कैराना उपचुनाव के निहितार्थ

Saturday, Jun 02, 2018 - 05:00 AM (IST)

आखिरकार हाल ही में सम्पन्न हुए उपचुनाव में उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा सीट महागठबंधन के अन्तर्गत रालोद ने हथिया ली। इस सीट पर भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा। गौरतलब है कि अत्यन्त संवेदनशील इस सीट पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई थीं। 2013 में हुए साम्प्रदायिक दंगों में मुजफ्फरनगर, शामली और कैराना का सामाजिक ताना-बाना तहस-नहस हो गया था। 

इन दंगों में अल्पसंख्यक समुदाय के अनेक लोगों को अपने गांव छोड़कर भागना पड़ा था। इस बार भाजपा ने एक बार फिर धु्रवीकरण की कोशिश की, जो कामयाब नहीं हो पाई। इसके चलते सपा, बसपा, कांग्रेस और रालोद गठबंधन की संयुक्त प्रत्याशी रालोद की तबस्सुम हसन ने भाजपा प्रत्याशी मृगांका सिंह को 44,618 मतों से हरा दिया। 2013 में हुए दंगों के समय चौधरी अजित सिंह की उदासीनता के चलते यहां का जाट तबका उनसे नाराज चल रहा था। इस बार अजित सिंह ने इस मुद्दे को गंवाना उचित नहीं समझा और इस इलाके में जी-तोड़ मेहनत की। अगर इस बार रालोद यह सीट न जीतती तो उसके अस्तित्व के लिए भी यह एक बड़ी चुनौती होती। 

हालांकि इस सीट को साधने के लिए भाजपा ने भी कम मेहनत नहीं की। पार्टी के बड़े-बड़ेे नेता कैराना क्षेत्र के गांवों में डेरा जमाए रहे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा हड़बड़ी में दिल्ली-मेरठ एक्सप्रैस-वे तथा ईस्टर्न पेरिफेरल एक्सप्रैस-वे का उद्घाटन और बागपत में रैली का आयोजन भी भाजपा की इज्जत नहीं बचा पाया। भाजपा की इस सारी कसरत पर मुस्लिम, जाट और दलित समीकरण ने पानी फेर दिया। जब मुजफ्फरनगर, शामली और कैराना के ग्रामीण इलाकों में किसानों से बात की गई तो वे गन्ने का भुगतान न होने से नाराज दिखाई दिए। उनका कहना था कि उत्तर प्रदेश के गन्ना मंत्री इसी इलाके से हैं, इसके बावजूद किसानों को गन्ने का भुगतान नहीं हो रहा है। कुछ किसानों ने यहां हुए दंगों के लिए भी भाजपा को जिम्मेदार ठहराया। दूसरी तरफ  दलितों पर हुए अत्याचार से भी दलित भाजपा के प्रति आक्रोशित थे। 

2013 में कुछ राजनेताओं ने अपने गैर-जिम्मेदाराना रवैये के कारण जान-बूझकर इस इलाके को साम्प्रदायिक हिंसा की भेंट चढ़ा दिया था। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि प्रशासन की नाकामी ने साम्प्रदायिक हिंसा को पनपने का मौका दिया और आम लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया गया। यदि प्रशासन समय रहते स्थिति का आकलन कर लेता तो हिंसा को टाला जा सकता था। स्थानीय राजनेता यदि सूझ-बूझ से काम लेते तो दोनों ही पक्षों के कट्टरपंथी लोगों में हिंसा की आग न भड़कती। यह सही है कि ऐसे मुद्दों पर राजनेता वोट बैंक की राजनीति करते हैं लेकिन सवाल यह है कि यह समाज बार-बार वोट बैंक की राजनीति का मोहरा क्यों बनता है? हम क्यों नेताओं के हाथों की कठपुतली बनकर उनके इशारों पर नाचने लगते हैं? 

आज साम्प्रदायिक दंगों में मरने वाले लोगों की आत्माएं एवं परिजन सरकारों और राजनेताओं से चीख-चीखकर यह सवाल कर रहे हैं कि उन्होंने एक आम आदमी के साथ यह छल क्यों किया? नेताओं का खोखला आदर्शवाद देखिए कि जो नेता दंगों से पहले बढ़-चढ़कर उत्तेजक भाषण दे रहे थे, वही नेता दंगों के बाद लोगों से शान्ति बनाए रखने की अपील कर रहे थे? क्या दंगों से पहले लोगों को समझा-बुझाकर शान्ति बनाए रखने की अपील नहीं की जा सकती थी? नेताओं का काम केवल वोट बैंक की राजनीति के माध्यम से वोट हथिया लेना भर नहीं है। उनका वास्तविक कार्य समाज से वोट लेने के बाद शुरू होता है। उनकी कुछ सामाजिक जिम्मेदारियां होती हैं। 

सवाल यह है कि क्या स्थानीय नेताओं ने इस मुद्दे पर ईमानदारी के साथ सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वहन किया? जनता के साथ-साथ यदि नेता भी उग्र होने लगेंगे तो समाज में तनाव फैलना तय है। गौरतलब है कि इस उपचुनाव ने पुन: हिन्दू-मुस्लिम एकता का आधार तैयार किया। मुजफ्फरनगर में पहले भी साम्प्रदायिक दंगे हुए थे लेकिन उनकी आंच कभी भी गांवों तक नहीं पहुंची थी। 2013 में पहली बार ऐसा हुआ कि एक गांव से शुरू हुआ बवाल साम्प्रदायिक हिंसा में तबदील होकर ग्रामीण इलाकों में फैल गया। गांवों में मुस्लिम,जाट और अन्य समुदाय सौहार्दपूर्ण तरीके से रहते आए हैं। 

शहरों में साम्प्रदायिक दंगे होते रहे हैं लेकिन गांवों में लोगों ने हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द की अद्भुत मिसालें कायम की हैं। ऐसे अनेक अवसर आए जब चुनावों में जाट और मुस्लिम समुदायों ने एक होकर उम्मीदवारों को जीत दिलाई। गांवों में हिन्दू-मुस्लिम एक-दूसरे के दुख-सुख के सांझीदार रहे हैं इसलिए एक-दूसरे के बिना दोनों ही समुदायों का काम चलना बहुत मुश्किल है। यह सुखद है कि कुछ समय पहले कुछ स्वार्थी तत्वों ने गांवों में जिस हिन्दू-मुस्लिम एकता को पलीता लगा दिया था, इस उपचुनाव के माध्यम से वह एकता पुन: स्थापित हुई है। इस चुनाव ने यह भी सिद्ध कर दिया कि धु्रवीकरण की कोशिशें बहुत लम्बे समय तक समाज को नहीं भटका सकतीं। 

आम व्यवहार में हिन्दुओं, मुसलमानों और दलितों का काम एक-दूसरे के बिना नहीं चल सकता। यह सही है कि कुछ राजनेता हर चुनाव में मुुजफ्फरनगर दंगों के जख्मों को कुरेद कर बार-बार धु्रवीकरण की राजनीति करते हैं  लेकिन जब तक सरकार बचकानी बातों को छोड़कर सामाजिक हित में कुछ गम्भीर प्रयास नहीं करेगी, तब तक उसकी किरकिरी होती रहेगी। जनता अब यह समझ चुकी है कि मात्र जुमलों के सहारे सफलता प्राप्त नहीं हो सकती। कैराना चुनाव के गहरे निहितार्थ हैं जो 2019 के चुनाव में भी अपना जलवा दिखाएंगे।-रोहित कौशिक

Pardeep

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