भारतीय विचार में ‘राष्ट्रवाद’ नहीं ‘राष्ट्रीयता’ का भाव है

Thursday, Jul 23, 2020 - 02:14 AM (IST)

भारत और विश्व एक नए भारत का अनुभव कर रहे हैं क्योंकि भारत की विदेश नीति, रक्षा नीति, अर्थ नीतियों में एक मूलभूत परिवर्तन हुआ है। विदेश और रक्षा नीति में आए परिवर्तनों से भारतीय सेना का बल और मनोबल बढ़ा है। दुनिया में भारत की साख मजबूत हुई है। अधिकाधिक देश भारत का समर्थन कर रहे हैं और सहयोग करने को उत्सुक दिख रहे हैं। भारत के संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य बनने से भी महत्वपूर्ण 193 सदस्यों में से भारत को 184 का हमारा समर्थन करना रहा। 

अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के भारत के प्रस्ताव को भी संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी सदस्यों की स्वीकृति मिली। सौर ऊर्जा सहित अनेक विषयों में विश्व के अधिकांश देशों को एकजुट करने में भारत की पहल और भूमिका अहम है। भारत का बढऩा, शक्तिशाली और समृद्ध होना यह सम्पूर्ण मानवता और पर्यावरण के लिए भी वरदायी सिद्ध होगा। कारण भारत कीविश्व दृष्टि स्पर्धा नहीं संवाद, संघर्ष नहीं समन्वय और केवल मानव सृष्टि नहीं, सम्पूर्ण चर-अचर जगत का एकात्म और सर्वांगीण विचार करने वाली रही है। दुनिया में यह ऐसा अनोखा देश है जो सिर्फ अपने विषय में नहीं सोचता।

हमारी सांस्कृतिक दृष्टि ही ऐसी नहीं है। अर्थ नीति में बहुत परिवर्तन आवश्यक हैं, किंतु आर्थिक पहिए के तेज गति से घूमते रहने के चलते ऐसे आधारभूत परिवर्तन करना सरल नहीं है। वर्तमान में कोरोना महामारी के चलते आर्थिक पहिया रुक-सा गया है। इस अवसर का उपयोग कर भारत सरकार आॢथक नीतियों में सुधार करने की मंशा दिखा चुकी है। परन्तु 70 वर्षों की अर्थव्यवस्था का पुनरायोजनकरने के लिए साहस, दूरदृष्टि और निर्णय क्षमता के साथ-साथ धैर्यपूर्ण, सतत सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है। 

भारतीय विचार में ‘राष्ट्रवाद’ नहीं ‘राष्ट्रीयता’ का भाव है। हम ‘राष्ट्रवादी’ नहीं ‘राष्ट्रीय’ हैं। इसी कारण संघ का नाम ‘राष्ट्रवादी स्वयंसेवक संघ’ नहीं बल्कि ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ है। हमें कोई ‘राष्ट्रवाद’ नहीं लाना है। भारत की राष्ट्र की अवधारणा भारतीय जीवन दृष्टि पर आधारित है। यहां ‘राज्य’ नहीं, लोक को राष्ट्र की संज्ञा है। विभिन्न भाषाएं बोलने वाले, अनेक जातियों के नाम से जाने जाने वाले, विविध देवी-देवताओं की उपासना करने वाले भारत के सभी लोग इस अध्यात्माधारित एकात्मा, सर्वांगीण जीवन दृष्टि को अपना मानते हैं और उसी के माध्यम से सम्पूर्ण समाज एवं इस भूमि के साथ अपने आपको जुड़ा समझते हैं।

अपनी प्राचीन आर्ष दृष्टि से सत्य को देख कर उसे वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ढालते हुए आचरण करना ही भारत की राष्ट्रीयता का प्रकट होना है। अपनी इस सांझी पहचान और हमारे आपसी बंधु-भाव के रिश्ते उजागर कर अपनत्व से समाज को देने का संस्कार जगाना माने राष्ट्रीय भाव का जागरण करना है। समाज जीवन के हर क्षेत्र में इस ‘राष्ट्रत्व’ का प्रकट होना, अभिव्यक्त होना ही राष्ट्रीय पुनर्निर्माण है। यही ‘राष्ट्र’ के स्वत्व का जागरण और प्रकटीकरण है। राष्ट्र के ‘स्वत्व’ का प्रकट होना ‘राष्ट्रवाद’ कतई नहीं है। 

भारत के इस स्वत्व के प्रकटीकरण का भारत में ही विरोध कोई नई बात नहीं है। स्वतंत्रता के पश्चात जूनागढ़ रियासत के विलय की प्रक्रिया पूरी कर भारत के तत्कालीन गृहमंत्री श्री वल्लभभाई पटेल सोमनाथ गए। वहां 12 ज्योतिॄलगों में से एक सुप्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर के खंडहर देख उन्हें अत्यंत पीड़ा हुई। अब देश स्वतंत्र हो गया था तो भारत के इस गौरव स्थान की पुनस्र्थापना का संकल्प उनके मन में जगा। इस कार्य का उत्तरदायित्व उन्होंने पंडित नेहरू के मंत्रिमंडल के कैबिनेट मंत्री श्री कन्हैया लाल मुंशी को सौंपा। सरदार पटेल ने जब यह जानकारी महात्मा गांधी जी से सांझा की, तब गांधी जी ने इसका समर्थन किया, परन्तु इस कार्य को सरकारी धन से नहीं बल्कि जनता के द्वारा जुटाए धन के माध्यम से करने की सूचना दी। उसे तुरंत स्वीकार किया गया। इस मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के लिए भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डाक्टर राजेंद्र प्रसाद आए थे। उस कार्यक्रम का डाक्टर राजेंद्र प्रसाद का भाषण उल्लेखनीय है। परन्तु पंडित नेहरू को इससे आपत्ति थी। 

जिस घटना को सरदार पटेल, कन्हैया लाल मुंशी, महात्मा गांधी और राजेंद्र प्रसाद जैसे मूर्धन्य नेता भारत के गौरव की पुनस्र्थापना के रूप में देखते थे, उसी घटना का प्रधानमंत्री नेहरू ने हिंदू पुनरुत्थानवाद कहकर विरोध किया। इससे यह स्पष्ट होता है कि भारत के स्वत्व को नकारना, उसके प्रकट होने का विरोध करना यह तब भी था। परन्तु उस समय राष्ट्रीय विचार के लोग, कांग्रेस में भी अधिक संख्या में थे। इसलिए यह कार्य संभव हो पाया। ऐसे में हमारा कत्र्तव्य क्या है? इसका स्पष्ट और सटीक मार्गदर्शन करने वाला चित्र गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के 1904 में प्रस्तुत ‘स्वदेशी समाज’ निबंध में खींचा गया है। यह सत्य है कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रवाद का विरोध किया। पर वह कॉलोनियलिज्म और विश्व युद्ध के परिणामों की पृष्ठभूमि पर पश्चिम के नेशन स्टेट आधारित ‘राष्ट्रवाद’ के विरुद्ध थे। भारत की राष्ट्रीयता यानी ‘स्वत्व’ के वे कैसे पक्षधर थे, इसका प्रमाण ‘स्वदेशी समाज’ निबंध है। इसमें वे लिखते हैं :- 

देश के तपस्वियों ने जिस शक्ति का संचय किया वह बहुमूल्य है। विधाता उसे निष्फल नहीं होने देगा। इसलिए उचित समय पर उसने इस निश्चेष्ट भारत को कठोर वेदना देकर जागृत किया है। भारत की आत्मा को जगाकर भारत का स्वत्व प्रकट करने का समय आया है। यह प्रक्रिया ईश्वर की योजना से और आशीर्वाद से प्रारंभ भी हो चुकी है। भारत की इस आत्मा को नकारने वाले तत्व चाहे जितना विरोध करें, भारत विरोधी विदेशी शक्तियां चाहे जितना जोर लगा लें, भारत की जनता का संकल्प अब प्रकट हो चुका है। विश्व मंगल की साधना के पुजारियों की यह तपस्या और परिश्रम सफल होकर रहेंगे। भारत के ‘स्वत्व’ को शक्ति और गौरव के साथ पुनस्र्थापित करने के इस ऐतिहासिक समय में भारत के सभी लोग अपनी राजनीति और अन्य निहित स्वार्थ किनारे रख एकता का परिचय दें और स्वाभिमानपूर्ण आत्मनिर्भर भारत के निर्माण की इस यात्रा में सहभागी बनें यह अपेक्षा इस राष्ट्र की हम सबसे है।-डा. मनमोहन वैद्य (लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-सरकार्यवाह हैं)

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