‘...यदि पाकिस्तान के इरादे नेक हों’

punjabkesari.in Wednesday, Mar 10, 2021 - 03:13 AM (IST)

भारत तथा पाकिस्तान युद्ध विराम को लेकर समझौतों को लागू करने के लिए सहमत हो गए हैं ताकि शांति स्थापित हो सके। दोनों देशों के डायरैक्टर जनरल मिलिटरी आप्रेशन (डी.जी.एम.ओ.) के बीच 22 फरवरी को हॉट लाइन पर लम्बी बातचीत के बाद सहमति बन पाई। फिर 24-25 फरवरी की आधी रात से इस समझौते को लागू करने के बारे में आदेश जारी कर दिया। इसके फौरन बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपनी सेना के इस निर्णय की पीठ थपथपाते हुए समझौते का स्वागत किया और कहा कि वह भारत से कश्मीर सहित सभी लम्बित मामलों के बारे में विचार करने के लिए तैयार हैं। 

प्रश्न यह पैदा होता है कि वह कौन से प्राथमिक तथा लम्बित ऐसे समझौते हैं जिनको पाकिस्तान हकीकत में बदलना चाहता है। युद्ध विराम करके शांति बहाली के लिए उठाया गया यह कदम प्रशंसनीय तो है यदि पाकिस्तान के इरादे नेक हों। 

पाकिस्तान समझौतों को तोड़ने का आदी
देश के बंटवारे के तुरंत बाद जब पाकिस्तानी हमलावरों तथा सेना ने कश्मीर में घुसपैठ की तो भारतीय सेना ने दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए फिर 1948 में संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में युद्ध विराम रेखा (सी.एफ.एल.) अस्तित्व में आई मगर यह रेखा वहीं तक सीमित रही और इसके आगे उत्तर की ओर बढ़ते सियाचिन ग्लेशियर को स्पष्ट नहीं की जिसके चलते सियाचिन विवाद खड़ा हुआ। 

संधि के अनुसार अन्य मुद्दों के अलावा पाकिस्तान ने अपनी सेना को वापस नहीं बुलाया, फिर 1965 में पाकिस्तान ने सी.एफ.एल. का उल्लंघन करते हुए हजारों की तादाद में घुसपैठियों को जम्मू-कश्मीर में धकेलना शुरू किया। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के उपरांत 1972 में शिमला समझौता हुआ जिसके अंतर्गत अन्य धाराओं के अलावा सी.एफ.एल. में कुछ तबदीलियां कर सीमा को लाइन आफ कंट्रोल (एल.ओ.सी.) का दर्जा दिया गया। इसके बाद काफी समय तक शांतिपूर्वक वातावरण बरकरार रहा। 

1971 वाली शर्मनाक हार का बदला लेने की खातिर पाकिस्तान ने भारत पर 100 कट लगाने वाली नीति अपनाई तथा 80 के दशक के दौरान आतंकवाद का दौर शुरू हो गया। सैंकड़ों की तादाद में मुजाहिदीनों जिसमें से कुछ तो अफगान के युद्ध से फारिग हुए थे, को आतंकवादी संगठनों में संगठित कर कश्मीर को एक खूनी अखाड़ा बनाया गया। कारगिल युद्ध में हार का सामना करने के बावजूद पाकिस्तान बाज न आया तथा वर्ष 1991 तथा 2001 के बीच 4500 से अधिक आतंकी घटनाएं घटीं। आतंकवाद ने देश के भीतर उस समय दस्तक दी जब दिसम्बर 2001 में संसद पर हमला किया गया। फिर मुम्बई में भी युद्ध जैसी स्थिति पैदा हो गई। 2003 में दोनों देशों के दरम्यान उच्चस्तरीय राजनीतिक तथा कूटनीतिक बैठकों के बाद जंगबंदी को लागू करने तथा शांति बहाली के लिए विस्तारपूर्वक समझौता हुआ। पर फिर भी हालात बिगड़ते रहे तथा समझौता टूट गया जिसकी जिम्मेदारी पाकिस्तान की ही बनती है। 

मई 2018 में दोनों देशों के दरम्यान एल.ओ.सी. पर गोलाबारी की घटनाएं बढ़ती गईं तथा दोनों देशों के नागरिक मुसीबतें झेलते रहे। दोनों देशों की ओर से डी.जी.एम.ओ. स्तर पर बातचीत होती रही और निचले स्तर पर भी फ्लैग मीटिंगें हुईं पर पाकिस्तान की ओर से अघोषित युद्ध जारी रहा। 2018 में युद्धविराम को लेकर समझौता हुआ जिसकी प्रशंसा चीन ने भी की। मगर स्थिति फिर भी जैसी की तैसी बनी हुई है। 

केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री जी. कृष्ण रेड्डी ने हाल ही में बताया कि गत 3 वर्षों के दौरान पाकिस्तान ने 10752 बार युद्ध विराम की उल्लंघना की, जिसमें सुरक्षा बलों के 72 सैनिकों के साथ-साथ 70 नागरिकों की भी मौत हो गई जबकि सुरक्षा बलों के 364 और 341 आम नागरिक जख्मी हुए। जाहिर है कि सरहद पर युद्ध विराम लागू करने तथा शांति बहाल करने वाले नए समझौते के बारे में बनी सहमति दोनों देशों के रिश्तों में पैदा हुई खटास को कम करने में सहायक होगी। 

बाज वाली नजर
पाकिस्तानी सेना बेशक सत्ता में हो या न हो मगर सरकार पर उसका प्रभाव हमेशा के लिए कायम रहेगा। यहां पर यह भी बताना उचित होगा कि भारत सहित चीन, अमरीका, सऊदी अरब तथा कुछ अन्य देशों के बारे में विदेश नीति वहां की सेना ही तय करती है। जब भी कभी पाकिस्तान में सिविलियन सरकार ने बिना सेना की सहमति से भारत के साथ दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाया तो वहां की सरकार को यह सब रास न आया। भारत के साथ बैठकें भी अधूरी रहीं तथा समझौते भी टूटते रहे। 

मिसाल के तौर पर जब वर्ष 1999 में दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बस द्वारा यात्रा कर पाकिस्तान पहुंचे तो 21 फरवरी को पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने लाहौर घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए तो सेना प्रमुख (बाद में राष्ट्रपति) जनरल परवेज मुर्शरफ की ओर से कूटनीतिक शिष्टाचार की पालना तो क्या करनी थी उसने अप्रैल-मई में कारगिल सैक्टर पर हमला कर दिया और बाद में पाकिस्तान में तख्ता पलट हुआ। इसी तरह जब 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण के दौरान सरकार ने सभी देशों को निमंत्रण भेजा तो नवाज शरीफ समारोह में शामिल हुए। इसके विपरीत जब इमरान खान को प्रधानमंत्री बनाने का शपथ ग्रहण समारोह हो रहा था तो जनरल बाजवा ने नवजोत सिंह सिद्धू के कान में फूंक मारकर कहा कि पाकिस्तान सरकार करतारपुर साहिब रास्ता खोलने पर विचार कर रही है। 

सवाल पैदा यह होता है कि नई सरकार तो अभी कायम ही नहीं हुई थी तो फिर यह कौन सी सरकार थी जो आम चुनावों के दौरान भी फैसले ले रही थी। इमरान को तो करतारपुर साहिब के बारे में यह भी नहीं पता था कि इस स्थान की महानता क्या है और फिर रास्ता भी खुल गया। जरूरत इस बात की है कि समझौते तो होते रहेंगे और टूटेंगे भी मगर सेना की युद्ध संबंधित जरूरतों को प्राथमिकता के आधार पर पूरा किया जाए।-ब्रिगे. कुलदीप सिंह काहलों (रिटा.)
 


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