बढ़ती हिंसा : समाज किस दिशा में बढ़ रहा?

punjabkesari.in Wednesday, Oct 16, 2024 - 05:23 AM (IST)

समाज में हिंसा बढ़ती जा रही है। किसी भी दिन के किसी भी समाचार पत्र को उठा लीजिए, नरसंहार, हत्याएं, सामूहिक बलात्कार, दहेज उत्पीडऩ आदि मुख पत्र पर छाई रहती हैं। किंतु अब तो जघन्य हिंसा भी किसी को आहत नहींकरती तथा जघन्यता और वहशीपन आज आधुनिक भारत का पर्याय बन गया है। शनिवार को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी अजीत पवार गुट के नेता और पूर्व विधायक बाबा सिद्दीकी, जिनके अनेक बालीवुड अभिनेताओं के साथ घनिष्ठ संबंध थे तथा जिनके अंडरवल्र्ड डॉन दाऊद इब्राहिम जैसे लोगों के साथ तथाकथित संबंध थे, को कथित रूप से मुंबई में लारैंस बिश्नोई गैंग द्वारा गोलियों से भून दिया गया और कारण यह बताया गया कि वह उसके दुश्मन बॉलीवुड अभिनेता सलमान खान का मित्र था। 

1960 के दशक से मुंबई में आधा दर्जन से अधिक राजनेताओं को विभिन्न अपराधी गैंगों द्वारा मारा गया। यह मुंबई में संगठित अपराधों के साथ राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के सच को बताता है। ऐसी पहली हत्या जून 1970 में भाकपा विधायक कृष्णा देसाई की हुई थी। 1990 के दशक में विधायकों की हत्या की संख्या में वृद्धि हुई। शिव सेना विधायक विट्ठल चव्हाण को 1992 के मध्य में पूर्व सातम गैंग द्वारा मारा गया और इसका कारण शिव सेना विधायक के साथ पैसे के लेन-देन का झगड़ा था। उसके बाद मई 1993 में अरूण गावली गैंग द्वारा श्रमिक संघ नेता रमेश मौर्य को मारा गया और 5 दिन बाद दाऊद इब्राहिम गैंग द्वारा भाजपा विधायक शंकर दत्त शर्मा को मारा गया। अप्रैल 1994 में मुस्लिम लीग विधायक जियाउद्दीन बुखारी को अरूण गावली गैंग द्वारा मारा गया। उसके बाद 1994 में छोटा शकील गैंग द्वारा विधायक रामदास नायक और 1997 में छोटा राजन गैंग द्वारा विधायक दत्ता सावंत को मारा गया और विडंबना देखिए कि लगभग सभी आरोपियों को ऊपरी अदालतों द्वारा बरी किया गया। 

ऐसे वातावरण में, जहां पर सत्ता संख्या खेल बन गई हो, वहां पर अपराधी और राजनेता एक दूसरे से घनिष्ठ रूप से जुड़े होते हैं और पार्टियों के माफिया डॉनों तथा अपराधियों के साथ संबंध होते हैं क्योंकि वे उन्हें बंदूक की गोली के दम पर वोट प्राप्त करने में सहायक होते हैं। इसके अलावा सत्ता के लालच से उन्हें सांसद, विधायक का टैग मिल जाता है जो माफिया डॉनों, कातिलों और अपराधियों के लिए एक बुलेट प्रूफ जैकेट की तरह होता है। इसलिए राज्य माफिया डॉनों, उनकी सेनाओं, उनके सशस्त्र ब्रिगेडों और उनके वैचारिक गुंडों का अखाड़ा बन गया है जहां पर हमारे जनसेवक अंडरवल्र्ड में उनके आकाओं की धुन पर थिरकते हैं जहां पर अपराधी से राजनेता बने लोग साफ बच निकलते हैं। भारत में संतुलन, खुलापन और सहिष्णुता कम हो रही है। किसी की गाड़ी पर जरा सी खरोंच लग जाए तो आपको गोलियों से भून दिया जाएगा और जहां पर खून होगा वहां पर कोई भी लाल निशान देखने को तैयार नहीं। देश की राजधानी में गैंगवार आम बात है। ये अपराधी गैंग जेलों से कार्य कर रहे हैं। कैसे? क्या जेलकर्मियों के साथ उनकी सांठगांठ है? कोई कार्रवाई क्यों नहीं की जा रही? 

हाल ही में तीन महिलाओं की जघन्य हत्या की गई, उनके शरीर के अंगों को फ्रीजर में रखा गया और बाद में जलाया गया। दो अन्य महिलाओं को कार में शराबियों ने 10 कि.मी. तक घसीटा किंतु इस पर कोई जनाक्रोश देखने को नहीं मिला। एक 80 वर्षीय बुजुर्ग ने हरियाणा में एक 5 वर्षीय बालिका के साथ बलात्कार किया। निश्चित रूप से लोगों के गुस्से के कई कारण हैं। बेरोजगारी, महंगाई, कानून-व्यवस्था का न होना आदि प्रमुख कारण हैं। प्रौद्योगिकी और सोशल मीडिया के कारण आज धु्रवीकरण करना अधिक आसान हो गया है। समाज में हिंसक सामग्री वितरित की जाती है और घृणा, सांप्रदायिकता, धार्मिक घृणा की राजनीकि की जाती है फलत: भीड़ द्वारा हिंसा होती है। प्रश्न उठता है कि हमारा समाज कहां जा रहा है। इसके लिए कौन दोषी है? इसके लिए राजनेता, नौकरशाही, पुलिस, संरक्षित अपराधी सभी दोषी हैं। फर्जी मुठभेड़, हवालात में अत्याचार से मौतें आम बात है। आप किसी से मुक्ति पाना चाहते हैं तो आप ‘पुलिस वाले गुंडे’ को बुला सकते हैं। अपराधी लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आगे आते हैं।

एकतरफा आर्थिक वृद्धि के चलते एक बहुत बड़ा वंचित वर्ग बन गया है, जो स्वयं को पश्चिमी सांस्कृतिक मूल्यों और मानदंडों से नहीं जोड़ पाता। दुर्भाग्यवश इस सबके बारे में अधिकतर भारतीय नहीं सोचते। क्या हिंसा की कीमत देश चुकाएगा? इसके लिए कौन जिम्मेदार होगा और किस तरह भारत की आत्मा को मुक्ति मिलेगी? कोई भी खून-खराबा या कानून का उल्लंघन करते हुए हिंसा को जायज नहीं ठहरा सकता। फिर आगे की राह क्या है? ऐसे वातावरण में, जहां पर अपना हिस्सा वसूल करने के लिए बल का इस्तेमाल करना हमारी दूसरी प्रवृत्ति बन गई है, समय आ गया है कि ऐसी चीजों पर रोक लगाई जाए। हमें यह भी समझना चाहिए कि लोकतंत्र ऐसी दासी नहीं है जिसे बंदूक की नोक पर लोगों द्वारा गलियों से उठाया जाए। हम एक सभ्य लोकतंत्र हैं और नए भारत के निर्माण में हम इसे नष्ट नहीं कर सकते। हिंसा किसी भी रूप में अस्वीकार्य है।-पूनम आई. कौशिश
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Related News