काश! पर्यावरण की पीड़ा समझ पाते..!

Monday, Jun 05, 2023 - 05:10 AM (IST)

जब पर्यावरण यानी वह आवरण जो हमें चारों ओर से घेरे हुए है, उसके महत्व और हमारे द्वारा की जाने वाली दुर्दशा का अंतर समझ जाएंगे, समझ लीजिए क्या प्रकृति, क्या मानव-सभी का मौजूदा और भावी जीवन सार्थक हो जाएगा। औपचारिकता और वास्तविकता के बीच बहुत बड़ा फर्क होता है। पर्यावरण के महत्व और इसके बिगडऩे के कारणों को समझने और समझाने में जितनी सफलता मिलेगी, सबके जीवन जीने के उद्देश्य सार्थक होते जाएंगे और तभी पर्यावरण सुधार की कोशिशें कामयाब होंगी। कल्पना मात्र से ही गुदगुदी होती है कि बिना दवा और शुद्ध प्राण वायु से भी बीमारियों को चुनौतियां दी जा सकती हैं! 

पुरातन काल के किस्से कहानी भले ही काल्पनिक लगें लेकिन कहीं न कहीं सत्य से प्रेरित जरूर होते हैं। न जाने कितनी धार्मिक और पवित्र पुस्तकों में ऐसे ही निर्मल और स्वच्छंद आकाश और परीलोक की कहानियों के रोमांचित कर देने वाले संदर्भ आज भी हमें स्वप्नलोक-सा एहसास कराते हैं। कहीं न कहीं यह कथा-कहानी स्वच्छ पर्यावरण की खातिर ही तो हैं जिन्हें समझना होगा। कई साक्ष्य और प्रमाण अब भी मौजूद हैं जो प्रदूषण विहीन पर्यावरण के अस्तित्व की सत्यता पर मोहर लगाते हैं। 

ज्यादा दूर क्यों जाना। अभी 3 बरस पहले 2020 का ही उदाहरण पर्याप्त है जब कोरोना के चलते विश्वव्यापी लॉकडाऊन हुआ और लोग घरों में कैद हो गए। सड़कें, हवाई जहाज, ट्रेन, बस यानी पूरी परिवहन व्यवस्था ठप्प कर दी गई। बड़ी संख्या में कल-कारखानों में ताले जड़ गए, दुकानें और प्रतिष्ठान महीनों बंद रहे। रोजाना, 24 घंटे फर्राटे भरते वाहन, उड़ान भरते विमान, धुआं उगलते कारखाने, चिमनियां, जलते ईंधन की गंध और गुबार सब गायब थे। वहीं स्याह, धुंधला और धुआं-धुआं सा दिखने वाला आसमान धार्मिक ग्रन्थों में लिखे सरीखा नीला और साफ-सुथरा हो गया। अक्सर टिमटिमाते मद्धम से दिखने वाले तारे भी नंगी आंखों से साफ नजर आने लगे। साफ हवा से कोरोना काल के बावजूद ताजगी और स्फूर्ति भी महसूस हुई। 

मशीनें हवा की गुणवत्ता यानी एयर क्वालिटी इंडैक्स के जादुई परिवर्तन के सबूत देने लगीं। विकास के नाम पर हर दिन और 24 घंटे प्रकृति विरोधी गतिविधियां पर्यावरण की छाती पर कितना और किस तरह का मूंग दलती हैं यह भी दिखा! लेकिन सच तो यह है कि तमाम सच्चाई और अच्छाई जानकर भी हम न चेते और न ही समझने की कोशिश करते हैं। 

लाखों बरसों का प्रकृति का चक्र डगमगा गया है। एकाएक बेतहाशा बारिश, बाढ़ में डूबते शहर, सड़कों और गलियों में चलती नाव, दरकते पहाड़, जंगलों की आग और अब तो कभी भी बारिश, तूफान, गर्मी, ठंडी के नए-नए और चौंकाने वाले रिकॉर्ड बहुत बड़ी खतरे की घंटी हैं। फरवरी में बेतहाशा गर्मी तो अप्रैल-मई में ठंडक का अहसास वहीं मई में ताबड़-तोड़ बारिश से लगता नहीं कि प्राकृतिक घड़ी का संतुलन बिगड़ गया है? यह बेहद खतरनाक है। वैज्ञानिक, पर्यावरणविद और प्रकृति प्रेमी बेहद चिंतित हैं। 

सैंकड़ों बरस पहले गांवों, देहातों में बोली जाने वाली हजारों कहावतें, मुहावरे, उक्तियां भी झूठी पडऩे  लगी हैं। जब विज्ञान समृद्ध नहीं था, मौसम केन्द्र नहीं थे तब पुरानी लोकोक्तियां ही मौसम के पूर्वानुमान का सटीक सहारा थीं क्योंकि तब पर्यावरण को नुक्सान नहीं होता था जिससे प्रकृति की दिनचर्या संतुलित, तय व ज्ञात थी। 18वीं शताब्दी के जाने-माने घाघ कवि जिनकी कहावतें ज्यादातर बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश तो कवि भड्डरी की पंजाब और राजस्थान में प्रचलित थीं। वह किसान और खगोल के जानकार थे। हर प्रान्तों में अपनी-अपनी भाषा में ऐसी ही तमाम कहावतें प्रचलित रहीं। वर्षा और खेती को लेकर बिना उपकरणों का ऐसा सटीक ज्ञान और भविष्यवाणी कि आज के उपकरण भी धोखा खा जाएं। ये वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ नक्षत्रों पर भी आधारित थीं। जैसे ‘जेठ मास जो तपै निरासा, तो जानो बरखा की आसा’ अर्थात ज्येष्ठ मास में जितनी गर्मी पड़ेगी वर्षा उतनी ही होगी। ‘ 

पर्यावरण को लेकर विश्वव्यापी ङ्क्षचता अच्छी बात है। यह 51वां मौका है जब अंतर्राष्ट्रीय समुदाय एक जगह इकट्ठा होकर फिर आगे की सोच रहा है। हर बार नए विषय पर विचार होता है। इस बार विषय प्लास्टिक प्रदूषण के समाधान पर चर्चा होगी जिससे पर्यावरण को कितना और कैसा नुक्सान होता है पर मंथन होगा। लेकिन 50 बैठकों का भी लेखा-जोखा रखना चाहिए। केवल हर साल थीम बदलने की रस्म से बेहतर है जल, जंगल, जमीन और आसमान को लेकर ऐसी जागरूकता फैले जिससे हरेक नागरिक सीधे जुड़े और समझे। उसे भान कराया जाए कि पर्यावरण का जीवन में कैसा और कितना महत्व है। धरती, आसमान को किस तरह और लगातार नुक्सान हो रहा है। 

पर्यावरण की चिंता तो होनी ही चाहिए लेकिन इसके लिए बस एक ही दिन क्यों? हर दिन कुछ न कुछ हो? रोज पर्यावरण पर ध्यान और ङ्क्षचतन हो। क्यों न इसे धर्म, आस्था व विश्वास से जोड़कर देखा जाए? विद्यालयों की दैनिक प्रार्थनाओं में प्रकृति व पर्यावरण की भी कुछ पंक्तियां जरूरी हों। धर्म कोई भी हो लोग अपने आराध्य को नित्य याद करते हैं, कई-कई बार करते हैं क्योंकि विश्वास रहता है कि वो अच्छा ही करेंगे। ठीक वैसे यदि हम बेहतर पर्यावरण की कामना अपनी प्रार्थनाओं में करें, अमल में लाएं, गंभीरता से सोचने की आदत बनाएं तो सच में वह बहुत कुछ हासिल हो जाएगा जो बड़ी-बड़ी वैश्विक बैठकों या बंद वातानुकूलित कमरों में इबारत लिखने वाले हुक्मरान और नौकरशाह भी नहीं कर पा रहे हैं। अब जरूरत है कि हर दिन पर्यावरण का दिन हो।-ऋतुपर्ण दवे
 

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