भारत में बढ़ती जा रही वंशवादी राजनीति की ‘दादागिरी’

Tuesday, Feb 07, 2017 - 12:24 AM (IST)

5 राज्यों में चल रहे चुनावी नाटक में नेता, पुत्र-पुत्रियां छाई हुई हैं। चाहे यह उलटा-पुलटा प्रदेश हो जहां पर खानदानी कारोबार खूब फल-फूल रहा है। पंजाब के बादल हों जिनके कारण राजनीति पर बादल छा गए हैं, गोवा और मणिपुर हो जहां पर कांग्रेसी नेताओं के पुत्र-पुत्रियों का उदय हो रहा है और उत्तराखंड में भाजपा के नेताओं के पारिवारिक लोगों का उदय हो रहा है।

यह चुनाव पुत्र-पुत्रियों और वंशवादी नेताओं के लिए राजनीतिक लाभ देने वाला है, चाहे भारत की व्यवस्था जाए भाड़ में। यदि लोकतंत्र का आधार एक व्यक्ति एक मत का सिद्धांत है तो चुनाव एक परिवार है जहां पर नेता अपने परिवार वालों को अधिक से अधिक टिकट देते हैं। 

कांग्रेस ने नेहरू-गांधी की अगली पीढ़ी को आगे बढ़ाया है तो भाजपा ने बेटा-बेटी और बंधुओं को आगे बढ़ाया है। आज कांग्रेस के वंशवाद की राजनीति अन्य दलों में भी पैर पसार चुकी है। 
आज नेताओं  के लिए अपना परिवार ही धर्म बन गया है। हैरानी की बात यह है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा ने 17 बेटे-बेटियों को टिकट दिए हैं जिनमें केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के पुत्र, लालजी टंडन, सांसद बृजभूषण सरण सिंह, बसपा से भाजपा में आए स्वामी प्रसाद मौर्य के लाडले, पूर्व प्रधानमंत्री शास्त्री और पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के पोते, उत्तराखंड में पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री तथा भाजपा नेता विजय बहुगुणा के पुत्र को टिकट दिया गया। 

बेटों को ही क्यों, बेटियों को भी टिकट दिया गया है। पूर्व मंत्री प्रेमलता कटियार और सांसद  हुकुम सिंह की बेटी तथा उत्तराखंड में पूर्व मुख्यमंत्री खंडूरी की बेटी को भी टिकट दिया गया है जबकि पार्टी दावा करती है कि वह संविधानवाद के अनुसार काम करती है न कि परिवारवाद के अनुसार।

कांग्रेस जिसका अस्तित्व नेहरू-गांधी खानदान पर टिका हुआ है उसने पूर्व केन्द्रीय मंत्री जितेन्द्र सिंह और हरियाणा के विधायक के पुत्र तथा 5 बार विधायक रह चुके अखिलेश सिंह की पुत्री को टिकट दिया है। मणिपुर के मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के पुत्र और गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री राणे के पुत्र को भी टिकट दिया गया है। समाजवादी पार्टी में भी ऐसे 21 उम्मीदवार हैं जिनमें मुलायम सिंह की छोटी बहू अपर्णा सिंह, आजम खान का पुत्र और चाचा शिवपाल सिंह भी शामिल हैं। बसपा की मायावती भी भाई-बहन संबंध में विश्वास करती हैं और उन्होंने भी ऐसे उम्मीदवारों को उदारता से टिकट दिए हैं।

क्षेत्रीय क्षत्रप भी इस मामले में पीछे नहीं हैं। चाहे लालू-राबड़ी का राजद हो जो पति-पत्नी और परिवार का प्रतीक बन गया है,बादल का अकाली दल हो, देवेगौड़ा का जद (एस) हो, चौटाला का भारतीय राष्ट्रीय लोक दल हो, ठाकरे की शिवसेना और फारूक अब्दुल्ला की नैशनल कांफ्रैंस हो, ये सब पिता-पुत्र की पार्टियां हैं। शरद पवार की राकांपा पिता-पुत्री की पार्टी है तो मुफ्ती की पी.डी.पी. ‘मैं हूं न’ है। कुल मिलाकर हमारी राजनीतिक प्रणाली  में वंशवाद छाया हुआ है। अजित सिंह के रालोद और पासवान के लोजपा में भी पुत्र प्रेम दिखाई देता है। वस्तुत: भारत के नेताओं के बेटों का उदय हो रहा है और वंशवादी राजनीति की दादागिरी बढ़ती जा रही है।

यह देखकर सभी लोग मानने लगे हैं कि विचारधारा आधारित लोकतंत्र वंशवादी सामंतवाद के बाद ही आता है। केवल हमारे वंशवादी नेता ही जनता की, जनता द्वारा और जनता के लिए सरकार उपलब्ध करा सकते हैं और इसमें बीच-बीच में देशभक्ति और बलिदान का तड़का भी दिया जाता है। आज स्थिति यह है कि उम्मीदवार योग्य हैं कि नहीं अपितु उन्हें वंशवाद के कारण योग्य बना दिया जाता है और इसके चलते योग्य उम्मीदवार तथा समर्पित पार्टी कार्यकत्र्ताओं की अनदेखी होती है। फलत राजनीतिक दल आज परिवार का विस्तार बनकर रह गए हैं।

आधुनिक आनुवांशिकी हमारे नेतागणों से सबक ले सकती है जिन्होंने इस विज्ञान में महारत हासिल कर ली है क्योंकि इन नेताओं के गुणसूत्र में राजनीति है और इसीलिए आज कहा जाने लगा है कि भारत का लोकतंत्र वंशवादियों का, वंशवादियों द्वारा और वंशवादियों के लिए है किन्तु प्रश्र यह भी उठता है कि इन राजनीतिक परिवारों में ऐसा क्या है जो लोग उनकी ओर खिंचे चले आते हैं। इसका एक मुख्य कारण यह है कि हमारे अधिकतर मतदाता अंगूठा छाप हैं और लोग पार्टी की बजाय अपने नेता की ओर मुखर होते हैं। दल-बदलू नेताओं का चुनाव इस बात का प्रमाण है। साथ ही यदि परिवार के ब्रांड को भुनाया जा रहा है तो इसमें गलत क्या है जिसके चलते आज राजनीति मैं, मेरा और मुझे तक सीमित हो गई है। उसमें विचारधारा का अभाव है।

आज नेताओं के बेटा-बेटी और यहां तक कि दामाद भी राजनीति का अभिन्न अंग बन गए हैं जिसके चलते नए नियम, दिशा-निर्देश और संविधानेत्तर सत्ता केन्द्र बनते जा रहे हैं। वर्तमान में भारत की संसद में 29 प्रतिशत सदस्य ऐसे परिवारों से आए हुए हैं। 5 प्रतिशत सदस्य उनके अनुयायी हैं। 34 प्रतिशत सदस्यों के ऐसे नेताओं से पारिवारिक संबंध रहे हैं।

इसके अलावा आपको अति वंशवादी सदस्य भी मिल जाएंगे अर्थात उनके परिवार से अनेक सदस्य संसद सदस्य बने हुए हैं। लोकसभा में 30 वर्ष से कम आयु के प्रत्येक सदस्य को विरासत में सीट मिली है। 40 वर्ष से कम आयु के 66 सदस्य नेता परिवारों से हैं और 59 महिला सांसदों में से दो-तिहाई पारिवारिक राजनीति की श्रेणी में आती हैं। 

ऐसे वातावरण में जहां पर राजनेताओं ने अपने बच्चों को राजनीतिक मुद्दा बना दिया हो वहां पर विचारधारा किनारे कर दी जाती है और यह बताता है कि आज हमारी प्रातिनिधिक संसदीय प्रणाली कितनी अप्रातिनिधिक बन गई है क्योंकि सत्ता केवल कुछ परिवारों के हाथों में केन्द्रित होती जा रही है इसलिए राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि वंशवाद एक दोधारी तलवार है। सामंतवाद राजनीति में एक संपत्ति की बजाय दायित्व बन सकता है। आम जनता की जागरूकता बढऩे के साथ-साथ राजनीतिक दृष्टि से यह उचित होगा कि हम वंशवाद की बजाय लोकतंत्र का समर्थन करें।

प्रश्न यह भी उठता है कि यदि कोई पार्टी अपने नेता के बेटे-बेटियों के भविष्य पर ध्यान देती है तो वह जब सत्ता में रहेगी तो किस प्रकार प्रशासन पर ध्यान देगी और जब सत्ता से बाहर रहेगी तो किस प्रकार विश्वसनीय विपक्ष की भूमिका निभाएगी। यदि इस पर अंकुश नहीं लगाया गया तो वह दिन दूर नहीं जब आम आदमी की आशाओं और आकांक्षाओं का मंदिर संसद कुछ परिवारों का पावर कार्पोरेशन बन जाएगा।

 

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