क्या यह मोदी सरकार के ‘चढ़ाव’ के ‘उतार’ की शुरूआत है

Thursday, Sep 21, 2017 - 12:12 AM (IST)

स्कूल के दिनों में हिन्दी पत्र लेखन में ‘कुशल मंगल’ को लेकर हम काफी चुटकुले बनाते थे। मसलन, ‘‘हम यहां कुशल मंगल हैं। आगे समाचार यह है कि छोटे चाचा का देहांत हो गया है। यह ख़बर सुनकर दादी मां भी चल बसीं। इस साल बारिश न होने के कारण फसल सूख गई है। गांव में पिछले दिनों 2 हत्याएं हो गई हैं। बाकी सब अच्छा चल रहा है। आशा है हमारी भांति आप भी कुशल मंगल होंगे।’’ 

आज अगर कोई हमारे देश के बारे में चिट्ठी लिखे तो वह इस चुटकुले से भिन्न नहीं होगी। हमारे देश में सब कुछ कुशल मंगल है। बस, आमदनी गिर गई है, उत्पादन फिसल गया है, निर्यात घट गया है, महंगाई सिर उठाने लगी है लेकिन अर्थव्यवस्था मजबूत है। बेरोजगार दिनों-दिन बढ़ते जा रहे हैं, संकट में फंसे किसान आत्महत्या कर रहे हैं, व्यापारी परेशान हैं  लेकिन जनता संतुष्ट है। कुछ बच्चे ऑक्सीजन गैस की कमी से मर गए, कुछ नौजवान सीवर में गैस ज्यादा होने से मर गए। कुछ बोल के मर रहे हैं, कुछ चुपचाप डर से मर रहे हैं। वैसे सरकार अच्छी चल रही है, नेता लोकप्रिय हैं, देश आगे बढ़ रहा है।’ 

हर मजाक की तरह इस चुटकुले में भी एक गहरा सच छुपा है। देश एक असमंजस के दौर से गुजर रहा है। देश की दशा और मनोदशा दो विपरीत दिशाओं में खड़ी है। अर्थव्यवस्था के आंकड़े एक दिशा दिखा रहे हैं तो जनमत के आंकड़े दूसरी ओर। लोकहित की जमीनी सच्चाई इस सरकार की एक तस्वीर पेश करती है तो लोकमत का आईना बिल्कुल दूसरी। पिछले महीने इंडिया टुडे के छमाही जनमत सर्वे के आंकड़े आए। उसका अनुमान था कि अगर लोकसभा चुनाव जुलाई में हो जाते तो सत्तारूढ़ राजग गठबंधन को 2014 से भी बड़ा बहुमत मिलता। सर्वे के अनुसार जुलाई तक प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता बरकरार थी, कोई दूसरा नेता उनके नजदीक भी नहीं था। लोग कुल मिलाकर सरकार से संतुष्ट थे। जाहिर है, विपक्षी नेताओं ने सर्वे की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए। हालांकि, 2 महीने पहले ए.बी.पी. न्यूज के लिए सी.एस.डी.एस. का सर्वे भी कमोबेश इसी नतीजे पर पहुंचा था। 

पिछले महीने भर में ही देश की अर्थव्यवस्था के कई तथ्य जनता के सामने आए। रिजर्व बैंक ने कई महीनों की ना-नुकर के बाद आखिर मान लिया कि नोटबंदी के बाद लगभग सारे नोट वापस बैंकों में आ गए, काले और जाली धन को रोकने में सरकार विफल रही। रोजगार के सरकारी आंकड़ों से पता लग चुका था कि नए रोजगार देने की बजाय इस सरकार के राज में नौकरियां घट गई हैं। इस मामले में मोदी सरकार मनमोहन सिंह सरकार से भी फिसड्डी साबित हुई। राष्ट्रीय आय (सकल घरेलू उत्पाद) के आंकड़ों ने इस कड़वे सच को उघाड़ दिया कि वृद्धि सिर्फ 5.7  फीसदी पर गिर गई है। एक साल में 2 फीसदी की गिरावट का मतलब है कि जनता को अढ़ाई से 3 लाख करोड़ रुपए का नुक्सान हुआ। मोदी सरकार के दौरान औद्योगिक उत्पादन गिरा है, निर्यात घटे हैं। अच्छे मानसून और अच्छी फसल के बावजूद किसानों की आय घटी है। जी.एस.टी. लागू होने से छोटे व्यापारी परेशान हैं। जिस जल्दबाजी से इसे लागू किया गया उससे यह खतरा हो गया है कि जी.एस.टी. से जो फायदा हो सकता था, वह भी नहीं होगा। 

उधर, उपभोक्ता पर भी मार पडऩी शुरू हो गई है। कच्चे तेल का दाम आधा होने के बावजूद पैट्रोल और डीजल के दाम नहीं घटे हैं। काफी महीनों तक दबे रहने के बाद महंगाई बढऩी शुरू हो गई है। असली सवाल यह नहीं है कि अर्थव्यवस्था में आई यह मंदी सिर्फ नोटबंदी के कारण हुई या उसके और भी कारण थे। देर-सवेर यह सवाल उठेगा कि क्या यह सरकार अर्थव्यवस्था संबंधी बड़े और जटिल निर्णय लेने में समर्थ है। पिछले कुछ हफ्तों में देश के अलग-अलग कोनों से कई ऐसी खबरें आई हैं जिन्होंने मोदी सरकार की चमक को गीला किया है। पंचकूला में डेरे की अराजकता पर हरियाणा सरकार की विफलता, गोरखपुर अस्पताल में बच्चों की मौत और गुरुग्राम में बच्चे की हत्या में सीधे केंद्र सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं थी लेकिन जनता की निगाह में भाजपा की किसी सरकार के दोष से मोदी मुक्त नहीं हो सकते। 

देश की दशा और मनोदशा का यह अंतर्विरोध कैसे दूर होगा? क्या कहीं न कहीं प्रधानमंत्री का तिलिस्म टूटने लगा है? क्या यह मोदी सरकार के चढ़ाव के उतार की शुरूआत है? क्या अगले कुछ महीनों में देश की इस दशा के अनुरूप देश की मनोदशा भी बदलेगी या फिर मोदी कोई नया जादू खेलेंगे और जनता अपना सुख-दु:ख भूल नए शगल में लग जाएगी। इस सवाल का जवाब तो वक्त ही बताएगा लेकिन एक बात तय है, इस सवाल का जवाब इस पर निर्भर करता है कि जनता के सामने मोदी और भाजपा का कोई सार्थक भरोसेमंद विकल्प खड़ा होता है या नहीं। 


    

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