विश्व शांति में भारत का योगदान

punjabkesari.in Saturday, Sep 21, 2024 - 06:14 AM (IST)

कहते हैं कि युद्ध मनुष्य, के दिमाग की उपज होता है, प्रश्न यह है कि क्या इसके स्थान पर उसमें शांति की पैदावार नहीं हो सकती? संयुक्त राष्ट्र ने 25 वर्ष पहले अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस की शुरूआत की। इस संदर्भ में यह समझना होगा कि हमारे लिए आज इसका क्या महत्व है! 

गलती की सजा : हमारे देश में इंडियन पीस कीपिंग फोर्स यानी भारतीय शांति स्थापना बल की कल्पना और उसका गठन स्वर्गीय राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल में किया था। उल्लेखनीय है कि उन्हें प्रधानमंत्री पद एक तरह से राजनीतिक विरासत के रूप में मिला था जिसमें योग्यता कोई कसौटी नहीं थी!आई.पी.के.एफ. के बारे में 2 बहुत ही सारगर्भित तथा चौंकाने वाले तथ्यों से भरपूर पुस्तकें उनके लेखक तथा संपादक और संकलनकत्र्ता कर्नल अतुल कोचर तथा कर्नल बी.आर.नायर ने पढऩे के लिए दीं। इस विषय पर उनसे विस्तार से बातचीत भी हुई।

हुआ यह था कि पड़ोसी देश श्रीलंका में तमिल और सिंहली भाषियों के बीच सत्ता को लेकर संघर्ष चल रहा था। तमिलभाषी अपने लिए अलग राज्य की मांग कर रहे थे और बहुत से अवैध रूप से भारत में घुसपैठ कर रहे थे। राजीव गांधी से श्रीलंका के राज्यवर्धने ने उनसे सहायता को लेकर या जो भी उनका मंसूबा रहा हो, मुलाकात की। आनन-फानन में भारत-श्रीलंका समझौता हो गया। इस बारे में मणि शंकर अय्यर ने राजीव गांधी पर लिखी पुस्तक में इस घटना का जिक्र किया है। वे लिखते हैं कि बाहर हॉल में समझौते पर हस्ताक्षर हुए और उसके बाद राजीव और राज्यवर्धने बगल के कमरे में गए। उनके बीच जो बात हुई, वही जानें लेकिन बाहर आकर घोषणा कर दी कि भारत श्रीलंका में वहां के विद्रोहियों को सबक सिखाने और शांति स्थापित करने के लिए अपना सैन्य बल भेजेगा। इस तरह आई.पी.के.एफ. का गठन हो गया और चुनिंदा सैनिकों को भेजने के आदेश दे दिए गए। यहां यह बताना सही होगा कि विश्व की 2 महाशक्तियां अमरीका और रूस दूसरे देशों के अंदरूनी और आपसी झगड़ों को सुलझाने तथा वहां शांति स्थापित करने के नाम पर अपनी फौजों को भेजती रही हैं। उनका काम उस बंदर की तरह होता है जो 2 बिल्लियों की लड़ाई में चौधरी बनकर अपना उल्लू सीधा करता है। 

इन दोनों ताकतों का असली मकसद अपने हथियारों का परीक्षण और उनकी मारक क्षमता को भुनाकर अन्य देशों को बेचना होता है। इस चक्कर में वे देश तबाह हो जाते हैं जो उनके शांति बहाल करने के झांसे में आ जाते हैं। भारत ने कभी अपनी सैन्य शक्ति का बेवजह प्रदर्शन नहीं किया और महासमर शक्ति कहलवाने की हवा को बढ़ावा नहीं दिया और न ही कोई सनक पाली। राजीव गांधी यहीं चूक गए और इंदिरा गांधी की तरह नाम कमाने की जल्दबाजी कर दी जो पाकिस्तान के 2 टुकड़े करके उन्होंने कमाया था। राजीव गांधी भूल गए कि श्रीलंका और पाकिस्तान के संघर्षों में फर्क है। उनकी इस नासमझी की कीमत देश को अपने 1200 से अधिक सैनिकों के बलिदान और हजारों के जख्मी होने से चुकानी पड़ी। यह तथ्य कैसे भुलाया जा सकता है कि जिस लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण को सबक सिखाने के लिए आई.पी.के.एफ. को तैनात किया गया था, उसकी परवरिश तमिलनाडु में तत्कालीन मुख्यमंत्री ने की थी। यह वैसा ही था जैसे उत्तर भारत के पंजाब में इंदिरा गांधी ने भिंडरांवाले का पालन-पोषण किया था जो अंतत: उनकी ही बर्बादी का कारण बना। इसी तर्ज पर श्रीलंका के प्रेम दास और भारत के राजीव गांधी लिट्टे के हाथों मारे गए। 

ऑप्रेशन पवन : अंग्रेजी में लिखी दोनों पुस्तकें जिनके शीर्षक ‘रिसरेक्टिंग आई.पी.के.एफ. लैगेसी’ और ‘वेलिएंट डीड्स, अनडाइंग मैमोरीज’ हैं, हमारे उन वीर सपूतों की कलम से निकली हैं जिन्होंने अपने अदम्य साहस, शौर्य, जीवट और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद देश का नाम रोशन किया है। सीधी, सरल और ओजस्वी भाषा में उन्होंने जो कहानियां कही हैं उन्हें पढ़ते हुए लगता है कि हमारे सामने ही वह घटना घट रही है। कुछ वर्णन तो ऐसे हैं कि मानो सामने फिल्म चल रही हो। लिट्टे आतंकियों, समर्थकों, सरगनाओं, विशेषकर प्रमुख प्रभाकरण के साथ मुठभेड़ का रोमांचक विवरण पढऩा एक ओर हमारे सैनिकों के पराक्रम को दर्शाता है तो दूसरी ओर आश्चर्यचकित करता है कि किस प्रकार बिना किसी भरपूर तैयारी के हमारे योद्धाओं ने सीमित संसाधनों से वह कर दिखाया जिसकी गाथा प्रेरणास्रोत बन गई। 

शांति की परिभाषा : जहां तक भारत द्वारा दुनिया भर में अमन चैन से रहने की नीति पर चलने का प्रश्न है तो तथ्य यह है कि हमने तब ही हथियार उठाए हैं जब हमारी सीमाओं पर खतरा उत्पन्न हुआ हो। इस नीति के दुष्परिणाम भी झेलने पड़े हैं जैसे कि कोई भी अपने देश के जुल्मो-सितम का शिकार होकर भारत को अपनी शरणस्थली समझ लेता है। 

राष्ट्रीय युद्ध स्मारक : भारत के सैनिकों के सम्मान में इंडिया गेट पर जो स्मारक बना है, वह हमारी धरोहर है। वास्तव में हमारे रणबांकुरे चाहे सशस्त्र सेनाओं में हों, अर्ध सैनिक बलों या फिर पुलिस और आई.पी.के.एफ. जैसे संघटनों में हों, वे समान रूप से अपने लिए विशेष स्मरण स्थल बनाए जाने के अधिकारी हैं। आई.पी.के.एफ. में तो सब ही सेनाओं के वीर थे।-पूरन चंद सरीन
 


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