मरणासन्न स्थिति में भी कांग्रेस क्या किसी ‘नए नेता’ का इंतजार कर रही है

Sunday, Mar 26, 2017 - 10:19 PM (IST)

कांग्रेस की वास्तविक समस्या क्या है? भारत की यह सबसे पुरानी पार्टी अपने इतिहास की सबसे बुरी स्थिति में से गुजर रही है और ऐसा लगता है कि यह खुद को सुरजीत करने के काबिल नहीं। क्या यह मरणासन्न स्थिति में है या फिर अपने नवजीवन के लिए किसी नए नेता का इंतजार कर रही है? आएं इस मुद्दे का गहन परीक्षण करें। 

सर्वप्रथम हमें यही आभास होता है कि कांग्रेस पार्टी यह मानने को भी तैयार नहीं कि वह सचमुच स्थायी रूप में संकट में से गुजर रही है। कांग्रेस की इस ढीठताई के दो कारण हैं। एक कारण तो यह है कि 34 माह पूर्व ही कांग्रेस देश के अधिकतर प्रदेशों में सत्तासीन थी। कांग्रेस के प्रधानमंत्री ने लगातार 10 वर्षों तक सरकार चलाई जोकि 1970 में इंदिरा गांधी की ऐसी उपलब्धि के बाद पहली बार हुआ था। 

जब ऐसा दौर समाप्त हो जाता है तो यह मानना स्वाभाविक ही होता है कि यह अस्थायी होगा और कुछ समय पाकर मतदाता फिर से पार्टी के आगोश में लौट आएंगे। दूसरा कारण है कि एक खानदान द्वारा नियंत्रित पार्टी में दरबारी और आज्ञापालक स्वयं लोकप्रिय हस्तियां नहीं होते। इसलिए वे इस बात के लिए भी उत्साहित नहीं होते कि अपने नेतृत्व को सच्चाई से अवगत करवाएं और न ही वे स्वयं जमीनी हकीकतों से परिचित होते हैं क्योंकि उन पर जनता को आंदोलन के लिए तैयार करने का कोई दबाव नहीं होता। 

कांग्रेस की दूसरी समस्या यह नहीं कि इसके पास सचमुच में कोई नेता नहीं बल्कि इसे सुधबुध ही नहीं कि कौन-सा कदम उठाया जाए। यह सच है कि नरेन्द्र मोदी बहुत ही करिश्माई नेता हैं। करिश्माई नेता से हमारा तात्पर्य ऐसे नेतृत्व से है जो दूसरे के अंदर वफादारी और समर्पण का भाव पैदा कर सकें। जैसा कि हम जानते हैं कि मोदी अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने की कला में लाजवाब हैं फिर भी उनकी प्रमुख प्रतिभा इस बात में है कि वह भारत की जटिल समस्याओं का जरूरत से अधिक सरलीकरण कर लेते हैं। 

उदाहरण के तौर पर वह कह सकते हैं कि आतंकवाद कमजोर और डरपोक नेतृत्व के कारण पैदा होता है और वह आतंकवाद को समाप्त करेंगे लेकिन तथ्य यह है कि वह ऐसा नहीं कर सकते, जैसा कि हम देख भी चुके हैं, लेकिन मोदी के मुकाबले किसी प्रकार की नई दृष्टि प्रस्तुत करने वाला कोई नहीं। 

यही कारण है कि मोदी राजनीतिक संवाद की शर्तों को इतने बढिय़ा ढंग से परिभाषित कर सकते हैं कि नोटबंदी जैसी एक-एक भारतीय को नकारात्मक रूप में प्रभावित करने वाली नीति भी  उनके द्वारा काले धन, आतंकवाद और जाली करंसी के विरुद्ध बहुत बड़ी जीत के रूप में प्रस्तुत की जा सकती है। अपनी ओर से मजबूत और सशक्त दलीलों पर आधारित नीति एवं दृष्टिकोण प्रस्तुत न कर पाना ही राहुल गांधी की बहुत बड़ी विफलता है। 

सार्वजनिक भाषणबाजी के मामले में उनकी नीरसता तथा ऊर्जा की कमी दूसरे नम्बर की बातें हैं। राहुल गांधी में इतनी योग्यता नहीं कि वह कांग्रेस की सफलताओं का श्रेय ले सकें एवं नरेगा व ‘आधार’ के मामले में मोदी की मुकम्मल कलाबाजी को चुनौती दे सकें। तीसरी समस्या है कि जमीनी स्तर पर कांग्रेस के पास काडर नहीं है। भारतीय जनता पार्टी के पास जमीनी स्तर की गतिविधियां अंजाम देने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकत्र्ता उपलब्ध हैं। 

इनकी संख्या लाखों में है और वे न केवल समर्पित बल्कि वैचारिक रूप में भी पूरी तरह उत्साहित हैं। केवल कुछ ही वर्ष पूर्व तक हम अक्सर कुछ व्यक्तियों के लिए स्वतंत्रता सेनानी जैसा शब्द सुनते आए हैं। वे ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने शारीरिक रूप में लड़ाई नहीं की थी लेकिन कांग्रेस द्वारा समन्वित असहयोग आंदोलन के माध्यम से उन्होंने ब्रिटिश शासन का विरोध किया था। 

इनमें से जिनका जन्म 1930 के दशक के मध्य में हुआ था, स्वतंत्रता दिलाने वाली कांग्रेस के साथ अपने निरन्तर संबंधों के कारण उन्होंने नेहरू और बाद में इंदिरा गांधी की सेवा की थी। 1980 तक पहुंचते-पहुंचते स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा हुआ यह व्यक्ति, यानी ‘कांग्रेस वर्कर’ गायब होना शुरू हो गया और अब इसका कोई अस्तित्व ही नहीं रह गया। कांग्रेस के पास हिन्दुत्व या साम्यवाद जैसी कोई विचारधारा नहीं और न ही कोई विशेष समर्पित सामाजिक आधार है, जैसे कि मायावती या असदुद्दीन ओवैसी के पास दलित एवं मुस्लिम हैं। कांग्रेस के लिए किसी प्रकार का आंदोलन चलाने में केवल कुछ ही भारतीयों को कोई रुचि हो सकती है।  इस हकीकत के कारण ही किसी भी स्थानीय कांग्रेसी नेता को हर हालत में अपने लिए समर्थकों का आधार खड़ा करना होगा और वह भी अपने पैसे से। 

अब बारी आती है चौथी समस्या की और वह है संसाधन। चुनाव के लिए केवल पैसा ही नहीं चाहिए बल्कि ढेर सारा पैसा चाहिए। यह पैसा चुनावी राजनीति को दो तरीकों से हासिल होता है। पार्टी फंड इकट्ठा करती है चाहे वह आधिकारिक रूप में दिया गया चंदा हो या सदस्यता शुल्क या फिर सीधे-सीधे भ्रष्टाचार के माध्यम से। इस चंदे का एक भाग उम्मीदवारों में बांट लिया जाता है और कुछ पैसा राष्ट्रीय स्तर पर विज्ञापनबाजी, यात्रा एवं रैलियों की लागत जैसे खर्चों के लिए सांझे भंडार में चला जाता है। 

 चंदे का दूसरा भाग उम्मीदवारों द्वारा किया गया व्यक्तिगत निवेश है। यदि मैं यह कहूं कि विधानसभा का स्थानीय चुनाव लडऩे के लिए 10 करोड़ से अधिक राशि की जरूरत पड़ती है और संसदीय हलके का चुनाव लडऩे के लिए इससे कई गुणा अधिक पैसे की जरूरत होती है तो यह किसी रहस्य का खुलासा नहीं होगा। आज की तारीख में कांग्रेस केवल 2 ही बड़े राज्यों कर्नाटक और पंजाब में शासन कर रही है। 

कर्नाटक में तो आगामी चुनाव में इसके सत्ता से उखाड़ फैंके जाने की पूरी-पूरी संभावनाएं हैं। यह दोनों राज्य पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर जिंदा रखने के लिए पर्याप्त फंड नहीं जुटा सकते और कांग्रेस से टिकट हासिल करने वाले उम्मीदवार भी अपनी जेब में से अब बहुत बड़ी राशि खर्च नहीं करते। आखिर ऐसा कौन मूर्ख होगा जो लगातार पराजित हो रही पार्टी के नाम पर निवेश करेगा? 

इन्हीं कारणों से पार्टी मरणासन्न अवस्था में है। राज्यों में सत्ता छिन जाने के कारण कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर भी क्षीण होती जा रही है। यहां तक कि गुजरात जैसे द्विदलीय राज्यों में जहां कांग्रेस विपक्ष में है, यह चुनाव नहीं जीत सकती। गुजरात में लोकसभा या विधानसभा का चुनाव कांग्रेस ने आखिरी बार 3 दशक पूर्व जीता था। जब शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह की वर्तमान सरकारों की मियाद पूरी होगी तब तक कांग्रेस को मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सत्ता से दूर हुए 15 वर्ष हो चुके होंगे। ऐसा आभास होता है कि कांग्रेस स्थायी रूप में विपक्ष की कुॢसयों को सुशोभित करेगी। ओडिशा और पश्चिम बंगाल में तो अभी-अभी यह प्रभावी विपक्षता की हैसियत खो चुकी है जबकि यू.पी., बिहार और तमिलनाडु में उसका यह हश्र पहले ही हो चुका था। 

इस तरह की पार्टियों को किसी नए नेतृत्व द्वारा सुरजीत नहीं किया जा सकता। उन्हें एक नए संदेश की जरूरत है और इसके साथ ही अस्तित्व में बने रहने के लिए नया कारण भी ढूंढना होगा। 2017 की कांग्रेस किसी भी तरह किसी सकारात्मक बात का प्रतीक नहीं रह गई, यहां तक कि सैकुलरवाद का भी नहीं। कांग्रेस को यह सच्चाई स्वीकार करनी ही होगी। 

यह एक मृत मुस्लिम लड़के के पिता की प्रशंसा करती है जिसने वर्तमान राष्ट्रवादी भावनाओं के क्रोध से डर के मारे अपने बेटे की लाश लेने से इन्कार कर दिया था। दुश्मनी और नफरत मृत्यु में भी कायम रहती है। जिन पाॢटयों की कोई विश्वसनीयता नहीं और न ही वे अनुकरणीय जीवन मूल्यों की ध्वजवाहक हैं, ऐसी पाॢटयों के जिंदा रहने की कोई संभावना नहीं और उनका मरना तय है। कांग्रेस को भी आखिर इस सच्चाई का बोध होने लगा है। 

Advertising