बढ़ती बीमारियां और महंगा इलाज

punjabkesari.in Friday, Oct 07, 2022 - 05:03 AM (IST)

देश में बीमारियां और उनका महंगा इलाज आम आदमी के आर्थिक हालात सुधारने में सबसे बड़ी बाधा हैं। छोटी से छोटी बीमारी एक आम व्यक्ति के महीने भर का वेतन खत्म कर देती है। इलाज के लिए निजी अस्पतालों पर निर्भरता और महंगे इलाज के मद्देनजर केंद्र सरकार ने 2018 में ‘आयुष्मान भारत’ योजना लागू की थी। इस योजना में जरूरतमंद लोगों को शामिल करते हुए मान्यता प्राप्त निजी अस्पतालों में 5 लाख रुपए तक के मुफ्त इलाज की सुविधा प्रदान की गई है। हालांकि राज्यों ने अपनी सुविधा से न केवल योजना के नाम में उलट-फेर किया है, बल्कि पात्रता शर्तों को भी घटाया-बढ़ाया है। 

भारत में सरकार द्वारा नागरिकों के स्वास्थ्य पर खर्च होने वाली राशि दुनिया के बहुत सारे देशों की तुलना में बहुत कम है। देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जी.डी.पी. का मात्र 3.56 फीसदी केंद्र सरकार स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च कर रही है। जबकि तय मानक के अनुसार राज्यों को प्रदेश के कुल बजट का 5 फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य व्यवस्था पर खर्च करना चाहिए। 

देश का मध्यवर्ग स्वास्थ्य पर होने वाले महंगे खर्चों के कारण अपनी आॢथक तंगी की सीमा से बाहर आने में नाकाम ही रहता है। वहीं आयुष्मान भारत योजना हितग्राहियों को लाभ कम, भ्रष्टाचार का निवाला अधिक बनी हुई है। एक कार्डधारक के पहचान-पत्र से सैंकड़ों फर्जी नामों को जोडऩे के अनेक खुलासों के बाद भी सरकार की तरफ से तकनीकी त्रुटि में सुधार के प्रयास नहीं हुए। 

अकेले मध्य प्रदेश में अभी तक 3000 आयुष्मान चिकित्सा मान्यता प्राप्त अस्पतालों की जांच कर उनके 800 करोड़ रुपए के फर्जी भुगतान बिलों पर सरकार ने रोक लगा दी है। 2020-21 में पूरे देश से आयुष्मान कार्ड के दुरुपयोग संबंधी 23,000 से अधिक मामले दर्ज हुए थे, जिनमें छत्तीसगढ़, पंजाब, झारखंड और मध्य प्रदेश से सर्वाधिक शिकायतें मिलीं। चूंकि आयुष्मान कार्डधारक वर्ग गरीब और कम पढ़ा-लिखा है, इसलिए इनसे मिलने वाली शिकायतों की संख्या न केवल कम है, बल्कि अधिकांश को तो उनके साथ हुई ठगी की जानकारी भी नहीं हो पाती। 

वर्ष 2000 में भारत सरकार ने निजी बीमा कंपनियों को एफ.डी.आर. के माध्यम से देश में काम करने का मौका दिया। शुरूआत में विदेशी निवेश की सीमा 26 फीसदी रखी गई थी, जिसे बाद में बढ़ा कर सौ फीसदी कर दिया गया। इसके साथ ही सरकार का नियंत्रण इन बीमा कंपनियों पर कम हो गया है। बीमा दावा भुगतान में इन कंपनियों की विश्वसनीयता शुरू से ही कठघरे में रही है। बीमा कंपनियों द्वारा दावा भुगतान में की जाने वाली न-नुकर के कारण देश का आम नागरिक स्वास्थ्य बीमा लेने से डरता है। वर्ष 2019-20 में बीमा लोकपाल को स्वास्थ्य बीमा कंपनियों के खिलाफ 30,825 शिकायतें प्राप्त हुई थीं। बीमा लोकपाल की 2019 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बीमा कंपनियां अपनी शर्तों के प्रति ईमानदार नहीं हैं। बीमा देते समय और दावा निपटाते समय इनकी शर्त परिभाषा बदल जाती है। 

स्वास्थ्य बीमा कंपनियां कैशलैस इलाज की बात तो करती हैं, लेकिन अस्पताल में भर्ती होते ही पालिसी धारक को परेशान करने लगती हैं। दस्तावेजों में गलतियां निकाल कर उसके दावे को निरस्त कर दिया जाता है। प्रतिवर्ष औसतन 15 फीसदी पालिसीधारक अपना बीमा दावा प्राप्त करने के लिए उपभोक्ता आयोग और अदालतों का दरवाजा खटखटाने को मजबूर होते हैं। बीमा कंपनियों को लाइसैंस देने और निगरानी हेतु केंद्र सरकार ने बीमा नियामक और विकास प्राधिकरण को जिम्मेदारी सौंपी है। लेकिन बीमा कंपनियों पर प्रभावी नियंत्रण में प्राधिकरण प्रभावी कार्य नहीं कर सका है। 

ग्रामीण इलाकों में रह रहे लोगों पर स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव का सबसे बुरा असर पड़ा है। चिकित्सा और स्वास्थ्य के पुराने और पारंपरिक तरीकों को पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया है जबकि ये आसानी से प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं के साथ जोड़ी जा सकती थीं। दूसरी ओर, ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादातर होम्योपैथी या आयुर्वेद में प्रशिक्षित निजी डॉक्टर होते हैं, पर ये लोग बिना पूरी जानकारी के ऐलोपैथिक दवाएं देते हैं। साथ ही निजी स्वास्थ्य सेवाएं महंगी हैं। एक बीमार व्यक्ति काम नहीं कर पाता इसलिए परिवार की आमदनी घटती है। ऐसे में महंगे इलाज से बोझ और बढ़ जाता है। दूर-दराज में स्वास्थ्य केन्द्र तक जाने में किराया आदि भी खर्च होता है।-प्रि. डा. मोहन लाल शर्मा
 


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