केवल ‘92 दिन’ में लिए भारत का भविष्य तय करने वाले अहम निर्णय

Friday, Aug 30, 2019 - 03:33 AM (IST)

इस वर्ष 30 मई को नरेन्द्र मोदी ने दूसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली, जिसके आज (शुक्रवार) 92 दिन पूरे हो गए हैं। मुझे याद नहीं कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में इतने छोटे से कालखंड में अत्यंत महत्वपूर्ण और दूरगामी परिणाम वाले निर्णय कब लिए गए थे, जिन्होंने भारत के भविष्य को परिभाषित किया हो।

मोदी सरकार-2 के अब तक के कार्यकाल में कई महत्वपूर्ण घटनाक्रम सामने आए, जिनमें से तीन पर विवेचना करना आवश्यक है। पहला-30 जुलाई को संसद (लोकसभा के बाद राज्यसभा से) द्वारा ‘तीन तलाक’ विरोधी मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक पारित होकर कानून बना। दूसरा, 5 और 6 अगस्त को संसद के दोनों सदनों से अनुच्छेद 370 और 35ए हटाने सहित जम्मू-कश्मीर से संबंधित 4 महत्वपूर्ण विधेयक पारित हुए। इसके बाद, 21 अगस्त को  पूर्व केन्द्रीय मंत्री, राज्यसभा सांसद और भ्रष्टाचार के मामले में आरोपी पी. चिदम्बरम को सी.बी.आई. द्वारा गिरफ्तार किया गया। इन तीनों घटनाओं ने दशकों पुराने भ्रम को तोडऩे का काम किया है।

तीन तलाक का मुद्दा
सर्वप्रथम, ‘तीन तलाक’ का मुद्दा न ही हिंदू बनाम मुस्लिम है (जैसा अधिकतर विरोधी दलों का आरोप है) और न ही केवल लैंगिक समानता तक सीमित (जैसा सत्तापक्ष के लोग दावा करते हैं)। इस कानून की व्याख्या और आवश्यकता इन सबसे कहीं अधिक है। स्वतंत्रता पूर्व से ही कांग्रेस ने जिस प्रकार मुसलमानों के साथ व्यवहार किया, उसने देश में शेष सामान्य नागरिकों के साथ भेदभाव को बढ़ावा दिया है। कांग्रेस के आलोचक इसे मुस्लिम तुष्टीकरण का नाम देते हैं, किंतु मैं मानता हूं कि कांग्रेस के इस रवैये का सर्वाधिक नुक्सान मुस्लिम समाज को ही हुआ है। 

वर्ष 1955-56 में हिंदू कोड बिल के अंतर्गत 4 विधेयकों को तत्कालीन नेहरू सरकार ने भारी बहुमत के बल पर पारित किया, जिसके बाद बहुसंख्यक समाज में सुधार को तीव्रता भी मिली। किंतु इस प्रक्रिया से मुसलमानों को पूरी तरह वंचित रखा गया। इसी कारण मुस्लिम समाज में कुरीतियों की जड़ें और अधिक गहरी होती गईं। स्मरण रहे कि जिस प्रकार हिंदू कोड बिल का प्रारंभिक दौर में बहुसंख्यकों ने विरोध किया था, आज वैसी ही प्रतिक्रिया मुस्लिम समाज के एक वर्ग में ‘तीन तलाक’ विरोधी कानून के खिलाफ देखने को मिल रही है। सच तो यह है कि मोदी सरकार-2 ने अपने इस कदम से मुस्लिम समाज को न केवल शेष भारतीय समाज में एकीकृत किया है, साथ ही उनकी चिंताओं को सरकार का हिस्सा भी बनाया है। 

स्वतंत्रता के लगभग दो माह पश्चात 22 अक्तूबर 1947 को जब पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर पर हमला किया, तब तत्कालीन भारत सरकार और रियासत के महाराजा हरिसिंह के बीच 26-27 अक्तूबर 1947 को ‘इंस्ट्रू्मैंट आफ एक्सैशन’ अनुबंधित हुआ था। इस संधिपत्र का प्रारूप बिल्कुल वही था, जिसके माध्यम से उस समय 560 शासकों ने भारत में अपनी रियासतों का औपचारिक विलय किया था। यहां तक कि जयपुर, ग्वालियर जैसी बड़ी-बड़ी रियासतें भी इसी संधिपत्र पर हस्ताक्षर के साथ बिना किसी व्यवधान के भारत में विलीन हो गईं। किंतु तत्कालीन सरकार ने पर्दे के पीछे से अनुच्छेद 370 और 35ए को अस्थायी रूप से लागू करके, जम्मू-कश्मीर को अलग-थलग कर दिया। 

जब हमारा संविधान किसी को भी मजहब के नाम पर भेदभाव और व्यवहार करने का अधिकार नहीं देता है और जो भारत की सनातन संस्कृति और उसकी बहुलतावादी परम्पराओं के विरुद्ध भी है, तो जम्मू-कश्मीर के साथ ऐसा क्यों किया गया? इस प्रदेश के लिए अनुच्छेद 370 केवल इसलिए लागू किया गया था क्योंकि वह देश का एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य था। इसके विरोधस्वरूप देश में भारतीय जनता पार्टी के पूर्ववर्ती संस्करण भारतीय जनसंघ की 1952 में स्थापना हुई और 23 जून 1953 को इस राष्ट्रवादी संगठन के संस्थापक डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को अपने प्राणों का बलिदान भी देना पड़ा। 

अनुच्छेद 370-35ए को हटाना कठिन नहीं था
सच तो यह है कि ‘अस्थायी’ अनुच्छेद 370 और 35ए का संवैधानिक क्षरण कठिन नहीं था, केवल इसके लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति और साहस की आवश्यकता थी जिसे इन दोनों मूल्यों से परिपूर्ण मोदी सरकार ने करके दिखा दिया, जिसका प्रमाण वह विमुद्रीकरण, गुलाम कश्मीर में सर्जिकल स्ट्राइक और पाकिस्तान स्थित बालाकोट में एयरस्ट्राइक करके पहले ही दे चुकी थी। क्या यह सत्य नहीं कि इन प्रावधानों की आड़ में कुछ राजनीतिक परिवार दशकों से न केवल कश्मीर को अपनी पैतृक सम्पत्ति मानकर उसके ठेकेदार बने हुए थे, साथ ही ‘काफिर-कुफ्र’ दर्शन से जनित जेहाद को घाटी में पोषित और शेष भारत से कश्मीर को भावनात्मक रूप से काट भी रहे थे? 

अनुच्छेद 370-35ए के संवैधानिक क्षरण और मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक का कांग्रेस, तृणमूल सहित अन्य विपक्षी दलों द्वारा पुरजोर विरोध इस्लामी कट्टरपंथियों के तुष्टीकरण को चुनौती मिलने और मुस्लिम वोट बैंक छिटकने के भय का परिणाम है। इसी मानसिकता के कारण ही अधिकांश विपक्षी दल नैशनल रजिस्टर आफ सिटीजंस (एन.आर.सी.) अर्थात् राष्ट्रीय नागरिकता पंजीकरण का भी विरोध कर रहे हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, असम एन.आर.सी. की अंतिम सूची 31 अगस्त तक जारी कर दी जाएगी। 

स्वतंत्र भारत में भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी रही हैं। शीर्ष नेतृत्व से लेकर निचले स्तर की शासन व्यवस्था को यह दीमक दशकों से खोखला कर रही है। हाल के वर्षों तक, सामान्य लोगों ने इस बात का भी अनुभव किया था कि भ्रष्टाचार के मामलों में सार्वजनिक क्षेत्र में निचले समूह के अधिकारी व बाबू की जवाबदेही तो निश्चित कर दी जाती थी, किंतु शीर्ष स्तर सदैव इससे अछूता रहता था। देश के पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम की गिरफ्तारी ने इसी दशकों पुराने भ्रम को तोडऩे का काम किया है। 

घोटालों की कालिख 
जिस आई.एन.एक्स. मीडिया मामले में चिदम्बरम की गिरफ्तारी हुई है, वह उसी दौर का मामला है जब कांग्रेस नीत यू.पी.ए. सरकार पर एक के बाद एक बड़े घोटालों की कालिख लग रही थी। फिर भी कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्षा सोनिया गांधी और पार्टी चिदम्बरम के साथ खड़ी है। वास्तव में  इसकी पटकथा तभी लिख दी गई थी, जब इस वर्ष जून में राहुल गांधी ने बतौर पार्टी अध्यक्ष भाजपा से ‘एक-एक इंच’ पर प्रत्येक संस्थानों से लडऩे का युद्ध उद्घोष किया था। यही कारण है कि जब 20 अगस्त को आई.एन.एक्स मीडिया मामले की सुनवाई कर रहे दिल्ली उच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश सुनील गौर ने चिदम्बरम पर टिप्पणी करते हुए उन्हें ‘किंगपिन’ अर्थात् मुख्य साजिशकत्र्ता बताया, जिसके बाद गिरफ्तारी से बचने के लिए वह 27 घंटे लापता भी रहे और सर्वोच्च अदालत ने भी चिदम्बरम को फौरी राहत देने से इंकार कर दिया,  तब कांग्रेस ने जांच एजैंसियों के साथ न्यायाधीश गौर और शीर्ष न्यायालय की नीयत पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया। 

वास्तविकता तो यही है कि कांग्रेस सहित कुछ राजनीतिक दलों द्वारा चिदम्बरम को मिला समर्थन, उसी वांछित व्यवस्था को पाने की लालसा है जिसमें आई.एन.एक्स मीडिया घोटाले की पटकथा आसानी से लिखने और भ्रष्ट शीर्ष नेताओं को किसी भी जवाबदेही से बचने का ‘विशेषाधिकार’ मिल सके। भ्रष्टाचार के मामलों पर कांग्रेस नेतृत्व का आचरण स्पष्ट करता है कि वह देश में किसी भी रक्षा समझौते में दलाली, घूस लेने, आर्थिक अपराधियों के निश्चिंत रहने, जवाबदेही मुक्त शासन-व्यवस्था और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के रूप में समानांतर सत्ता के केन्द्र को स्थापित करने की ‘स्वतंत्रता’ को बहाल करना चाहता है। इस पृष्ठभूमि में ऐसा पहली बार जनता अनुभव कर रही है कि वर्ष 2014 से अब तक केन्द्र सरकार का शीर्ष नेतृत्व (मंत्री और सांसद सहित) भ्रष्टाचार से पूरी तरह मुक्त है। 

स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसे कई क्षण आए है, जो घोषित रूप से मील के पत्थर के समान हैं। 26 जनवरी 1950 को हमारे गणतंत्र की स्थापना, 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में पाकिस्तान के दो टुकड़े करना,1998 में शेष विश्व के दबाव के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में पोखरण-2 परमाणु परीक्षण करना, 1999 में अमरीकी नेतृत्व की परोक्ष मदद से पाकिस्तान की कारगिल में अक्तूबर 1947 जैसी स्थिति को दोहराने की योजना पर वाजपेयी सरकार द्वारा पानी फेरना, ऐसे उदाहरण हैं जिन्होंने शेष विश्व में भारत के भविष्य को परिभाषित करने का काम किया। इसी तरह, वर्तमान सरकार में उपरोक्त उल्लेखित 3 मुख्य घटनाक्रमों की गणना भी देश के मील के पत्थरों में होती है, जिन्होंने सामरिक, सामाजिक और वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत को भीतर और बाह्य रूप से पहले से कहीं अधिक सशक्त करने में मुख्य भूमिका निभाई है।-बलबीर पुंज
 

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