क्या वाकई सबका साथ, सहकारी संघवाद ‘जुमले’ बन गए हैं

Saturday, Sep 26, 2020 - 03:12 AM (IST)

वायदा तो था कर्णप्रिय अंग्रेजी जुमलों मिनिमम गवर्नमैंट, मैक्सिमम गवर्नैंस (न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन), को-आप्रेटिव फैडरलिस्म (सहकारी संघवाद) और सबका साथ सबका विकास-सबका विश्वास का, लेकिन छ: साल के शासनकाल में हकीकत इन वायदों के ठीक उलट रही। इसका ताजा मुजाहिरा था-किसानों के हित में बकौल केंद्र सरकार तीन क्रांतिकारी विधेयक जिन्हें संसद के दोनों सदनों में बगैर किसी खास डिस्कशन या वोटिंग के पास करा लिया गया। किसी भी तथाकथित क्रांतिकारी विधेयक को आमतौर पर संसदीय समिति को भेज दिया जाता है ताकि उस पर सम्यक, गंभीर और तकनीकी रूप से संवर्धित चर्चा हो सके। 

क्या वाकई मोदी सरकार ने राज्यों की शक्ति का अतिक्रमण, संसद में विपक्ष की अवहेलना और इन कानूनों पर व्यापक बहस न करा कर वादाखिलाफी की है? इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत सहित दुनिया के केंद्रीय विधायिकाओं में एक परम्परा रही है कि अगर बिल पर एक भी सदस्य ने मतदान के अवसर पर हाथ खड़ा कर आवाज देकर लॉबी डिवीजन यानी स्पष्ट मतदान की मांग की है तो पीठासीन अधिकारी को उसे मानना पड़ता है। 

पिछले कुछ सालों में उत्तराखंड जैसे कुछ राज्य विधायिकाओं में स्पीकरों ने इसकी खुली अनदेखी की, पर संसद के सदनों में इसे संसदीय आचार के खिलाफ माना गया लेकिन इस बार राज्यसभा में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला। दूसरा, सदन के सभापति द्वारा उप सभापति के खिलाफ विपक्ष का अविश्वास-प्रस्ताव यह कह कर कि 14 दिनों का नोटिस  नहीं दिया गया लिहाजा प्रक्रियात्मक त्रुटि के आधार पर खारिज करना, एक विवादास्पद फैसला था। 

यह प्रस्ताव तो मात्र आवेदन के रूप में था जो नोटिस तो स्वीकार होने के बाद बनता और तब दो प्रश्र उठते-14 दिन के नोटिस के रूप में इसे लेने का और दूसरा तब तक उपसभापति को सदन के संचालन से वंचित करने की परम्परा और नियम का। विपक्ष का कहना है कि अविश्वास प्रस्ताव इस आधार पर तत्काल खारिज नहीं किया जा सकता कि सदन स्वयं इसके पहले सत्रावसान में जा रहा है। जहां तक दूसरा प्रश्न है इसे स्वीकार किए जाने के बाद उपसभापति सदन के पीठासीन अधिकारी के रूप में सत्रावसान तक भाग नहीं ले सकते थे।

सहकारी संघवाद के खिलाफ
मुद्दा किसानों का, खेती का और उनकी उपज के विपणन का था। यह तीनों मुद्दे प्रकारांतर से केंद्र और राज्य दोनों के अधिकार क्षेत्र में हैं। लिहाजा क्या यह सरकारी भाव नहीं होता कि केंद्र इस गंभीर मुद्दे पर राज्यों के साथ बैठ कर बातचीत करे, किसान संगठनों की राय ले और आम किसानों को इसके फायदे से वाकिफ कराए और तब कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू करे? नागरिकता कानून के साथ भी यही हुआ कि राज्यों से कोई सलाह नहीं ली गई, जनता को इस मुद्दे पर शिक्षित करने की तो बात ही दीगर है। लिहाजा पूरे देश में विरोध होने लगा।

इसका एक ही और सही समाधान है कानून में एम.एस.पी. का प्रावधान और निजी व्यापारियों/कार्पोरेट घरानों को किसानों से इसके नीचे के दर पर कृषि उत्पाद न खरीदने की बाध्यता। इससे किसान बेचने को मजबूर नहीं किया जाएगा और निजी हितों को डर रहेगा कि अगर उन्होंने नहीं खरीदा तो सरकार खरीदने के लिए खड़ी है। 

अच्छे कानून लेकिन खतरा कहां है?
किसान हित में बनाए गए तीन क्रांतिकारी कानूनों के बाद कार्पोरेट हित देश की कृषि अर्थ-व्यवस्था को अपने हाथों की कठपुतली बना सकते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि किसानों के लिए यह तीनों कानून वरदान साबित हो सकते हैं बशर्ते सरकार लिखित रूप से इस आंशका को निर्मूल साबित करे कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की व्यवस्था जारी रहेगी, किसानों से निजी व्यापारी इस मूल्य से नीचे की खरीद-समझौता नहीं करेंगे और विवाद का निपटारा सीधे न्यायपालिका करेगी न कि कार्यपालिका के अधिकारी। फायदा यह है कि निजी निवेशक इसमें पैसा  और तकनीकी या इस्तेमाल करेगा जिससे उत्पादकता बढ़ेगी। लेकिन खतरा क्या है? 

मान लें उत्तर भारत के चार बड़े राज्यों में कुछ बड़े कार्पोरेट घराने मिलकर किसानों से गेहूं बोने के लिए अच्छे भाव में खरीद का करार करते हैं। जाहिर  है अच्छे पैसे के लालच में सभी किसान अन्य फसलों को छोड़ गेहूं बोना शुरू करेंगे। इन कार्पोरेट घरानों को पूर्वानुमान रहेगा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस बार आलू का अकाल होगा, मध्य प्रदेश में सोयाबीन का और बिहार में मकई का। लिहाजा वे इन जिंसों को पहले से खरीद कर रख लेंगे और बाजार को अपने हिसाब से नियंत्रित करेंगे क्योंकि तीसरा कानून भंडारण पर नियंत्रण खत्म कर रहा है।

फिर कृषि विज्ञान के सिद्धांत के अनुसार खेती में अधिक रासायनिक खादों का प्रयोग साल-दो साल के लिए उपज भले ही बढ़ा दे जमीन की आर्गेनिक उर्वरा शक्ति घटती है। क्या कार्पोरेट हित में इस बात की अनदेखी नहीं होगी? फिर दीर्घकालीन कृषि हित के लिए खेत में फसलों का बदलना (डाईवर्सीफिकेशन), आवर्तन (रोटेशन) और पैटर्न परिवर्तन का किसानों से एग्रीमैंट करते वक्त कार्पोरेट घराने या निजी हित वाले व्यापारी ध्यान रखेंगे?-एन.के. सिंह 
 

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