भारत और चीन के धैर्य की परीक्षा है ‘डोकलाम टकराव’

Friday, Jul 28, 2017 - 11:49 PM (IST)

माओत्से तुंग का एक प्रिय ध्येय वाक्य हुआ करता था: ‘‘संकेत दाहिने हाथ मुडऩे का दो लेकिन मोड़ बाईं तरफ काटो’’। चीन के वर्तमान राष्ट्रपति शी जिनपिंग का भी यही अघोषित ध्येय वाक्य है। शायद वह भी दूसरे माओ बनकर उभरना चाहते हैं लेकिन यह सपना उनकी औकात से बहुत बड़ा है। फिर वह चीनी नीतियों का संचालन करने में इसी नीति पर चल रहे हैं- खास तौर पर भारत के मामले में। 

जरा वे दिन याद करें जब 50 के दशक में ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ के नारे कितना गला फाड़-फाड़ कर लगाए जाते थे। उस समय जवाहर लाल नेहरू भारत के भाग्य विधाता थे लेकिन माओ-चाऊ की जोड़ी ने ‘भाई-भाई’ के नाम पर नेहरू और भारत को खूब बुद्धू बनाया। नेहरू ने इस उम्मीद से पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर किए थे कि चीन भी शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के मार्ग पर चलेगा और तिब्बत की स्वायत्तता के मामले में जो वायदा किया है उस पर पहरा देगा। बाद में जो कुछ हुआ वह तिब्बत की दुखद घटनाओं और दलाई लामा व उनके लोगों द्वारा जान बचाकर भारत को पलायन करना और भारत के इतिहास के उस रक्तरंजित कांड का हिस्सा है जिसे ‘1962 का युद्ध’ कहा जाता है। 

फ्रांसीसी दार्शनिक वाल्टेयर ने कहा था कि इतिहास ‘‘ऐसी हाथ-चालाकियों का पिटारा नहीं जो हम मर चुके लोगों के नाम पर दिखाते हैं। यह एक ऐसा दर्पण है जो इस शर्त पर हमारे भविष्य का मार्गदर्शन करता है कि अतीत में की जा चुकी गलतियां दोहराई नहीं जाएंगी।’’ 1962 में जब चीन ने नेहरू के भारत की पीठ में छुरा घोंपा था तब से अब तक परिस्थितियां बहुत बदल चुकी हैं। भारत, भूटान और चीन के त्रिसंगम पर स्थित डोकलाम पठार पर भूटान की दावेदारी और पेइचिंग के युद्धोन्माद के बीच फिर से ताजा हुई अतीत की कड़वी यादों को ताजा करने वाली हाल ही की शृंखलाबद्ध घटनाओं पर मैं किसी प्रकार की टीका-टिप्पणी नहीं करना चहता हूं। भारत द्विपक्षीय संधि के अंतर्गत भूटान की भूगौलिक एकजुटता की रक्षा करने का पाबंद है। भारतीय सैनिकों ने पहले ही डोकलाम में चीनी सड़क निर्माण गतिविधियों को रोक दिया था और तभी से चीनी सेना के साथ तनाव बना हुआ है। 

हाल ही में रक्षा मंत्री अरुण जेतली ने यह कहकर भारत के दृढ़ इरादे को प्रमाणित किया था कि : ‘‘2017 का भारत 1962 के भारत से बहुत भिन्न है।’’ फिर भी यह निश्चय से नहीं कहा जा सकता कि भारत चीन की आर्थिक और सैन्य शक्ति का पूरी तरह मुकाबला कर सकता है- खास तौर पर जब हम इस तथ्य को पेइचिंग-इस्लामाबाद की उन साजिशों की रोशनी में देखते हैं जो कश्मीर और अन्य स्थानों पर आतंकवाद तथा इससे संबंधित भारत की समस्याओं में वृद्धि करती हैं। चीन के साथ भारत की लंबी सीमा पर चीन की जंगजू मुद्रा भी कोई कम चिंता का विषय नहीं क्योंकि इसके पीछे चीन का विस्तारवादी, औपनिवेशक और सैन्य दु:साहस से भरा एजैंडा क्रियाशील है। पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर (पी.ओ.के.) में से गुजरने वाले आर्थिक गलियारे से संबंधित चीन की हाल ही की गतिविधियां इसके मनहूस इरादों के बारे में बहुत कुछ उजागर करती हैं। 

स्पष्ट है कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग चीन के पुराने विस्तारवादी और विध्वंसवादी खेल की ओर लौट गए हैं। इतिहास हमें बताता है कि चीन जब-जब आॢथक और सैन्य रूप में शक्तिशाली होता है, यह पड़ोसी देशों का इलाका हड़प करने की औपनिवेशवादी नीति का अनुसरण कर देता है। इस तरह की समस्याएं हमें चीन की ओर से 1962 से लेकर आज तक दरपेश हैं। हमारी समस्या यह है कि हम इतिहास से कोई खास सबक नहीं सीखते। यही कारण है जब सितम्बर 2014 में राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा दौरान मोदी ने ‘झूला कूटनीति’ का दाव खेला तो जानकार हलकों में इसके विरुद्ध काफी कानाफूसियां हुई थीं। नरेन्द्र मोदी का यह कदम बहुत शुभेच्छापूर्ण था क्योंकि केवल इसी ढंग से इस खित्ते में शांति स्थापित हो सकती है और शांति ही आर्थिक विकास सुनिश्चित करती है। कुछ भी हो, यह बात हमारे राष्ट्रीय हितों में है कि हम अपनी स्मृति में से चीन के असली चेहरे की याद को कभी भी धुंधली न पडऩे दें। 

चूंकि चीन आजकल ब्रिटेन की औपनिवेशक नीतियों की वाहक ईस्ट इंडिया कम्पनी जैसा व्यवहार कर रहा है इसलिए इसकी नवीनतम भाव-भंगिमाएं इसकी इसी प्रवृत्ति की सूचक हैं। क्या राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल चीनी नेतृत्व की अकड़ फूं को कुछ शांत कर सकेंगे, मैं इस बारे में निश्चय से कुछ नहीं कह सकता। राहत की बात यह है कि मोदी सरकार चुपचाप उन मामलों में भारत की खामियों को दूर करने में जुटी हुई है जहां हम सैन्य दृष्टि से गंभीर रूप में कमजोर हैं और यहां तक कि आज के दौर की बदल रही वैश्विक वास्तविकताओं के मद्देनजर नए रणनीतिक और रक्षा चौखटे के बारे में भी सोचना शुरू कर दिया है। प्रधानमंत्री द्वारा हाल ही में इसराईल के साथ रक्षा समझौते करना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि भारत अपने दोनों पड़ोसियों के मनहूस इरादों से मिल रही चुनौती के प्रति पूरी तरह सजग है। 

चौकसी अपनी जगह बहुत अच्छी बात है लेकिन हमें आर्थिक और सैन्य दोनों ही मोर्चों पर महत्वपूर्ण खामियां दूर करने के लिए सतत् जागरूक और प्रयासरत रहने की जरूरत है। डोकलाम टकराव दोनों पक्षों के धैर्य की परीक्षा है क्योंकि चीनी सेना अपने विरोधी को लगातार परेशान करके उसे हताश करती रहती है। लंबे समय से चीन अपने सभी विरोधियों को इसी तरीके से थकाने की नीति पर चलता आ रहा है। ऐसे परिप्रेक्ष्य में मुझे उम्मीद है कि प्रधानमंत्री चीन की दादागिरी को निष्प्रभावी करने के लिए अपने कूटनीतिक और रणनीतिक दाव बहुत दक्षता से चलेंगे। लेकिन हमें सुषमा स्वराज की इस टिप्पणी के बहकावे में नहीं आना चाहिए कि ‘‘सभी देश हमारे साथ हैं।’’ ऐसी कोई बात नहीं है। आज के परमाणु सम्पन्न विश्व में वैसे भी युद्ध किसी समस्या का हल नहीं। 

भारत को ऐसी नीति की जरूरत है जो यह संकेत दे सके कि दुश्मन की प्रत्येक क्रिया पर हम प्रतिक्रिया करने और अपने आस-पड़ोस में तथा इससे आगे के देशों में गतिशील कूटनीति करने की क्षमता रखते हैं। फिर भी एक बात सदैव दृष्टिगत रहनी चाहिए कि किसी देश की शक्ति इसकी आर्थिक सुदृढ़ता और सैन्य क्षमता में से उग्मित होती है न कि खोखले दमगजों से। बेहतर होगा कि प्रधानमंत्री जमीनी स्थितियों का संज्ञान लें और ऐन निचले स्तर से विकास को मजबूती प्रदान करें जिससे जनता का सशक्तिकरण हो क्योंकि अंतिम अर्थों में जनता ही भारत की लोकतांत्रिक शक्ति की गारंटी है जबकि चीन में एक पार्टी की तानाशाही है और यह तानाशाही अब चीन को साम्राज्यवादी देश की तरह महाशक्ति बनाने के सपने देख रही है। 

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