पहले जैसा नहीं रहा ‘अयोध्या मुद्दे’ का महत्व

Wednesday, Mar 15, 2017 - 11:30 PM (IST)

अयोध्या मुद्दा क्या आज भी 25 वर्ष पहले की तरह प्रासंगिक है? इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अभी भी ऐसे तत्व मौजूद हैं जो अयोध्या मुद्दे पर साम्प्रदायिक हो-हल्ला मचाने को उतावले हैं। लेकिन यह हो-हल्ला अढ़ाई दशक पूर्व की तरह अब उतना शक्तिशाली नहीं रहा क्योंकि इसकी व्यापक अपील तथा स्वीकार्यता का स्तर तब जैसा नहीं रह गया।

किसी मुद्दे पर मात्र हो-हल्ला मचाने तथा इसके पक्ष में उत्साहपूर्ण लहर उठने में बहुत अंतर होता है। यह कोई लुकी-छिपी बात नहीं कि जब अयोध्या मुद्दा मजहबी, सामाजिक तथा साथ ही साथ राजनीतिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण नजर आ रहा था तो इसे मीडिया कवरेज सहित सभी स्तरों पर बहुत अधिक महत्व दिया जा रहा था। 25 वर्ष पूर्व यह जिस चरम सीमा को छू गया था उसकी तुलना में आज इसका महत्व बहुत कम हो गया है और साथ ही प्रत्येक स्तर पर इसकी प्रासंगिकता भी गौण हो गई है। 1992 और 2017 के बीच इस मुद्दे की प्रासंगिकता में स्पष्ट तौर पर जो भारी बदलाव आया है उस पर मंथन करना बहुत जरूरी है। 

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि बाबरी विध्वंस की ताजा वर्षगांठ (6 दिसम्बर) के दिन ही तमिल नेता जयललिता का देहावसान हो गया था। इसके चलते मीडिया में जयललिता ही सुॢखयों में छाई रही थीं। कहा जा सकता है कि यदि जयललिता का निधन न हुआ होता तो शायद इस मुद्दे को मीडिया में बहुत अधिक कवरेज मिलती। लेकिन गत कई वर्षों दौरान बाबरी विध्वंस की वर्षगांठ के मौके पर इस मुद्दे को कोई उल्लेखनीय तवज्जो नहीं मिलती रही। अन्य कई वर्षगांठों का हश्र भी ऐसा ही होता आया है। 

ऐसे में जयललिता के निधन न होने की स्थिति में भी यह मुद्दा कोई अधिक उछलने की उम्मीद नहीं थी। इसका कारण यह नहीं कि मीडिया में कोई अन्य अधिक महत्वपूर्ण मुद्दे आ गए हैं बल्कि सरल सा तथ्य यह है कि इस मुद्दे को इतना महत्वपूर्ण नहीं समझा जा रहा कि अधिक कवरेज दी जाए। अब इस बात का क्या अर्थ लगाया जाए? नि:संदेह भारत में सभी मजहबी समुदायों के लोग आज भी उतने ही धार्मिक हैं जितने अढ़ाई दशक पूर्व थे। बल्कि यह कहना भी गलत नहीं होगा कि हाल ही के वर्षों में धार्मिक मान्यताओं और व्यवहारों इत्यादि का महत्व केवल बढ़ा ही है। 

इसी कारण हम देख रहे हैं कि टी.वी. चैनलों पर उन सीरियलों को काफी लोकप्रियता मिलती है जिनमें धार्मिक कर्मकांड और मान्यताओं को रेखांकित किया जाता है। इसी के समांतर लोगों की धार्मिक और सैकुलर जनमानसिकता की सामाजिक-राजनीतिक वास्तविकता की भी अनदेखी नहीं की जा सकती और उसे हाशिए पर नहीं धकेला जा सकता। इसका तात्पर्य यह है कि लोग राजनीतिक प्रकृति वाले मजहबी आदेशों का अंधानुसरण करने के लिए अब रुचित नहीं होते। बाबरी विध्वंस के दौरान जो उन्माद देखने में आया था वह निश्चय ही एक अस्थायी दौर था। उसके बाद आज तक इस पागलपन की पुनरावृति नहीं हुई। इसके कई कुंजीवत कारण हैं। सबसे बड़ा कारण तो यह है कि लोग अब राजनीतिज्ञों के मजहबी आदेशों का अंधानुसरण करने से इंकारी हैं। 

दूसरा कारण यह है कि मजहब लोगों के लिए महत्वपूर्ण होते हुए भी वे इसका साम्प्रदायिक तर्ज पर दुरुपयोग करने में रुचि नहीं लेते। बेशक बाबरी विध्वंस के कारण भाजपा एक प्रमुख राजनीतिक पार्टी की हैसियत हासिल करने में सफल हुई थी लेकिन बाद के वर्षों में दोबारा जनमानस में वैसी गर्मी पैदा नहीं कर पाई। फिर भी उनके कुत्सित इरादों का दुष्प्रभाव कुछ चुङ्क्षनदा क्षेत्रों तक ही सीमित रहता है। यहां तक कि गुजरात में हुई कत्लोगारत भी केवल उस राज्य की सीमाओं के अंदर ही रह गई थी। उत्तर प्रदेश में भी 2002 में अयोध्या मुद्दे को दोबारा नहीं भड़काया जा सका था। 

यू.पी. के विधानसभा चुनावों से कुछ समय पहले ऐसी आशंकाएं थीं कि कुछ निहित स्वार्थ अयोध्या मुद्दे पर शोर मचा सकते हैं। बेशक राजनीतिक पाॢटयां ऐसा सोचती भी हों तो भी आम भारतीय अपना दुरुपयोग करवाने को तैयार नहीं, क्योंकि वे अपने हितों को नुक्सान नहीं पहुंचाना चाहते।    

Advertising