ट्रम्प से ‘टकराव’ का रास्ता छोड़े ईरान

punjabkesari.in Friday, Jan 10, 2020 - 05:23 AM (IST)

दुनिया में डोनाल्ड ट्रम्प ऐसे शासक हैं जो हमेशा दुनिया को चौंकाते हैं, आश्चर्यचकित करते हैं, हैरानी-परेशानी में डालते हैं, उनके निर्णयों बारे किसी को भी मालूम नहीं होता है पर जब मालूम होता है तो फिर दुनिया में हलचल पैदा होती है, कूटनीतिक गर्मी पैदा होती है, दुनिया की जनमत ही नहीं बल्कि दुनिया की कूटनीति भी पक्ष-विपक्ष में विभाजित हो जाती है। अमरीका कभी मुस्लिम देशों का हितकारी था, उसकी सोच भी वैसी थी जैसी कि आतंकवादियों की हितैषी दुनिया की होती थी। अमरीका में जैसे-जैसे इस्लाम के नाम पर आने वाली आबादी बढ़ती गई, उनकी मजहबी और अतिरंजित विचारों पर उदासीनता पसरी, राजनीतिक तौर पर इन्हें संरक्षण मिला, इनकी घृणास्पद सक्रियताओं पर प्रतिक्रिया नहीं हुई तो फिर राष्ट्रीय अस्मिता और अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह खड़े हो गए। पर वल्र्ड ट्रेड सैंटर पर हुए बर्बर-लोमहर्षक आतंकवादी हमले के बाद अमरीका की सोच बदली। 

मजहबी गोलबंदी के खतरनाक दुष्परिणाम भी सामने आते हैं
दुनिया में कई ऐसे मजहबी देश भी हैं जो न केवल एक विफल देश के रूप में कुख्यात हैं बल्कि मजहबी तौर पर भी पागलपन के शिकार हैं, ऐसे देश दुनिया के सामने एक नहीं बल्कि कई गंभीर, खतरनाक और विनाशक चुनौतियां खड़ी कर रहे हैं, इन सभी नकारात्मक चुनौतियों से दुनिया के सभ्य, विकासशील और विकसित देश सीधे तौर पर प्रभावित हो रहे हैं, रक्त रंजित हिंसा और विनाशक विचारों के प्रचार-प्रसार से दुनिया भी क्षुब्ध है। क्या यह सही नहीं है कि दुनिया की शांति, सद्भाव और सहिष्णुता को बार-बार लहूलुहान नहीं किया जाता है, निर्दोषों का खून नहीं बहाया जाता है, फिर ऐसे समूहों और देशों को संरक्षण प्राप्त नहीं होता है? जब क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया होती है तो फिर बचाव में मानवाधिकार का शोर मचा दिया जाता है, मजहबी तौर पर प्रताडि़त करने का शोर मचा दिया जाता है, फिर मजहबी असहिष्णुता रखने वाली आबादी की गोलबंदी भी शुरू हो जाती है, मजहबी गोलबंदी के खतरनाक दुष्परिणाम भी सामने आते हैं। 

अभी-अभी डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने इस निर्णय से दुनिया को फिर चौंकाया है, आश्चर्यचकित किया है, हैरानी-परेशानी में डाला है। पर इसी बहाने एक देश का आतंकवादी चेहरा जो दुनिया की जनमत के नजरों से छिपा था वह बाहर आ गया। डोनाल्ड ट्रम्प ने एकाएक ईरान के ऐसे जनरल को मार गिराया जो न केवल ईरान के सैनिक मिशन का अगुवा था बल्कि मुस्लिम दुनिया के अंदर चल रहे गृहयुद्धों को भड़काने और आतंकवाद के माध्यम से सत्ता स्थापित-निर्धारण करने के लिए अभियानरत था। 

अमरीका के हवाई हमले में जिस कासिम सुलेमानी की मौत हुई है वह कोई शांति का पुजारी नहीं था, वह कोई सद्भाव का अगुवा नहीं था, वह कोई सहिष्णुता का सहचर नहीं था। फिर वह क्या था, उसकी सैनिक गतिविधियां क्या थीं, ईराक उसका कोई अपना देश भी नहीं था, ईराक कोई ईरान का औपनिवेशिक ठिकाना भी नहीं था, ईराक एक स्वतंत्र देश है, उसकी स्वतंत्र मान्यताएं विराजमान हैं, फिर ईरान का शीर्ष सैनिक कासिम सुलेमानी ईराक में क्या कर रहा था? ईराक में वह अपने नेतृत्व में अमरीकी सैनिक अड्डों पर हमले क्यों करवा रहा था? ईराक में आतंकवादी हमले क्यों करवा रहा था? क्या वह आतंकवाद का नेतृत्व कर ईराक में राजनीतिक स्थिरता को भंग नहीं कर रहा था? इन सभी प्रश्नों का उत्तर तो ईरान से मांगा ही जाना चाहिए पर दुनिया की एकाकी सोच इस रास्ते में बाधक है और दुनिया भर में इस्लाम के नाम पर फैलाए जा रहे आतंकवाद व भीषण विचारों के संरक्षण जैसा है। 

ईराक एक शिया बहुलता वाला देश है पर सद्दाम हुसैन सुन्नी थे। अभी-अभी ईराक के अंदर में शिया-सुन्नी संघर्ष कोई शांत नहीं है बल्कि जारी है, वह भी भीषण तौर पर। ईरान जहां ईराक में शिया बहुलता वाली सरकार की स्थापना चाहता है और सुन्नी समर्थक राजनीति को अपनी कुद्स सेना के माध्यम से कुचल कर अमरीका को अपनी शक्ति का एहसास कराना चाहता है, वहीं अमरीका यह कभी नहीं चाहता है कि ईराक में ईरान की समर्थक सरकार की स्थापना हो या फिर ईरान समर्थित लोगों का वर्चस्व कायम हो सके। ईराक के अंदर के कई आतंकवादी संगठन हैं जो पूरे ईराक पर कब्जा करने के लिए हिंसक और तेजाबी संघर्ष को जारी रखे हुए हैं। 

अब जो पर्दा उठा है उस पर गौर किया जाना चाहिए। ईरान की कुद्स फोर्स सिर्फ ईराक में ही सक्रिय नहीं थी, सिर्फ ईराक में ही आतंकवादी गतिविधियों में नहीं लगी थी। बल्कि उसकी सक्रियता और स्पष्ट उपस्थिति सीरिया में भी थी, लेबनान में भी है और सऊदी अरब के पड़ोसी देशों में भी है। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि इन सभी मुस्लिम देशों में ईरान की कुद्स सेना की उपस्थिति क्यों थी? अगर ईरान की कुद्स सेना की उपस्थिति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष थी तो फिर उसकी सूचना पूरी दुनिया या फिर पूरी दुनिया को नियंत्रित करने वाले संस्थान संयुक्त राष्ट्रसंघ को क्यों नहीं दी गई थी। 

हमारा इस्लाम अच्छा है और तुम्हारा खराब
क्या यह सही नहीं है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ उन सभी मुस्लिम देशों में शांति और सद्भाव स्थापित करने की कोशिश में है जहां पर इस्लाम के नाम पर ङ्क्षहसा जारी है, हमारा इस्लाम अच्छा और तुम्हारा इस्लाम खराब है के नाम पर गृहयुद्ध जारी है। दुनिया की जनमत के एक बड़े हिस्से की सोच भी यहां उल्लेखनीय है। ईरान की विनाशक नीति से 2 ऐसे देश डरे हुए हैं जो अमरीका के बेहद करीबी भी हैं और सैनिक भागेदारी भी है इनकी। ये दोनों देश हैं इसराईल और सऊदी अरब। इसराईल के खिलाफ भयानक और मजहबी सोच का प्रदर्शन ईरान बार-बार करता है। कभी इसराईल ने ही कासिम सुलेमानी को मार गिराने का मास्टर प्लान बनाया था पर उस समय अमरीका ने उसे रोक दिया था। इसराईल का कहना था कि ईरान फिलस्तीन में सैनिक दखल दे रहा है, फिलस्तीन के आतंकवादी संगठनों को हथियार और प्रशिक्षण दे रहा है, आर्थिक सहायता भी दे रहा है। जबकि सऊदी अरब भी ईरान की बढ़ती सैनिक गतिविधियों से चिंतित था। 

सऊदी अरब की चिंता का विषय यह भी था कि ईरान लेबनान, सीरिया और लीबिया जैसे मुस्लिम देशों में सैनिकों की गतिविधियों को संचालित कर रहा है, सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि सऊदी अरब के पड़ोसी देशों में भी ईरान का गैर कूटनीतिक वर्चस्व बढ़ा है, आतंकवादियों को संरक्षण और सहायता देकर अस्थिरता कायम करने के आरोप हैं। जानना यह भी जरूरी है कि सऊदी अरब सुन्नी तो फिर ईरान शिया देशों का नेतृत्व करते हैं। अमरीका की मजबूरी सिर्फ ईराक में शांति और राजनीतिक स्थिरता को कायम करना भर नहीं है बल्कि अपने समर्थक सऊदी अरब और इसराईल की असुरक्षा चिंताओंं का भी समाधान करना है। 

दुनिया चाहे जितना भी हो-हल्ला कर ले पर डोनाल्ड ट्रम्प पर कोई फर्क पडऩे वाला नहीं है, अब तक डोनाल्ड ट्रम्प अपनी आलोचनाओं को खारिज कर आगे बढ़ते रहे हैं तथा अपनी सैनिक और असैनिक कार्रवाइयों से न केवल मुस्लिम देशों बल्कि यूरोप को भी डराते-धमकाते रहे हैं। इसलिए यह कहना सही नहीं होगा कि ईरान के बदले की कार्रवाइयों से डोनाल्ड ट्रम्प डर जाएगा। बल्कि डोनाल्ड ट्रम्प युद्ध भी लड़ सकता है। इसलिए ईरान की भी जिम्मेदारियां हैं जिनका पालन करते हुए  उसे युद्ध के अवसर पैदा होने से रोकना होगा। ईरान को भी अमरीका के खिलाफ अनावश्यक घेराबंदी रोकनी होगी, सैनिक उछल-कूद रोकनी होगी।-विष्णु गुप्त


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