पर्यावरण पर उपदेश और नसीहत के बजाय सोच बदलें

Saturday, Jun 10, 2023 - 04:57 AM (IST)

प्रति वर्ष जून में विश्व पर्यावरण दिवस एक परंपरा निभाने की तरह मनाया जाता है। इसकी शुरूआत सन् 1972 में संयुक्त राष्ट्र के स्टॉकहोम अधिवेशन में हुई। इसे सामान्य नागरिक को स्वस्थ वातावरण देने और उसका बुनियादी अधिकार मानने के संकल्प की तरह देखा गया। हर साल एक थीम चुना जाता है और उसके अनुसार दुनिया भर में जागरूकता फैलाने के लिए कार्यक्रम बनाए जाते हैं और एक रिचुअल यानी रस्म अदायगी के बाद भुला दिया जाता है। इस बार भी प्लास्टिक के नुक्सान और उससे होने वाले प्रदूषण को समाप्त करने का थीम रखा गया।

कथनी और करनी : हकीकत यह है कि दुनिया कुछ भी कहे और प्लास्टिक की जितनी चाहे बुराई कर ले, प्लास्टिक का इस्तेमाल रुकने वाला नहीं है। कारण यह है कि 400 मिलियन टन वार्षिक इसका उत्पादन होता है। 10 प्रतिशत से भी कम रिसाइकल होता है कुछ समुद्र में चला जाता है और शेष अपना घातक प्रभाव छोड़ता जाता है। बताते हैं कि इंसान हर साल लगभग 50 हजार माइक्रो प्लास्टिक के कण उपभोग करता है यानी खा जाता है जो सेहत के लिए हानिकारक है। यह बात इसलिए बताई कि जब उत्पादन बंद नहीं होगा तो किस मुंह से प्लास्टिक के दुष्प्रभावों से बचने की बात की जाती है। कुछ दिन पहले सिंगल यूज प्लास्टिक का इस्तेमाल बंद करने की बात सुनाई दी थी जो अब हवा हवाई हो चुकी है और धड़ल्ले से इसका पहले से भी ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है क्योंकि इसका उत्पादन बढ़ रहा है। 

पर्यावरण की व्याख्या : पर्यावरण या वातावरण को सीधी तरह समझा जाए तो यह और कुछ नहीं बल्कि ‘प्र’ से प्रकृति का आवरण या पर्दा है जो संसार के सभी जीवधारियों की सुरक्षा के लिए बना है। इसी प्रकार वातावरण का वात या वायु का आवरण या पर्दा है जो जीवन को बचाए रखता है क्योंकि हवा न हो तो सांस नहीं ले सकते और जीवन समाप्त। कुदरत ने हमारी रक्षा के लिए अपने आवरण के जरिए उन सब चीजों का प्रबंध किया जो जरूरी हैं। हमने क्या किया, इस पर्दे को जितना हो सके नष्ट करने का काम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। प्रकृति का सिद्धांत है कि सभी जीव, पेड़-पौधे जन्मते हैं और मृत होते हैं और संसार चलता रहता है। 

प्रकृति ने अपने आवरण के बाहर यानी अंतरिक्ष, धरती और नीचे ऐसी व्यवस्था की जहां इंसान की पहुंच नहीं थी लेकिन ये सब उसके जीवन के लिए अनिवार्य थीं। विज्ञान ने इन जगहों पर भी जाना संभव कर दिया। यहां तक सब ठीक था क्योंकि प्रगति के लिए टैक्नोलॉजी चाहिए थी। कृषि हो, उद्योग हो, व्यापार हो, संचार और आवागमन के साधन हों, ऊर्जा का उत्पादन हो, नई चीजों की खोज हो, अनुसंधान हो, मतलब यह कि समृद्धि और संपन्नता हमारी आवश्यकता बन गई जिसमें कोई बुराई नहीं थी। तो फिर गलती कहां हुई जो आज मनुष्य प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग और ऐसे ही दूसरे संकटों से घिरा हुआ है। साफ हवा, शुद्ध जल और भोजन के लिए तरसने की हद तक जा पहुंचा है। 

एक अनुमान के मुताबिक (लगभग 22 हजार टन कचरा आकाश में जमा हो चुका है और जो कभी-कभी किसी रहस्यात्मक वस्तु के रूप में धरती या समुद्र में गिरता दिखाई देता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि कई नष्ट हो गए और अपनी उपयोगिता समाप्त कर चुके उपकरणों का यह कचरा पृथ्वी पर इंसान की अनेक मुसीबतों के लिए जिम्मेदार है। प्रश्न यह है कि क्या वैज्ञानिकों ने यह नहीं सोचा होगा कि इस आकाशीय कचरे को निपटाने की क्या विधि होनी चाहिए ताकि मानव जीवन पर संकट न आए?

खेतीबाड़ी में रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है और अगर यह जरूरत से ज्यादा हो जाए तो कृषि उपज का जहरीला होना लाजिमी है। इसी तरह पशु पालन, डेयरी उद्योग, फूड प्रोसैसिंग, डिब्बाबंद चीजें हैं जो हमारी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करती हैं। इनमें भी कैमिकल का इस्तेमाल होता है जो इन्हें लंबे समय तक इस्तेमाल करने लायक बनाए रखता है। इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए कानून भी हैं। लेकिन फिर भी नकली, मिलावटी, दूषित और अपौष्टिक खाद्य पदार्थों के सेवन से लोगों का जीवन संकट में पड़ जाता है। लोग बीमारियों का शिकार होते हैं, उनका स्वास्थ्य खतरे में पड़ जाता है। 

क्या यह सब रोकने का उपाय है? जरूर है लेकिन उसके लिए विज्ञान के साथ-साथ समाज और कानून की भी भूमिका है। प्रश्न यह है कि जीवन को मौत तक देने वाले मिलावटियों को मृत्यु दंड क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? इसी तरह उद्योगों से निकला विषैला रसायन नदियों और दूसरे जल स्रोतों को जहरीला बनाता है। विज्ञान ने इसके लिए पूरी व्यवस्था की है लेकिन ऐसे उद्योगों को चलने ही क्यों दिया जाता है जिनके लिए न तो वैज्ञानिक तरीकों का कोई अर्थ है और न ही कानून का डर है। 

यह जान लीजिए कि न तो जीवन का अंत है और न ही प्रकृति का। दोनों के बीच सही तालमेल न होने से आपस में संघर्ष होना तय है। कुदरत से जीतना संभव नहीं क्योंकि मनुष्य चाहे कितनी कोशिश कर ले, प्रकृति के बनाए पर्दे को नष्ट नहीं कर सकता, उसमें एकाध छिद्र बेशक कर ले। यदि हम एक साधारण-सी बात समझ लें और वह भी इस उदाहरण के साथ कि हमारे शरीर के अधिकतर अंग अपनी चिकित्सा, उनका बढऩा या घटना, फिर से नए बन जाना स्वयं कर लेते हैं अर्थात यह एक प्राकृतिक शारीरिक प्रक्रिया है। जब यह है तो प्रकृति क्यों जरूरत से ज्यादा अपने काम में इंसान की दखलंदाजी बर्दाश्त करेगी? इसलिए उसके साथ तालमेल बिठाकर ही जीवन को सुख और खुशहाली से भरा जा सकता है।-पूरन चंद सरीन
 

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