‘नोटबंदी’ कारण ही बदतर हुई भारतीय अर्थव्यवस्था

Sunday, Jan 01, 2017 - 11:56 PM (IST)

हमें इस बात पर प्रसन्न होना चाहिए कि सरकार के अनुसार 2014-15 और 2015-16 में भारतीय अर्थव्यवस्था में 7.4 प्रतिशत (नई शृंखला) की औसत दर से वृद्धि हुई है। सरकार के आकलन के अनुसार चालू वर्ष में भी जी.डी.पी. लगभग 7.5 प्रतिशत की दर से वृद्धि दर्ज करेगी।

हमें प्रसन्नता होनी चाहिए कि भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे तेज गति से विकास कर रही विशालतम अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। वर्तमान में महंगाई का थोक कीमत सूचकांक (डब्ल्यू.पी.आई.) लगभग 3.15 प्रतिशत और उपभोक्ता कीमत सूचकांक  लगभग 3.63 प्रतिशत है। वित्तीय घाटा भी 2016-17 के बजट में 3.5 प्रतिशत के संभावित आंकड़े से नीचे रहेगा। विदेशी मुद्रा भंडार भी इस समय लगभग 360 बिलियन डालर है जोकि काफी स्वस्थ स्तर है।

2016 के समाप्त होते ही पूरे देश द्वारा अर्थव्यवस्था की ऐसी शानदार स्थिति का जश्न मनाया जाना चाहिए था लेकिन जश्न वाली बात तो कहीं भी दिखाई नहीं दी। लोग अपने तात्कालिक भविष्य को लेकर निरुत्साह, निराश और आशंकित क्यों हैं? इसका निकटतम कारण नि:संदेह विमुद्रीकरण यानी नोटबंदी है (जिसके बारे में मैंने बहुत कुछ लिखा है) लेकिन इससे भी गहरे कारण मौजूद हैं।

सरकार में मौजूद लोगों (और खास तौर पर उन कुंजीवत अधिकारियों, जिन्होंने कूटनयिक मौन धारण करने का रास्ता अपनाया हुआ है) के माथे की शिकन बताती है कि ‘सबसे तेज गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्था’ की शेखियों की बजाय असली कहानी बिल्कुल अलग है। आइए हम इन कारणों में से 5 पर चर्चा करें :

1. विदेशी निवेशकों का विश्वास बुरी तरह डगमगा गया है। फारेन पोर्टफोलियो इन्वैस्टमैंट (एफ.पी.आई.) को हम एक मानक के रूप में देखते हैं। अक्तूबर 2016 तक विशुद्ध एफ.पी.आई. का सकारात्मक आंकड़ा 43,428 करोड़ रुपए था। 

नवम्बर और दिसम्बर में इस प्रवाह में नाटकीय रूप में उलटबाजी देखने को मिली जब  66,137 करोड़ रुपए का विदेशी निवेश देश से बाहर चला गया। इस प्रकार एफ.पी.आई. नकारात्मक रूप ग्रहण करके 22,709 करोड़ रुपए के आंकड़े पर आ गई। इससे पहले एफ.पी.आई. का आंकड़ा केवल 2008 में ही नकारात्मक हुआ था जब पूरी दुनिया अभूतपूर्व वित्तीय संकट की शिकार हो गई थी।

यदि 2008 में इस पैसे के देश से बाहर जाने को ‘सुरक्षा की ओर उड़ान’ करार दिया गया था तो 2016 में ‘अनिश्चितता से बचने की उड़ान’ करार देना होगा। देश और सरकार के सामने यह सवाल मुंह बाए खड़ा है कि क्या यह अनिश्चितता समाप्त होगी और विदेशी निवेशक शीघ्र ही भारत की ओर रुख मोड़ लेंगे?

2. दिसम्बर 2015 में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आई.आई.पी.) 184.2 था। अप्रैल 2016 में यह घटकर 175.5 तथा अक्तूबर 2016 में 178 था। आई.आई.पी. को कारखाना क्षेत्र के स्वास्थ्य का सूचक माना जाता है। इस सूचकांक में आई गिरावट स्वत: ही स्थिति की सच्चाई बयां कर देती है।

सबसे बुरी तरह नापायदार उपभोक्ता वस्तुओं का क्षेत्र प्रभावित हुआ जिसमें 25 प्रतिशत गिरावट आई है। पूंजीगत उत्पादों के क्षेत्र में गिरावट 6 प्रतिशत है। यदि मार्च, 2017 में आई.आई.पी. का आंकड़ा अप्रैल 2016 से भी नीचे चला जाए तो भी कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। उल्लेखनीय है कि 2016 एक ऐसा वर्ष था जब वास्तव में औद्योगिक उत्पादन घटा था। भगवान ही जाने ‘मेक इन इंडिया’ का क्या हश्र होगा?

3. बैंकों और वित्तीय संस्थानों द्वारा दिए गए कर्ज में वृद्धि आॢथक गतिविधियों का पैमाना होती है। नवम्बर 2016 के अंत में गत वर्ष की तुलना में यह वृद्धि दर 6.63 प्रतिशत थी जोकि किसी भी एक वर्ष में ऋण वृद्धि का न्यूनतम आंकड़ा था। यदि इससे भी नीचे का आंकड़ा तलाश करना हो तो हमें कई दशक पीछे लौटना होगा। इसमें से गैर-खाद्य ऋण वृद्धि का आंकड़ा 6.99 प्रतिशत था।

मझौले पैमाने के उद्योग (जैसा कि कपड़ा, चीनी, सीमैंट, पटसन इत्यादि) एक ऐसा प्रखंड हैं जहां हमें नियमित एवं पक्का रोजगार देखने को मिलता है। साल-दर-साल लिहाज से देखा जाए तो मझौले उद्योगों को दिए जाने वाले ऋण में जुलाई, 2015 से लेकर हर माह लगातार नकारात्मक वृद्धि दर दर्ज हो रही है।

यदि हम लघु और सूक्ष्म उद्योगों पर दृष्टिपात करें तो स्थिति इससे भी बदतर है। वर्तमान में लघु और सूक्ष्म उद्योगों के मामले में ऋण वृद्धि दर -4.29 प्रतिशत है जोकि नकारात्मक है। नोटबंदी ऊंट की रीढ़ तोडऩे वाला आखिरी तिनका साबित हुई है और इन उद्योगों में से कई एक ने तो काम करना ही बंद कर दिया है और लाखों श्रमिक बेरोजगार हो गए हैं।

4. जहां ऋण वृद्धि दर लगातार सुस्त बनी हुई है और इस तथ्य का संकेत है कि निवेशीय ऋण के लिए मांग बहुत कम है, वहीं बैंकों की सकल गैर-निष्पादित सम्पत्ति (एन.पी.ए.) की स्थिति सितम्बर 2015 से सितम्बर 2016 के बीच बदतर होते हुए 5.1 प्रतिशत से बढ़कर 9.1 प्रतिशत हो गई है। इसे बैंकिंग क्षेत्रपर दोहरे वज्रपात के रूप में देखा जा रहा है।

बैंकों के पास ऋण लेने वाले लोग बहुत कम संख्या में आ रहे हैं और इसी बीच पुराने ऋणों की वसूली भी बैंकोंके लिए दूभर होती जा रही है। ऐसी स्थिति मेंअटल रूप में यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि औद्योगिक क्षेत्र के पुनरुत्थान का वायदा केवल वायदा बनकर ही रह गया है और इस क्षेत्र में दोबारा बहाली के कोई संकेत दिखाई नहीं दे रहे।

5. निर्यात गतिविधियां हमारे कारखाना उत्पादन की क्षमताओं तथा हमारी अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्धात्मकता का भरोसेमंद पैमाना हैं। गत कुछ वर्षों की जनवरी से नवम्बर तक की अवधियों दौरान गैर-पैट्रोलियम उत्पादों के निर्यात की कीमत पर दृष्टिपात करें :
2012 : 218.79 बिलियन डालर
2013 : 228.26 बिलियन डालर
2014 : 236.94 बिलियन डालर
2015: 216.11 बिलियन डालर
2016 : 213.80 बिलियन डालर

इस गिरावट को कुछ हद तक तो ब्रेग्जिट एवं संरक्षणवाद जैसे कुछ ग्लोबल कारकों के माथे मढ़ा जा सकता है लेकिन इसका मुख्य कारण भारतीय कारखाना उद्योग की शक्तियों का क्षरण है। भयावह सच्चाई यह है कि जहां कारखानों के माल के निर्यात में गिरावट आ रही है, वहीं विदेशी बाजार हमारे हाथों में से फिसल रहे हैं और रोजगारों में कटौती की जा रही है।

एक बार हाथ से निकले हुए बाजारों को दोबारा हासिल करना आसान नहीं क्योंकि उनकी मांग पूरी करने के लिए कोई और देश वहां अपनी पैठ बना चुका होगा। न प्रधानमंत्री और न ही वित्त मंत्री ने कारखाना उत्पादों के निर्यात  में आई गिरावट पर खतरे की घंटी बजाई है। स्थिति को उलटा घुमाने के तौर-तरीकों के बारे हमने कोई गम्भीर वार्तालाप नहीं सुनी।

मैंने केवल 5 मुद्दों को रेखांकित किया है जो हमारी अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य के सूचक हैं। पूर्वाग्रहों से मुक्त किसी भी पर्यवेक्षक को यह स्वत: स्पष्ट होगा कि एफ.पी.आई., आई.आई.पी., ऋण वृद्धि, एन.पी.ए. एवं निर्यात के पांचों मुद्दे नोटबंदी से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। इसलिए नोटबंदी की यदि कोई उपलब्धि है तो केवल इतनी कि भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत 8 नवम्बर 2016 के बाद पैदा हुए विशाल पैमाने के व्यवधान के कारण पहले से भी बदतर हो गई है।

मैं यह उल्लेख किए बिना इस स्तम्भ को समाप्त नहीं कर सकता कि जम्मू-कश्मीर में अंजाम दी गई  30 सितम्बर की ‘सॢजकल स्ट्राइक’ के लिए भी हम अभी तक कीमत अदा कर रहे हैं। तब से लेकर अब तक हमारे सुरक्षा बलों के 33 जवान जम्मू-कश्मीर में शहीद हो चुके हैं। 25 दिसम्बर तक की गत वर्ष की अवधि में सुरक्षा बलों के शहीदों का आंकड़ा 87 हो चुका था जो कि 2015 के आकंड़े से दोगुना है। फिर भी मैं आप सब को इस आशा के साथ नववर्ष की शुभकामनाएं देता हूं कि यह वर्ष सचमुच में मंगलमय सिद्ध हो।    

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