राजनीति में अपशब्दों का बढ़ता प्रचलन!

punjabkesari.in Monday, May 26, 2025 - 05:44 AM (IST)

भारत, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है, एक ऐसा देश है जहां विविधता उसकी ताकत और चुनौती दोनों है। यहां की राजनीति में विभिन्न दलों के राजनेता अपने विचारों, नीतियों और नेतृत्व के माध्यम से जनता का विश्वास जीतने का प्रयास करते हैं। लेकिन हाल के वर्षों में, भारतीय राजनीति में अपशब्दों और गैर-जिम्मेदाराना बयानों का बढ़ता उपयोग एक गंभीर मुद्दा बन गया है। यह न केवल सार्वजनिक विमर्श के स्तर को नीचे लाता है, बल्कि यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों, जैसे स्वतंत्रता, समानता, सम्मान और संवाद के खिलाफ भी है।

भारतीय राजनीति में अपशब्दों का प्रयोग पहले कतई नहीं होता था। लेकिन हाल के दशकों में इसकी तीव्रता और आवृत्ति में ङ्क्षचताजनक वृद्धि हुई है। विभिन्न दलों के राजनेता, चाहे वे सत्ताधारी हों या विपक्षी, अक्सर एक-दूसरे पर निजी हमले करने, अपमानजनक टिप्पणियां करने और समाज को विभाजित करने वाले बयान देने में संकोच नहीं करते। उदाहरण के लिए, कुछ राजनेताओं ने अपने विरोधियों को ‘नीच’, ‘मवाली’, ‘गद्दार’, जैसे शब्दों से संबोधित किया है। ऐसे बयानों का उद्देश्य अक्सर अपने समर्थकों को उत्तेजित करना और विपक्ष को कमजोर करना होता है।

लेकिन यह लोकतांत्रिक मर्यादाओं को तोड़ता है। 2017 में, एक सांसद ने एक धार्मिक आयोजन में जनसंख्या वृद्धि के लिए एक विशेष समुदाय को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि देश में समस्याएं खड़ी हो रही हैं जनसंख्या के कारण। इसके लिए हिंदू जिम्मेदार नहीं हैं। जिम्मेदार तो वे हैं जो चार बीवियों और चालीस बच्चों की बात करते हैं। इस तरह के बयान न केवल सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा देते हैं, बल्कि समाज में विभाजन को और गहरा करते हैं। बढ़ती जनसंख्या चिंता का विषय है पर उस पर प्रहार जनसंख्या नियंत्रण की नीति बना कर किया जाना चाहिए न कि केवल भड़काऊ बयान देकर। 

लोकतंत्र का गुण यह है कि ये जनता की भागीदारी, स्वतंत्र अभिव्यक्ति और विचारों के खुले आदान-प्रदान का मौका देता है। भारत का संविधान, विशेष रूप से अनुच्छेद 19, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। लेकिन इसके साथ ही यह अपेक्षा भी करता है कि यह स्वतंत्रता जिम्मेदारी के साथ प्रयोग की जाए। जब राजनेता अपशब्दों और गैर-जिम्मेदाराना बयानों का सहारा लेते हैं, तो वे लोकतंत्र के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं। जब राजनेता नीतियों और विचारों की बजाय व्यक्तिगत हमलों और अपशब्दों का प्रयोग करते हैं, तो यह विमर्श का स्तर गिराता है।

सार्वजनिक जीवन में हमें एक-दूसरे की नीयत पर भरोसा करना चाहिए, हमारी आलोचना नीतियों पर आधारित होनी चाहिए, व्यक्तित्व पर नहीं। आज के काफी राजनेताओं का व्यवहार इस सिद्धांत के विपरीत हो रहा है। गत 10 वर्षों से मुसलमानों को लेकर कार्यकत्र्ताओं और नेतृत्व के लगातार आने वाले विरोधी बयानों ने देश में भ्रम की स्थिति पैदा कर दी। उदाहरण के लिए, एक महिला नेता ने 2014 में एक सभा में लोगों को ‘रामजादों’ और ‘हरामजादों’ में बांटने की बात कही। दूसरी तरफ सरसंघचालक डा. मोहन भागवत कहते हैं कि ‘हिंदू और मुसलमानों का डी.एन.ए. एक है, या मुसलमानों के बिना हिंदुत्व नहीं है।’ ऐसे विरोधाभासी बयानों से समाज में वैमनस्य और भ्रम की स्थिति फैलती है। 

जब राजनेता गैर-जिम्मेदाराना बयान देते हैं, तो यह लोकतांत्रिक संस्थाओं, जैसे संसद और न्यायपालिका के प्रति जनता के विश्वास को कम करता है। उदाहरण के लिए, 2024 में एक सांसद ने भाजपा पर संविधान को ‘हजार घावों से खून बहाने’ का आरोप लगाया, जबकि भाजपा नेताओं ने विपक्षी नेताओं पर ‘संविधान का अपमान’ करने का आरोप लगाया। इस तरह के आपसी आरोप-प्रत्यारोप संसद जैसे मंच की गरिमा को कम करते हैं। अपशब्दों और गैर-जिम्मेदाराना बयानों का उपयोग अक्सर असहमति को दबाने के लिए किया जाता है। पत्रकारों और आलोचकों को ‘प्रेस्टीच्यूट’ जैसे शब्दों से संबोधित करना या उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करता है। यह लोकतंत्र के लिए खतरा है, क्योंकि असहमति और आलोचना लोकतंत्र के आधार हैं।

राजनेताओं के अपशब्द और गैर-जिम्मेदाराना बयान समाज पर गहरा प्रभाव डालते हैं। ये बयान न केवल जनता के बीच नकारात्मक भावनाओं को भड़काते हैं, बल्कि सामाजिक समरसता को भी नुकसान पहुंचाते हैं। सोशल मीडिया के युग में, जहां ये बयान तेजी से वायरल होते हैं, इनका प्रभाव और भी व्यापक हो जाता है। इससे न केवल राजनीतिक तनाव बढ़ता है, बल्कि सामाजिक ध्रुवीकरण भी होता है। इस समस्या से निपटने के लिए कई कदम उठाए जा सकते हैं। चुनाव आयोग को राजनेताओं के अपशब्दों और गैर-जिम्मेदाराना बयानों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। 2019 में, चुनाव आयोग ने कुछ नेताओं को नोटिस जारी किए थे, लेकिन ऐसी कार्रवाइयों को और प्रभावी करने की आवश्यकता है। जबसे संसद की कार्रवाई का सीधा प्रसारण टी.वी. पर होना शुरू हुआ है, तब से देश के कोने-कोने में बैठे आम जन अपने राजनेताओं का आचरण देख कर उनके प्रति हेयदृष्टि अपनाने लगे हैं। युवा पीढ़ी पर तो इसका बहुत ही खराब असर पड़ रहा है।-विनीत नारायण


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