई करने वाले ऐसे कार्यों की सूची बहुत लम्बी है। 

अपने तौर पर सत्ताधारी पार्टी अपनी विभिन्न गरीब हितैषी योजनाओं के कारण दूसरा कार्यकाल प्राप्त करने को तैयार है जैसे कि जन-धन, उज्ज्वला, ग्रामीण सड़कें, कृषि बीमा, सर्वव्यापक स्वास्थ्य बीमा, अद्र्ध सैन्य कार्यक्रमों में लाखों ग्रामीण युवकों की तैनाती आदि। गरीबों के जीवन को बदलना एक सार्थक उद्देश्य है हालांकि इसे सुर्खियों में जगह नहीं मिली और न ही शहरी संभ्रांत लोगों को इसने प्रभावित किया जो पूर्ववर्ती शासनों के अंतर्गत दलालों के नैटवर्क के अंतर्गत फल-फूल रहे थे। 2014 के बाद से ऐसे दलाल या तो दुबई तथा लंदन भाग गए हैं अथवा अपनी मांदों में छिप गए हैं।-वरिन्द्र कपूर

Pardeep

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