अगर यही सोच रही तो किसान फिर सड़क पर होगा

Sunday, Jan 02, 2022 - 07:00 AM (IST)

कोई दो साल पहले भारत सरकार के कंपनी मामलों के विभाग के सचिव ने मीडिया कांफ्रैंस में व्यंग्यात्मक लहजे में कहा था, ‘‘यूरोपियन यूनियन (ई.यू.) के देश अपनी एक गाय पर जितनी सबसिडी देते हैं उतने में वह गाय दो बार बिजनैस क्लास में पूरी दुनिया का भ्रमण कर सकती है।’’ 

यह टिप्पणी बार-बार अमरीका और ईयू द्वारा भारत की सबसिडी के खिलाफ वल्र्ड बैंक में गुहार लगाने की प्रतिक्रिया स्वरूप थी। भारत में आज हर वर्ष एक किसान को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में लगभग 100 डॉलर की सबसिडी मिलती है, जिसमें उपभोक्ताओं को दिया जाने वाला सस्ता अनाज भी शामिल है। इसके ठीक उलट देश में आज भी 44 प्रतिशत सिंचित भूमि है जिसके कारण किसानों को महंगा डीजल लेकर खेत की प्यास ही नहीं बुझानी पड़ती, बल्कि सरकार को इस खरीद पर टैक्स भी मिलता है। अन्य तमाम मुल्कों में सरकारों ने नहरों का जाल और अन्य साधनों से इस मद में खर्च किया जबकि 70 साल से भारत की सरकारें इसे नजरअंदाज करती रहीं क्योंकि ऐसे प्रोजैक्ट्स के फलीभूत होने का समय 15-20 साल है जबकि सरकारें अगले चुनाव में परिणाम चाहती हैं। 

ओ.ई.सी.डी. (आर्गेनाईजेशन फॉर इकोनोमिक को-ऑपरेशन एंड डिवैल्पमैंट) द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि भारत और अर्जेंटीना दो ऐसे देश हैं जहां गलत नीतियों के कारण छिपे टैक्स और अनाज की कीमतों को विश्व बाजार के मुकाबले कृत्रिम रूप से कम करके किसानों की आय पर कुठाराघात किया जाता है। लेकिन चूंकि उपभोक्ताओं को राहत के लिए वही सरकार व्यापक कल्याणकारी कार्यक्रम चलाती है लिहाजा किसानों की सबसिडी थोड़ी-बहुत धनात्मक हो जाती है।

इस संदर्भ में अध्ययन ने कहा कि अपनी जी.डी.पी. के प्रतिशत के पैमाने पर सबसे ज्यादा सबसिडी फिलीपींस (3.1), इंडोनेशिया (2.9) और चीन देते हैं जबकि भारत केवल 0.6 प्रतिशत देता है। अमरीका इस मद में जी.डी.पी. का 0.5 प्रतिशत खर्च करने का दावा करता है। ध्यान रहे कि अमरीका का जी.डी.पी. 22 ट्रिलियन डॉलर और चीन का 16 ट्रिलियन डॉलर है जबकि भारत का मात्र 3.1 ट्रिलियन डॉलर। फिर अमरीका में केवल 20 लाख किसान हैं जबकि भारत में वास्तविक किसान 7 से 11 करोड़, हालांकि एन.एस.एस.ओ. और पी.एल.एफ.एस. के आंकड़ों में भारी अंतर है। कहना न होगा कि इसके अलावा संपन्न देश बहुत सारी सबसिडीज अघोषित और परोक्ष रूप से देते हैं, जैसे आयात शुल्क बढ़ाना, ताकि देश के किसान अपनी जीन्सों का मूल्य वैश्विक बाजार में बढ़ा सकें। 

7 करोड़ डेयरी किसानों पर वज्रपात 
अभी 3 कानून वापसी पर आंदोलन ठंडा हुआ ही था कि किसानों पर एक और कुठाराघात होने जा रहा है। 5 राज्यों में चुनाव की वजह से भले ही कुछ हफ्तों के लिए खतरा टल जाए लेकिन देश के किसानों के सर पर एक बार सरकारी खंजर लटकने लगा है। यह वही खंजर है जो दो साल पहले किसानों की नाराजगी से टल गया था। भारत ने दो साल पहले 4 नवम्बर, 2019 को अपने को 15 देशों के संगठन क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक सहभागिता (आर.सी.ई.पी.) से बाहर कर लिया लेकिन अब फिर ‘चोर दरवाजे से’ भारत-ऑस्ट्रेलिया द्विपक्षीय व्यापक आर्थिक सहयोग समझौते (सी.ई.सी.ए.) के तहत एक नया अंतरिम समझौता करने को तत्पर है। अगर यह समझौता होता है तो देश के 7 करोड़ किसान परिवार जिनकी आजीविका दूध-उत्पादन पर आधारित है, प्रभावित होंगें। भारतीय किसान संगठन ने इसके खिलाफ चेतावनी दी है। 

खतरा यह है कि समझौता होने पर ऑस्ट्रेलिया का सस्ता दूध भारत में आएगा जिससे देश का दूध उद्योग काफी प्रभावित होगा। आज से 50 वर्ष पहले तक भारत का विश्व दूध उत्पादन में हिस्सा 5 प्रतिशत (श्वेत क्रांति के पहले) था जो आज 20 प्रतिशत है और हम दुनिया में दूध के सबसे बड़े उत्पादक और आत्मनिर्भर हैं। लेकिन भारत में प्रति डेयरी केवल दो जानवर हैं जबकि ऑस्ट्रेलिया, अमरीका, इंगलैंड और डेनमार्क में क्रमश: 355, 191, 148 और 160 हैं। 

भारत का एस.एम.पी. (सॉलिड मिल्क पाऊडर) 300 रुपए किलो पड़ता है जबकि ये देश भारत को 160 रुपए में देने को तत्पर हैं। जहां भारत के सात करोड़ किसान परिवार की आजीविका है दूध-उत्पादन वहीं ऑस्ट्रेलिया में सिर्फ 6300 लोग इसे औद्योगिक पैमाने पर करते हैं। सरकार भूल रही है कि दुग्ध व्यापार पर असर का मतलब है देश की आधी आबादी की आय पर कुठाराघात। नीति आयोग का कहना है कि भारत अगले 10 साल बाद अपनी जरूरत (292 मिलियन टन) से 32 मिलियन टन ज्यादा दूध पैदा करेगा। जरूरत है उसे नए संवॢद्धत नस्ल के पशुओं की और चारे के लिए सरकार से मदद की।-एन.के. सिंह
 

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