शिक्षा के पांवों में ‘पानी की बेडिय़ां’

Friday, Dec 28, 2018 - 05:07 AM (IST)

‘टापू’ पर बसते लोगों का दुख-दर्द जानने का सबब इसलिए बन गया क्योंकि वहां के रोजी-रोटी से लाचार बाशिंदों के लिए ‘पंजाब केसरी’ समूह द्वारा भिजवाई जाने वाली राहत सामग्री बांटने के लिए जाने वाली टीम में मैं भी शामिल था। उज्ज नदी, रावी दरिया तथा पाकिस्तान के साथ लगती सीमा में घिरे इस टापूनुमा इलाके में 7-8 गांव स्थित हैं, जहां के नागरिक प्रकृति द्वारा की गई घेराबंदी में ‘कैदियों’ जैसा जीवन बिता रहे हैं। ‘टापू’ पर जो कुछ मौजूद है अधिकतर उसी से गुजारा करना पड़ता है। बाहर से आने वाली सुविधाओं के रास्ते में बहुत रुकावटें हैं।

‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे सरकारी नारे या ‘नन्ही छांव’ जैसी योजनाएं भूल कर भी इस ओर नहीं आतीं। ये नारे तो शायद अपने शब्दों को देश के बाकी हिस्सों में भी उचित अर्थ प्रदान नहीं कर सके, अन्यथा ‘बलात्कारों’, चेन स्नैङ्क्षचग, दहेज उत्पीडऩ तथा कोख में बेटियों को मारने जैसे समाचार मीडिया से गायब हो चुके होते। केवल शिक्षा की बात करें तो सारे देश की लड़कियां तो क्या, इस ‘तीसरे नेत्र’ से लड़के भी 100 प्रतिशत वंचित ही हैं। टापू में तो हालात ऐसे हैं कि जैसे ‘शिक्षा के पांवों में पानी की बेडिय़ां’ पड़ी हों। ‘रावी’ का बहाव तथा उस पर स्थायी, पक्के पुल की कमी ने क्षेत्र के गांवों की लड़कियों को शिक्षा के क्षेत्र में उड़ान भरने से रोक रखा है। वहां की ‘चिडिय़ों’ के पंखों की परवाज ‘टापू’ की सीमा-रेखा के अंदर तक ही सीमित है। 

सात-आठ गांवों की आबादी के लिए गांव भरिआल में एक ही मिडल स्कूल है जो 1955 में तत्कालीन मुख्यमंत्री स. प्रताप सिंह कैरों द्वारा बनवाया गया था। तत्पश्चात कई सरकारें आईं, कई मुख्यमंत्री आए लेकिन इस स्कूल का दर्जा तनिक भी हिल नहीं सका। गिनती के विद्यार्थी ही 8वीं पास करने के बाद दरिया पार करने की हिम्मत करते हैं तथा दो-चार कक्षाएं और पढ़ लेते हैं। जबकि बेटियां मिडल पास करके घरों के काम-धंधों में लग जाती हैं और रसोई ही उनका क्लासरूम बन जाती है। टापू की लड़कियों का शिक्षा रूपी तीसरा नेत्र बस इतना ही खुलता है। मैडीकल, कम्प्यूटर साइंस, इंजीनियरिंग, अंतरिक्ष विज्ञान व उच्च शिक्षा के अन्य विषय बालिकाओं की सोच-समझ तथा पहुंच से बहुत दूर हैं।

आवागमन का कोई साधन नहीं
‘टापू’ के गांवों में आने-जाने का कोई साधन नहीं। न कोई बस, न रेल, न टैक्सी, न तांगा। कुछ लोगों ने अपने साधन रखे हुए हैं या फिर खुशी-गमी के समय ट्रैक्टर-ट्राली का इस्तेमाल होता है। ऐसी हालत में दूर-दूर स्थित स्कूलों-कालेजों में पढऩे के लिए बच्चे कैसे जा सकते हैं, विशेषकर लड़कियों के बारे में तो सोचा भी नहीं जा सकता। कोई प्राइवेट बस, टैक्सी भी तभी चल सकती है यदि पक्की सड़कें हों। इस क्षेत्र की सड़कें बनाने का कार्य शायद अभी तक सरकार के एजैंडे में ही नहीं है। कच्चे रास्तों पर खच्चर-रेहड़े ही एक गांव से दूसरे तक जाने के काम आते हैं। कभी-कभी बी.एस.एफ. या सेना की कोई गाड़ी गुजरती है तो धूल के बादल उड़ कर आसमान में छाते दिखाई देते हैं। महिलाएं घरों के कपड़े-लत्ते धो कर खुले आंगन में बंधी तारों पर सूखने के लिए डालती हैं तो उड़ती धूल उनको सूखने से पहले ही मैले कर जाती है। 

न होने के बराबर डिस्पैंसरी
एक स्कूल की तरह सारे गांवों के लिए डिस्पैंसरी भी एक ही है, जो भरिआल में स्थित है। इसकी हालत न होने जैसी है। न यहां कोई दवा-दारू देने वाला कर्मचारी है और न ही दवाई। ऐसी हालत में वहां मरीजों तथा जरूरतमंदों को क्या लेकर जाना। डिस्पैंसरी के खस्ताहाल कमरों को ताले लगे हुए हैं तथा सामने आंगन में कांग्रेस-घास की तानाशाही है। घास तथा सरकंडों के कुछ ‘प्रतिनिधि’ डिस्पैंसरी की छत पर भी पहरा दे रहे हैं। खुड्डों में चूहों की ‘पंचायतें’ जुड़ती हैं तथा बाहर नेवले तथा गिलहरियां सर्वेक्षण करते रहते हैं। किसी संबंधित अधिकारी को कभी इस डिस्पैंसरी की याद नहीं आई और न ही उन्होंने कभी गांव वालों से पूछा है कि-भाई, आपके गांव के दवाखाने का क्या हाल है? ऐसी स्थिति में लोगों का स्वास्थ्य भगवान के ही हाथ में है। 

मुलाजिम कन्नी काटते हैं
अधिकतर सरकारी मुलाजिम भी इस क्षेत्र में कोई ड्यूटी सम्भालने से टाल-मटोल करते हैं। इसका कारण भी रावी दरिया ही बनता है। इस दरिया का अस्थायी पुल 5-6 महीने ही ‘सलामत’ रहता है, बाकी समय नावों के माध्यम से या पानी में से गुजर कर जाना पड़ता है। इसलिए कोई भी मुलाजिम इस क्षेत्र में ड्यूटी करके खुश नहीं। यदि किसी का तबादला यहां होता है तो वह या तो उसे रुकवा लेता है या फिर छुट्टी ले लेता है। इसी कारण इकलौते स्कूल में आने से अध्यापक भी कन्नी कतराते हैं तथा डिस्पैंसरी भी मुलाजिमों से वंचित है। लोगों को उनके अपने भरोसे पर ही छोड़ दिया गया है, जैसे सरकारी जिम्मेदारी भी रावी के पानी को लांघने से डरती हो। 

कोई नहीं सुनता फरियाद
गांव के पूर्व सरपंच शाम सिंह ने बताया कि कोई उनकी फरियाद सुनने वाला भी नहीं है, किसे अपने दुख बताएं। यदि कोई खरीददार पूरी कीमत दे तो जमीनें बेच कर ही दौड़ जाएं, आज तो कोई एक एकड़ का 8-10 लाख देने के लिए भी तैयार नहीं। उन्होंने बताया कि आॢथक मंदहाली तथा बेरोजगारी के कारण अधिकतर लोग अन्य स्थानों पर जा बसे हैं। गांवों की हालत दयनीय बन गई है। परिवारों की रोजी-रोटी बड़ी मुश्किल से चलती है। बच्चों के भविष्य की ङ्क्षचता हर समय सताती रहती है। सरकार को इस क्षेत्र बारे अवश्य सोचना चाहिए।-जोगिन्द्र संधू

Pardeep

Advertising