राष्ट्रपति पद की ‘संस्थागत पवित्रता’ बनाए रखी जाए

Monday, Jun 19, 2017 - 10:32 PM (IST)

राजनीतिक अभियानों को इस तरह भावनात्मक बनाया जाता है कि वास्तविक मुद्दों से लोगों का ध्यान हटे। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के उत्तराधिकारी की खोज के लिए चल रहे राजनीतिक दाव-पेंच को देखकर ऐसा ही लगता है। अल्पमत विपक्ष राजग सरकार के पहले कदम की प्रतीक्षा कर रहा है। इस संबंध में कोई निर्धारित नियम या मानदंड नहीं है और यह राजनीतिक समीकरणों पर निर्भर करता है।

विपक्ष इस संबंध में सरकार पर साम्प्रदायिक हिन्दुत्ववादी और संकीर्ण होने का आरोप लगा रहा है तथा एक तरह से इन चुनावों को दक्षिणपंथी बनाम मध्यममार्गीयों के बीच का संघर्ष बना दिया गया है। इसका सरोकार इस बात से नहीं है कि राष्ट्रपति भवन में अच्छा व्यक्ति प्रवेश करे, न ही इसका सरोकार उसकी विश्वसनीयता से है अपितु इसका सरोकार एक राजनीतिक संदेश देना और यह स्पष्ट करना है कि वह मेरा- हमारा आदमी है। सभी राजनीतिक दल मत प्राप्त करने और अपना जनाधार बढ़ाने के लिए सम्प्रदाय, जाति, पंथ और क्षेत्रीयता के मुद्दों का दोहन कर रहे हैं। यह चुनाव 2019 के लोकसभा चुनाव से पूर्व विपक्षी दलों के बीच एक नए राजनीतिक समीकरण अर्थात महागठबंधन का संकेत भी देता है। 

नि:संदेह बहुमत भाजपा के पास है और इसलिए अधिकतम लोगों का मत है कि प्रधानमंत्री मोदी अपनी पसंद का व्यक्ति चुनेंगे और शायद वह भगवा संघ से होगा। इसके साथ ही नए उपराष्ट्रपति भी उनकी पसंद के होंगे। नि:संदेह राजग सरकार विभिन्न दलों से आम सहमति बनाने के लिए चर्चा कर रही है किन्तु यह मात्र एक औपचारिकता है। इस संबंध में अनेक नाम उछल रहे हैं। झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाइक, ‘मैट्रो मैन’ श्रीधरन, लोकसभा के पूर्व उपाध्यक्ष करिया मुंडा, केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत आदि। किन्तु अंतत: भाजपा ने श्री रामनाथ कोविंद के नाम पर अपनी मोहर लगा दी। 

विपक्ष जानता है कि उसके पास बहुमत नहीं है फिर भी वह अपना उम्मीदवार खड़ा करना चाहता है। विपक्ष को इस बात का पूर्ण अधिकार है कि वह इस अवसर का लाभ लेकर विपक्षी दलों को एकजुट करे और भाजपा विरोधी मोर्चा बनाए। वे लोग मोदी का विरोध करते हैं, किन्तु सबसे दुखद तथ्य यह है कि ये संकीर्ण सोच वाले नेता मोदी और हिन्दुत्व राजनीति को नीचा दिखाने के लिए खेल खेल रहे हैं। हालांकि नमो ने स्पष्ट किया है कि वह इतिहास बनाएंगे। मुद्दा यह नहीं है कि राष्ट्रपति कौन होगा अपितु यह  है कि क्या उसका चुनाव दलीय आधार पर होना चाहिए? क्या राष्ट्रपति का उम्मीदवार चुने जाने में जातीय समीकरणों को ध्यान में रखा जाना चाहिए और क्या इसके लिए उसे पार्टी के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए?

प्रश्न उठता है कि राष्ट्रपति के चुनाव में मतदाता दलीय आधार पर क्यों मतदान करें और यह 80 प्रतिशत सत्ता पक्ष और 20 प्रतिशत विपक्ष के बीच अहं का मुद्दा क्यों बने। यह सच है कि राजनीतिक दलों को राष्ट्रपति के रूप में सर्वोत्तम व्यक्ति की तलाश और चुनाव का अधिकार है किन्तु मतदाताओं पर कोई दबाव नहीं होना चाहिए। उदाहरण के लिए अन्नाद्रमुक के विभिन्न गुटों को मनाने का प्रयास किया जा रहा है और यही स्थिति छोटे क्षेत्रीय दलों की है। राष्ट्रपतीय और उपराष्ट्रपतीय निर्वाचन अधिनियम 1952 में इस बात का विशेष रूप से प्रतिषेद्ध किया गया है कि ऐसे चुनाव में अनुचित प्रभाव का उपयोग नहीं किया जाएगा। वस्तुत: इस अधिनियम की धारा 13 में इसे भारतीय दंड संहिता की धारा 171 के अधीन अपराध बताया गया है और इसके आधार पर राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव को चुनौती दी जा सकती है।

राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के चयन के मामले में भारत ने एक लम्बी यात्रा तय की है।  67 वर्ष पूर्व इस पद के लिए एक भारतीय नागरिक का चयन किया जाता था किन्तु आज इसके साथ जातिवाद, पंथवाद, क्षेत्रवाद आदि कई वाद जुड़ गए हैं। देश के 2 सर्वोच्च पदों पर उत्तर भारत और दक्षिण भारत का प्रतिनिधित्व एक स्वस्थ परम्परा थी किन्तु ऐसा सर्वोत्तम उम्मीदवार की कीमत पर नहीं किया जाना चाहिए। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि राष्ट्रपति कौन बनता है-आदिवासी, दलित, ब्राह्मण या कोई और, क्योंकि इससे किसी जाति या समुदाय का उत्थान नहीं होने वाला और न ही उनकी समस्याएं दूर होने वाली हैं। रोजगार और विधानसभा में आरक्षण ठीक है किन्तु इस अधिकार का उपयोग राष्ट्रपति पद के लिए करना उचित नहीं है।  

इसका मतलब है कि आप हमारे लोकतंत्र में समावेशी भावना को बढ़ावा देने की आड़ में अतीत की ओर जा रहे हैं। यदि ऐसा होता है तो हमारा राष्ट्रपति उसकी बुद्धि और विवेक के लिए नहीं अपितु दक्षिण भारतीय मुसलमान, ब्राह्मण, दलित, महिला, धर्मनिरपेक्ष या हिन्दुत्व पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में जाना जाएगा। इंदिरा गांधी ने उन्हें गूंगी गुडिय़ा कहने वाले सिंडीकेट को हराने के लिए संजीव रैड्डी के विरुद्ध वी.वी. गिरि को वोट देने के लिए अंतरात्मा की आवाज सुनने के लिए कहा था और पंजाब में भिंडरांवाले को निष्क्रिय करने के लिए जैल सिंह को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया था। आज वे दिन नहीं रह गए जब लोग राधाकृष्णन को तमिल नहीं बल्कि एक दार्शनिक नेता के रूप में देखते थे। राजेन्द्र प्रसाद को बिहारी नहीं अपितु स्वतंत्रता सेनानी के रूप में देखा जाता था। कलाम को मुसलमान नहीं अपितु एक महान वैज्ञानिक के रूप में देखा जाता था। 

क्या राष्ट्रपति किसी पार्टी से जुड़ा होना चाहिए, बिल्कुल नहीं। संविधान में स्पष्ट प्रावधान है कि अपने कार्यों को कानूनों के अनुसार चलाने और किसी पार्टी का निर्देश न मानने के लिए राष्ट्रपति को दलीय राजनीति से परे रहना चाहिए। उसके पद को निष्ठा की परीक्षा, पुरस्कार या क्षतिपूर्ति के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। न ही इस पद के उम्मीदवार को उम्मीदवारी के पक्ष में राजनीतिक दलों से बात करनी चाहिए। निर्वाचित होने के बाद राष्ट्रपति अपना राजनीतिक चोला फैंक देता है और उसे उसकी राजनीतिक कुशलता, सत्यनिष्ठा, धर्मनिरपेक्षता और धर्मपरायणता के लिए जाना जाता है। ‘एक्टिविस्ट’ राष्ट्रपति के लिए भी कोई स्थान नहीं है। उसका कार्य प्रधानमंत्री के लिए स्पीड ब्रेकर बनना नहीं है।  

वह न तो रबड़ की मोहर है न ही वह पार्टी को सेवा देने के बदले सेवानिवृत्त नेताओं का स्थान है। इन प्रश्नों का उत्तर महत्वपूर्ण है। आज राजनीति ऐसी दिशा में बढ़ गई है कि राष्ट्रपति का पद एक औपचारिक पद से आगे बढ़ गया है और विशेष रूप से खंडित और निराश विपक्ष को ध्यान में रखते हुए यह स्थिति और बढ़ गई है क्योंकि लोकतंत्र में सरकार पर अंकुश रखने के लिए विपक्ष अत्यधिक महत्वपूर्ण है। कुल मिलाकर नमो को इस पद की संस्थागत पवित्रता को बनाए रखना होगा। 

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